यह नाटक परिवार नामक संस्था के मुखियाओं से शुरू होता है और राजकीय, ग़ैर-राजकीय, राजनैतिक और गैर-राजनैतिक संस्थाओं से होता हुआ राज्य, राष्ट्र, वाणिज्यिक एवं धार्मिक-साम्प्रदायिक सत्ताओं तक पहुँचता है। प्रत्येक व्यक्ति जो बड़ा बनना चाहता है वह इन तमाम रंगमचों में क्रमशः बड़े से बड़े रंगमंच का बड़े से बड़ा कलाकार बनने की कामना से तथाकथित प्रगति पर अग्रसर होता जाता है।
ये रंगमंच के कलाकार जब राष्ट्रीय स्तर से भी आगे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने का प्रयास भी करते हैं और पृथ्वी ग्रह नामक क्षेत्र में "वसुधा" नामक कुटुम्ब के रंगमंच तक भी पहुँच जाते हैं तब भी इन रंगमंचों पर वे वर्तमान को यथार्थ परिप्रेक्ष्य में जानने का प्रयास करने के स्थान पर विभ्रम में जीना पसन्द करते है या समझें उनकी ऊर्धमूलाकार रचना में, जो स्वयं के पैरों से स्वयं के साढ़े तीन हाथ ऊपर जो ब्रह्म रूपी डायरेक्टर बैठा है उसके निर्देष की अवहेलना करके किसी अन्य निर्देशक से निर्देशित होते हैं अतः यथार्थ की तरफ से आँख बन्द करके विभ्रम मे भ्रमित होकर एक दूसरे रंगमचों पर भ्रमण करते रहते हैं।
एक दूसरे रंगमंचों की समीक्षा करते हुए परस्पर आलोचना, समालोचना करते हुए स्वयं तो इस रंगमंच से चले जाते हैं लेकिन जो सर्वसाधारण साधु (सीधे-सादे) लोग इन का नाटक देखने के लिए मजबूर हैं और टैक्स रूपी टिकट लेकर, अपने परिश्रम से कमाये हुए धन-धान्य को इन्हें कौड़ियों के भाव समर्पित करके इनके नाटक देखने को मजबूर हैं, वे भी एक विभ्रम में जी रहे हैं और इन्हें बड़ा कलाकार मानकर इनके अनुयाई व अंधानुयाई बन जाते हैं।
रंगमंच के इन कलाकारों ने इस वर्तमान का जो भविष्य निर्धारित कर दिया है उसमें दो प्रकार की सम्भावनाएँ बनती हैं।
या तो आप सभी कलाकार जीवन के यथार्थ को समझ कर एकजुट होकर एक सुन्दर वर्गीकृत व्यवस्था का यह ढाँचा स्वीकार कर के सभी वर्गों को स्व का तंत्र बनाने दें.एक दुसरे से जुड़ कर एक बेड़ा बनाएँ जो आँधी-तूफान में भी भव सागर में तैरता रहता है। जबकि जंगी जहाज़ तो डूब जाते हैं।
अतः या तो जनसाधारण एकजुट होकर इन बड़े नाटकीय आचरण वाले कलाकारों को मत का दान नहीं करके अपने स्वयं के प्रतिनिधि चुनकर फिर बेड़े का निर्माण स्वयं करें या फिर एक ऐसे भविष्य के लिए तैयार हो जायें जो इस पृथ्वी ग्रह को डायनासोर युग में धकेलेगा। क्योंकि अबकी बार जो विश्व-युद्ध [राम-रावण युद्ध] होगा और साथ में गृहयुद्ध [महाभारत] मचेगा वह परमाणु हथियारों से होगा और तब आपकी सन्तति को पत्थरों-लकड़ियों से लड़ने लायक भी नहीं रहने देगा।
अपना-अपना बेड़ा बना कर वर्गीकृत प्रशासनिक व्यवस्था बनाना अधिक कठिन नहीं या कहें बहुत सरल है यदि उस व्यवस्था के लिए मानसिक रूप से तैयार हो जायें। इसके लिए हमें एक वैचारिक आन्दोलन शुरू करना होगा। प्रत्येक टीवी चैनल पर चर्चाओं-गोष्ठियों का आयोजन करें जिसमें विद्यार्थियों के साथ नवयुवाओं से लेकर नव बौद्धिक वर्ग से बराबरी की हैसियत (श्रद्धा) से चर्चा करे। जिनके विषय बाँटे जा सकते हैं।
1. धार्मिक-साम्प्रदायिक बिन्दु
2. जीवनयापन से जुड़े आर्थिक बिन्दु
3. धार्मिक वैज्ञानिक बिन्दु
4. राष्ट्रीय सुरक्षा के बिन्दु
5. प्राकृतिक आपदा के बिन्दु
6. क्रीड़ा-मनोरंजन जगत के बिन्दु
7. शिक्षा एवं चिकित्सा के बिन्दु
8. विज्ञान-प्रौद्योगिकी के बिन्दु
9. पारिवारिक-सामाजिक समस्याओं के बिन्दु इत्यादि-इत्यादि।
टीवी चैनल दो वर्गों मे वर्गीकृत हैं। एक वर्ग जो बेहूदा नाटक दिखाता है दूसरा वर्ग जो विषमताओं से जुड़े समाचारों को अधिकाधिक तोड़-मरोड़ कर बताता है।
इन दोनों ही वर्गों के चैनलों को मैं दो वर्गो मे बँटे बिन्दु दूँगा।
वर्तमान में आप लोगों की (यानी नारद होने के नाते आप जो मेरे भाई-बंधुओं की श्रेणी में आते हैं) की स्थिति यह है कि T.R.P. को बढ़ाने के चक्कर में एक तरफ तो आपने बहुत सारे विषय जोड रखे हैं दूसरी तरफ एक-दूसरे के विषयों की भौंडी नकल कर रहे हैं।
जबकि टी.वी. चैनल्स एक ऐसा माध्यम है जिसकी सहायता से हम दूरदराज मे रहने वाले ग्रामीणों तक को शिक्षित कर सकते हैं। यहाँ शिक्षित शब्द को मात्र साक्षरता तक या पाठ्य क्रम में सीमित नहीं करें। शिक्षित होने का मूल तात्पर्य होता है अधिकारों और कर्तव्यों को संयुग्म करके धर्म को स्पष्ट कर सकें, समझा सकें और स्वधर्म को धारण कर के धर्म की सम स्थापना कर सकें।
वर्त्तमान में शिक्षा के दोनों बिन्दु अपूर्ण हैं। एक बिन्दु है साक्षरता दूसरा बिन्दु है पुस्तकीय जानकारी को रट कर बड़ी डिग्री हासिल करना। अपूर्ण बिन्दुओं को ध्यान में रखकर सांसदों एवं विधायकों के लिये बड़ी डिग्री अनिवार्य नहीं बनाई गई। उसके स्थान पर नैतिक आचरण और मानसिक परिपक्वता को अधिक महत्त्व दिया गया।
लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज का उच्चपदस्थ सत्ताधीश न अपने और न ही जनसाधारण के अधिकारों और कर्तव्यों का संयोग (सम् योग) कर पा रहे है। सभी एक दूसरे के अधिकारों पर अतिक्रमण करने और कर्तव्य को मात्र सैद्धांतिक ज्ञान प्रमाणित करने में लगे हैं।
ऐसी स्थिति मे मीडिया का महत्व कर्तव्य और अधिकार दोनों बिन्दुओं पर बढ़ जाता है। यदि आज का मीडिया वित्तीय सत्ताओं के समक्ष दीन-हीन-कृपण न बने तो वह धार्मिक,राजनैतिक और आर्थिक तीनों सत्ताओं का भला कर सकता है। जबकि आज के हालात में तो यह मुहावरा चरितार्थ होता है कि "नाई की बारात मे सभी ठाकुर।" यानी मीडिया को पैसों से खरीद कर कोई भी धौंस जमा सकता है।
द्वितीय विश्वयुद्ध से लेकर आज तक पुरी दुनिया मे जो भी उठा-पटक हो रही है, उसमें परदे के पीछे बैठे यक्ष (वित्तेश, कुबेर) मीडिया को माध्यम बनाकर चाहे जिस राष्ट्र में सत्ता बदलवा देते हैं, चाहे जिस राष्ट्र पर आक्रमण करवा देते हैं और फिर उस आक्रमण को मीडिया के माध्यम से सही प्रमाणित भी कर देते हैं।
भारत ब्राह्मण-परम्परा के वर्चस्व वाला क्षेत्र है। आज की स्थिति यह है कि ब्राह्मण (अध्यापक) सरकार के नौकर हैं। ऐसे सरकारी नौकर हैं जिन पर सभी सरकारी और राजनैतिक संस्थाऐं धौंस जमा सकती हैं।
अब ब्राह्मण-वर्ग (बौद्धिक-वर्ग) के रूप में सिर्फ मीडिया ही बचता है। मीडिया यदि साथ देता है तो भारत का ही नहीं, मानव मात्र का ही नहीं, जीव मात्र का भला हो ऐसा एक मॉडल बना कर दुनिया से जाना चाहता हूँ। यह मॉडल कैसा होगा इस पर इस नैतिक राजनीति शीर्षक वाले भाग में प्रस्तावना अनुभाग में विस्तार से बता रहा हूँ।
अभी तो भूमिका अनुभाग में आप भविष्य की संभावना के बारे में सुनें। यदि ऐसा ही चलता रहा तो 2050 से पहले-पहले यह एक दृश्य होगा जिसे रंगमंच की भाषा में सुनें।
एक दृश्य है। सन दो हजार पचास से दो हजार एक सौ के बीच सन कम या अधिक भी हो सकते हैं लेकिन निकट-भविष्य का दृश्य है।
एक बड़ा सा तालाब है। उसके पास एक अस्सी वर्ष का वृद्ध और आठ दस वर्ष के कुछ बच्चे बैठे हैं। चारों तरफ खण्डहर बिखरे हैं। खण्डहर देख कर लगता है कि वहाँ पहले भव्य अट्टालिकायें रही होगी।
बीच-बीच में झाड़ियाँ और कुछ पेड़ भी उगे हैं। इक्के-दुक्के लोग इधर-उधर आ जा रहे हैं जिनके हाथों मे जलाने की लकड़ियाँ और इधर-उधर से इकट्ठे किये हुए फल, हरी सब्जियाँ और कुछ इसी प्रकार की सूखी खाद्य सामग्रियाँ हैं।
उनके कपड़े काफ़ी पुराने और फटे हुए से हैं। ये सभी बच्चे और वृद्ध इस तालाब के पास इसलिए बैठे हैं ताकि उस तालाब पर कोई पशु पानी पीने आये तो वे उसका शिकार कर सकें और आहार जुटा सकें। इस के लिए उनके हाथों में कुछ ऐसे हथियार हैं जो कभी फ़र्नीचर, दरवाज़ों और वाहनों के हिस्से रह चुके हैं।
बालक उस वृद्ध को पूछ रहे हैं :- हाँ तो दादाजी! आप से हमने पूछा था कि अचानक इतने सारे लोग मर कैसे गये तो आपने कहा था 'कभी तसल्ली से पूरी कहानी बताऊँगा'। तो अब हमें बताईये क्या हुआ था ?
वृद्धः- बात बहुत पुरानी है, मेरे बचपन की है। उससे भी पूर्व इसकी शुरूआत दो सौ, तीन सौ वर्ष पहले ही हो चुकी थी।
कुछ यक्ष थे, जो भारत में आये। वे यहाँ पर व्यापार करने लगे। इस काम के लिए उन्होंने मुद्रा नामक यक्षणी को पैदा किया।
उस यक्षणी का बहुत ही जतन से पालन पोषण किया गया। जब वह युवा हो गई तो चारों तरफ उसी के चर्चे होने लगे। वह सभी को प्रिय लगने लगी। सभी उसे चाहने लग गये तो उन यक्षों ने उस अपनी पुत्री का विवाह ऋण नामक राक्षस से कर दिया।
ये दोनो ही बहुत मायावी थे। क्योंकि मुद्रा नामक यक्षणी का विवाह ऋण नामक राक्षस से हुआ तो तुरन्त ही उनके एक पुत्र हुआ। उसका नाम था ब्याज।
यह ब्याज नामक महाराक्षस पैदा होते ही बड़ी तेज़ गति से बढ़ने लगा। यह दिन रात बिना रूके बढ़ता था, फिर ब्याज का ब्याज और फिर उसके ब्याज के रूप मे यह बहुत विस्तार लेने लगा।
चक्र की गति की तरह बढ़ने वाला चक्रवृद्धि ब्याज तेज़ी से बढ़ता ही गया। इस ब्याज नामक महाराक्षस की यह विशेषता थी कि बड़ा होकर पुनः अपनी माँ मुद्रा तथा अपने पिता ऋण का रूप ले लेता था और फिर उनकी सन्तानों का विस्तार होता जाता।
इन मुद्रा नामक यक्षणी और ऋण नामक राक्षस और इनका ब्याज नामक पुत्र तीनों मिलकर भारत को और पूरी दुनिया की मानव जाति को खाने लगे। इन की भूख इतनी अधिक थी कि ये चाहे कितना ही खा लेते थे लेकिन इन्हें कभी तृप्ति नहीं मिलती थी। इनकी तृष्णा बनी रहती थी। यहाँ तक की यह ब्याज नामक महाराक्षस तो ऐसा था कि जितना अधिक खाता था उतनी ही अधिक भूख बढ़ती जाती थी। इसकी भूख प्रतिशत के रूप में बढ़ती थी।
इस पूरे यक्ष एवं राक्षस परिवार ने समाज का रूप ले लिया और ऐसी स्थिति पैदा कर दी थी कि जो लोग मानव नाम से जाने जाते थे और जो धरती माता के पुत्र थे, जो धरती से अन्न नामक पुण्य पैदा करते थे उनके उस पुण्य को भी वह ब्याज नामक महाराक्षस छीन कर ले जाता था। तब वह क्षत्रिय किसान जाति जिसके पराक्रम से इतिहास भरा था, वे इस ऋण और ब्याज से त्रस्त होकर आत्महत्याएं करने लगे।
जब मुद्रा नामक यक्षणी को पैदा करने वाले यक्ष यह देखते कि अब बहुत सारे मानव ग़रीब हो गये हैं तो वे अनुदान नामक एक दानव को उनकी सहायता के लिए भेज देते।
वे मानव जो कि पहले से ही असहाय हो जाते थे वे दान-अनुदान नामक सहायता लेकर और अधिक असहाय हो जाते और अधिक से अधिक सहायता की इच्छा करने लग जाते। इस तरह मानव इन दानवों, यक्षों और राक्षसों के सामने दीन-हीन-कृपण होता गया।
बच्चों का प्रश्न:- तो क्या वे मानव उन यक्षों एवं राक्षसों का विरोध नहीं करते थे।
वृद्ध:- मानव तो सभी असहाय हो गये थे। उन मानवों की सन्तानें युवा मानव भी उस मुद्रा के प्रति इतने आकर्षित थे कि वे अपने माता-पिता के हित में विरोध नहीं करते थे, बल्कि वे यह कहते हुए सड़कों पर उतर जाते थे कि हमें भी आप अपने समूह में शामिल करो। हमें भी ऐसा काम और ऐसा रोज़गार दो कि हम भी आपकी तरह मुद्रा नामक यक्षणी का साहचर्य प्राप्त कर सकें।
बालक:- तो मुद्रा नामक यक्षणी इतनी आकर्षक थी।
वृद्ध:- हाँ वह बहुत आकर्षक थी। अलग-अलग राष्ट्रों की मुद्रा का रंग-रूप तो अलग-अलग होता था लेकिन उसके आकर्षण से कोई मानव बच नहीं पाता था, क्योंकि मानवों को उसमें भगवान दिखने लगा। यहाँ तक कि मानव और युवा मानव सभी की यह स्थिति हो गई थी कि वे धरती माँ को भी इस मुद्रा के आकर्षण में बेचने लग गये।
जो किसान युवा धरती माँ की कोख (गर्भ) से उपजे अन्न नामक पुण्य को ग्रहण करके युवा हुए वे भी इन यक्षों एवं राक्षसों के सहयोग के लिए बनी सरकार नामक सत्ता में शामिल होकर बहुत सारी मुद्राओं को अपने पास या अपने खाते में जमा कराते लेकिन उस मुद्रा का उपयोग पुण्य उपजाने के लिए, अपनी धरती माँ को हरा भरा करने के लिए नहीं करते थे। अतः धरती मां के स्तन भी सूख गये और उनमें दूध बनना बन्द होता गया।
बच्चे:- फिर क्या हुआ ?
वृद्ध:- फिर धीरे-धीरे एक तरफ तो यक्षों एवं राक्षसों ने 'इण्डस्ट्रीज़' नामक दैत्यों के आकार को बढ़ाना शुरू कर दिया और उन्होंने अधिक दैत्याकार भवन, दैत्याकार यंत्र और वाहन बनाने शुरू कर दिये जो आकाश में भी उड़ते थे तब दूसरी तरफ सभी युवा पुण्य पैदा करने वाले कृषि रोज़गार को छोड़-छोड़ कर बेराज़गार होने लग गये।
एक तरफ तो बड़े-बड़े यक्ष पैदा हो गये जिनके पास मुद्रा नामक यक्षणियों के बड़े-बड़े हरम थे। जिन्हें बैंक कहा जाता था तो दूसरी तरफ उन्होंने विविध प्रकार के असुर बना लिये थे। जिन्हें बम कहते थे।
बच्चे:- ये असुर कैसे थे ?
वृद्ध:- ये असुर देखने में तो छोटे ही होते थे लेकिन ये एक क्षण में इतने बड़े हो जाते थे कि बड़ी भयानक आवाज करके मर जाते थे लेकिन आसपास की सभी चीज़ों को नष्ट कर देते थे। यक्षों ने जो उद्योग नामक बड़े-बड़े दैत्य बनाये थे उन के द्वारा असुर भी उत्पन्न करते थे। फिर इन असुरों को जब वे हवा में उड़ने वाले लोहे के दैत्याकार पक्षियों से नीचे गिराते तो वहाँ सभी कुछ नष्ट हो जाता था।
बच्चे:- वे ऐसा क्यों करते थे ?
वृद्ध:- यह उनका स्वभाव था। ऐसा करके वे अपने आप को शक्तिशाली प्रमाणित करने की कोशिश करते थे और स्वयं को शक्तिशाली मानने का उनमें भ्रम पैदा हो गया था।
वे सभी शरीर से इतने कमज़ोर हो गये थे कि उन्हें सुख की अनुभूति नहीं होती थी अतः उन्हें यक्षणी के साहचर्य से सुख महसूस करने का भ्रम हो गया था और वे एक-दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण करते रहते थे और मुद्रा के लालच में वे असुरों का और दैत्याकार यंत्रों का निर्माण करके बेचते थे।
फिर एक दिन ऐसा हुआ कि सभी मानव भी यक्ष, राक्षस, दैत्य, दानव बनकर लड़ने लगे और यक्षणी के प्रभाव में आकर लूटपाट करने लगे और एक दुसरे को मारने लग गए।
जब मानवों के शव सड़ने लगे तो महामारी फैलने लगी। अन्न की कमी से उनके शरीर कमज़ोर हो गये थे अतः महामारी में फैली बीमारियों का सामना नहीं कर पाये और फटाफट मरते गये।
उनके मरने का एक कारण यह भी था कि वे मुद्रा नामक यक्षणी पर इतने अधिक मोहित रहते थे कि उसी को समर्पित हो गये। उन्होंने इतने बड़े-बड़े मकान तो बनवा लिए लेकिन उन में खाने-पीने का सामान नहीं रखते थे सिर्फ़ सोने-बैठने के फर्नीचरों से मकान भर लेते थे।
जब आपस मे लड़ाई छिड़ी तो उनके घरों में दो तीन दिनों में ही खाने-पीने का सामान खत्म हो गया और सभी भूखे मरने लगे।
जहाँ अनाज पड़ा था, वह पड़ा ही रहा क्योंकि आने-जाने और सामान लाने-ले जाने की बड़ी-बड़ी यांत्रिक गाड़ियाँ थी उनके लिए पेट्रोल और डीज़ल नामक तरल पदार्थ होता था उनके गोदामों में विस्फोट हो गये थे। इन विस्फोटों से जहाँ-जहाँ आग लगी उनके प्रमाण तो तुम जहाँ-तहाँ देख ही रहे हो।
लेकिन एक विस्फोटक उन्होंने ऐसा भी बना लिया था जो मीलों तक का क्षेत्र तबाह कर देता था। उसे परमाणु बम कहा जाता था। वे बम जहाँ-जहाँ गिरे हैं वहाँ तो अब हज़ारों वर्षो तक अन्न तो क्या घास तक पैदा नहीं होगा।
बालक:- ऐसा क्यों किया उन्होने ? वे भी सब मारे गये और हम भी उस विकसित सभ्यता को देखने और उसका सुख भोगने से वंचित रह गये।
वृद्ध:- यह सब इसलिए हुआ कि जो लोग सच्चाई जानते थे उनकी कोई नहीं सुनता था। सारे के सारे मानव यक्ष और राक्षस हो गये थे।
वे एक दूसरे से अनुबन्ध मे बँधे थे और लड़ाई करने के लिए मजबूर हो गये थे क्योंकि सभी को मुद्रा नामक यक्षणी की आवश्यकता होती थी जो कि उन्हें महीने की महीने उपलब्ध करवाई जाती थी।
दूसरी बात उन्होंने धरती को भी राष्ट्रों के नाम से बाँट रखा था। सभी योद्धा अपने राष्ट्र की सुरक्षा और दूसरे राष्ट्र पर अतिक्रमण करने को राष्ट्र धर्म मानने लगे थे अतः मानव धर्म नष्ट हो गया था।
मानव धर्म पर मूर्खों एवं धूर्तों ने कब्जा कर लिया था अतः अजीब-अजीब तरह की पोशाकें पहन कर अजीब-अजीब तरह की बातें करके सभी धर्मगुरू अनुयाईयों के रूप में अपनी ग्राहक संख्या बढ़ाने में लग गये। ये भक्त भी उन्हें मुद्रा नामक यक्षिणियाँ लाकर देते थे।
ऐसा ही राजनीति में था, ऐसा ही समाज में था। पुरुष वैश्य बनने की दौड़ में शामिल हो गये और स्त्रियों का चरित्र वैश्या जैसा हो गया था। लड़कियाँ अपने प्रेमी से विवाह न करके उस यक्ष से विवाह करती थीं जिसके पास मुद्रा नामक यक्षणी होती थी।
सारे बच्चे एक साथ मुँह बिगाड़ कर बोले अजीब मूर्ख लोग थे हमारे पूर्वज, हमें उन पर शर्म आती है।
तो श्रीमान पाठकों/ मतदाताओं/ विद्यार्थियों ! अब आप को निर्णय करना है कि आप वर्तमान की इस स्थिति को ऐसे ही चलने देंगे या आगे आकर कुछ करेंगे !
कुछ करने में असमर्थ हैं और स्थिति को बदलने के लिए मतदाता के रूप में आपकी अपने-आप के प्रति श्रद्धा नहीं है, आपकी मानसिक सामर्थ्य, हैसियत, औकात कुछ करने की नहीं है तो आपकी आप जानें !
यदि अपने-आप के प्रति, मानवता के प्रति और भगवान की इन चैरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ अपनी मानव योनी के प्रति श्रद्धा है कि भगवान का सबसे शक्तिशाली और बलवान स्वरूप हम मानव ही है तो आपको चाहिये इस पूरे ताने-बाने (तंत्र) को ही सुव्यवस्थित करें।
इसके लिए आप अपने उस भूतकाल पर भी एक अध्ययनपरक दृष्टि डालें। क्योंकि काल (कल) हम बीते हुए को भी कहते हैं तो काल (कल) हम आने वाले कल को भी कहते हैं।
जो जीवन चल रहा है वह वर्तमान है जो जीवन पूर्व में था वह कल था और इस जीवन के बाद का जीवन जो मिलेगा वह भी कल ही कहलाता है।
कल जो कर्म किया था वह आज भोग रहे हैं और आज जो कर्म कर रहे हैं वो कल भोगेंगे। अतः सड़कों पर उतर कर सड़क-छाप बन कर अथवा किसी का अंधानुयायी बनकर जूते खाने और जूते मारने, स्टेज पर जूते उछालने,कपडे उतारने से तो अच्छा है अपने घर परिवार एवं गाँव मोहल्ले से मित्रता शुरू करके अपने-अपने क्षेत्र के ग़ैर राजनैतिक स्थाई प्रतिनिधियों को चुनें। जो आपको यह सूचना दे सकें कि आपके विधानसभा क्षेत्र एवं संसदीय क्षेत्र में किस व्यक्ति को सर्वसम्मति से खड़ा किया गया है ताकि आप उसे मतदान करके जिता सकें। ताकि हम सर्वसम्मति से ऐसी व्यवस्था पद्धति बना कर स्थापित कर सकें जो लम्बे समय तक प्रतिष्ठित रह सके और ब्रह्म द्वारा उपजाये गये, ईश्वर द्वारा भौतिक आधार दिये गये और भगवान द्वारा आकृति प्रकृति मे वर्गीकृत किये गये; इस जीव-जगत को मुद्रा और उसके पतियों [पूंजीपतियों] से तथा उनके पुत्र ऋण और पुत्र-वधु मुद्रा और पौत्र ब्याज से मुक्त और सुरक्षित करने का उपाय हो सके।
हरि ऊँ तत् सत्
आपका देवर्षि नारद।
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