राम-रावण के बीच युद्ध को सोलहवीं शताब्दी की रचना तुलसीकृत रामचरितमानस में एक विशेष दृष्टिकोण दे दिया गया है।
छठी शताब्दी में जब वर्गीकृत भारत को पुनः व्यवस्थित कर दिया गया था तब धनुर्धारी श्री राम राजपूतों के आदर्श एवं अनुकरणीय पुरुष थे, पृथ्वीराज चाहवान ने स्वप्न [स्व-पन] में अपने आप को कौशल्या के पुत्र के रूप में आशीर्वाद लेते हुए देखा था।
ग्रामीण भारत में हलधर बलराम और गौपालक कृष्ण आदर्श एवं अनुकरणीय पुरुष थे, गाँवों को धनधान्य से और दूध,दही,मक्खन से संपन्न बना दिया था जहाँ हर आँगन में कृष्ण-बलराम खेलते थे; आज की तरह सिर्फ पत्थरों से बने भवनों में प्रस्तर-प्रतिमाओं के रूप में और दीवारों पर टंगे हुए प्रतीकों के रूप में नहीं थे।
इसी तरह वर्षावनों वाले भारतवर्ष में फरसाधारी परशुराम आदर्श एवं अनुकरणीय पुरुष थे जो वनों की रक्षा करने के लिए ब्राह्मण होते हुए भी नरसंहार कर देते थे।
मुग़लों के स्थापित होने के बाद जब अकबर ने कृष्ण चरित्र को अपने आचरण में धारण करने का मंसूबा बनाया तो कृष्ण की रासलीला के माध्यम से बताई गयी एक सौ आठ परमाणुओं की संरचनाओं के वैज्ञानिक अर्थ को अकबर समझ नहीं पाया था क्योंकि यह उसका विषय भी नहीं था। इस विषय को तो यूरोपियन लोग समझने में सफल हुए थे जब कि अकबर ने तो इस रासलीला को अपनी हरम रखने वाली संस्कृति के अनुकूल पाया।
कहावत है कि जैसा राजा-वैसी प्रजा। अकबर के शासन काल में राम का आचरण अपनाने वाले राजपूत भी बहुत से विवाह करने लग गए, तो लोलुप लोगों ने भी बहते पानी में हाथ धोना शुरू कर दिया। ऐसी स्थिति में तुलसी ने रामचरितमानस में राम-सीता के एक पत्नी-एक पति धर्म की मानसिकता वाले आदर्श चरित्र को ही विशेष तौर पर उभारा था।
बाल्मीकि रामायण के राम-रावण, तुलसी रचित रामचरितमानस के राम रावण से सिर्फ अलग ही नहीं थे बल्कि घटना की पृष्ठभूमि ही अलग थी। यहाँ दो संस्कृतियों, दो राष्ट्रों, दो व्यवस्था पद्धतियों के बीच की नीतियों का टकराव था। यह वशिष्ठ और रावण के बीच, इन्द्र और रावण के बीच, अगस्त्य और रावण के बीच, विश्वामित्र और रावण के बीच परम्पराओं एवं नीतियों का टकराव था।
आज औद्योगिक-विकास से ही विकास का मापदंड निर्धारित होता है। भले ही इससे सनातन धर्म चक्र/ Ecological cycle नष्ट हो रहा हो, मानवीय जीवनशैली अमानवीय बनती जा रही हो, प्रदूषित नगरों में एक बड़ा वर्ग दयनीय स्थिति में रह रहा हो; लेकिन हम अपने राष्ट्र के अरबपतियों की गिनती और गगनचुम्बी इमारतों की ऊँचाई से गदगद हो जाते हैं।
कुछ ऐसी ही स्थिति उस समय हो गई थी जब एक तरफ रावण की सोने की लंका थी तो दूसरी तरफ लकड़ी से बने साधारण भवनों में रहने वाले दशरथ थे। भले ही वे आज के ताशकंद[जहाँ उस समय का तक्षशिला विश्वविद्यालय था] से लेकर फारस की खाड़ी से प्रशांत महासागर तक के एक छत्र सम्राट थे।
भले ही उनके नैतिक मूल्य धन-धान्य से संपन्न भारत के लिए आदर्श स्थापित करने वाले थे, लेकिन जनता तो जनता है, उसे तो रावण की ईश्वर भोगी जीवन-शैली ही आकर्षक लग रही थी। इसी आकर्षण से आज का जीवन भी नारकीय[नकारात्मक मानसिकता वाला }होता जा रहा है, जनता की इसी मानसिकता के कारण भारत में वशिष्ठ ने पहली बार नैतिक-राज के स्थान पर राजनीति शब्द का उपयोग किया था। वशिष्ट ने नीतिराज वाले भारत में प्रथम राजनीति-शास्त्र रचा जिसका पहला वाक्य था 'राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है'।
यही राजनीति महाभारत काल में आते-आते कूट-नीति हो गयी। अभी जो स्थिति है उसमें नीति नहीं अनीति पर चलने वालों की फ़तह /जीत हो रही है। अधर्म /ग़ैर संवैधानिक कार्य करने वालों का उत्थान हो रहा है और धर्म यानी नैतिक मूल्यों के प्रति ग्लानी भाव आ गया है। अतः आज भारत में ब्रह्म का सृजन होना अवश्यम्भावी है।
आज जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तो इसका अर्थ यह भी है कि ब्राह्मण वर्ग यानी बौद्धिक वर्ग स्वतन्त्र है।अतः हमें इस विषय पर विवेचना करनी चाहिए कि आख़िर नीति-अनीति की परिभाषा का आधार क्या हो ? गीता में तो यहाँ तक कहा है कि "प्रारब्ध के निर्माण के लिए पाँच हेतु [निमित्त] होते हैं।-
(1) अधिष्ठान (2) कर्ता (3) तरह-तरह के करण (4) विविध प्रकार की चेष्ठाएँ (5) देव। ये पाँचों हेतू जब सती होते हैं (परस्पर जुड़ते हैं) तब प्रारब्ध का निर्माण होता है।
इसके आगे यह भी कहा है कि चाहे न्याय संगत हो या अन्याय संगत जब पांचों हेतु सती होते हैं तभी प्रारब्ध का निर्माण होता है। इस वाक्य का अर्थ है कि यह संविधान और न्याय-व्यवस्था मानव का अपना स्वअनुष्ठित धर्म है; मुझ भगवान का, कुदरत का बनाया कानून नहीं है। अतः मैं इस पचड़े में नहीं पड़ता कि पाँचों हेतु न्याय संगत सति हुए हैं या अन्याय का सहारा लिया गया है। लेकिन यह सुनिश्चित है कि प्रारब्ध का निर्माण तो तभी होगा जब पाँचों हेतु सति होंगे।
इस तरह जब एक व्यक्ति अपने प्रारब्ध का निर्माण करता है तो वह न्याय[संवैधानिक नियम इत्यादि] को नहीं देखता, अन्याय[रिश्वत, परिचय, ऊपर से आया हुआ दबाव इत्यादि] का सहारा भी ले लेता है। अतः जब हम व्यवस्था में पदासीन व्यक्तियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हैं तो यह बस खुद के प्रारब्ध का निर्माण करने के लिए उठाया गया मुद्दा ही होता है। अतः हमें चाहिए कि हम निर्धारित करें कि नैतिकता की परिभाषा क्या हो! और उस आधार पर वैसी परिभाषा क्यों हो! इसीलिए हमें चाहिए कि हम काल के उस रूप को जानें, जो पुनरावर्तित होकर बार-बार दिन और रात की तरह हमारे सामने आता है। इस तरह-
भूत का मान + वर्त्तमान का यथार्थ मान = भविष्य के निर्माण का मापदंड। यानी जब दो संख्याओं का मान पता हो और गणना करना आता हो तो तीसरी संख्या का मान निकाला जा सकता है।
जब हम भूत में हुई भूल का अवलोकन करके + वर्त्तमान का यथार्थ अध्ययन + नीति, नीत, नीयत निधारित करके, उसे धारण करके उसपर चलते हैं तो = हमारी योजनायें-परियोजनाएं हमें अपने लक्ष्य से मिला ही देती हैं। हमारी नीयत अगर कल्याणकारी होती है तो वह नियति बन कर हमें अवश करके लक्ष्य की तरफ धकेलती हुई लक्ष्य तक पहुँचा देती है, क्योंकि "जीतने वालों की मैं नीति हूँ।"
लेकिन आजकल जो चल रहा है उसमें राजा के स्थान पर बैठे राजनीतिज्ञों की नीयत ही जब रचनात्मक कार्यों को करने के स्थान पर एक दूसरे को पटखनी देने की है तो भारत की नियति[प्रारब्ध] का निर्माण गृहयुद्ध की तरफ धकियाये जाने का हो गया है।
इस तरह बात घूम फिर कर फिर वहीं आ जाती है कि हमें यदि ऐसी व्यवस्था बनानी हो कि जिसमें प्रारब्ध के निर्माण हेतु अन्याय का सहारा न लेना पड़े; तो उसका प्रथम और अंतिम एकमात्र तरीका है कि इस जलेबी कूद को तो छोड़ें और एक किनारे से नए भारत का निर्माण करें जहाँ हम एक ऐसी सामाजिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक संरचना बनाएं जहाँ रहने का अर्थ होगा मानव मात्र 'स्व के अर्ग' में संतुष्ट रहते हुए ऐसा जीवन जिए जिसमें न तो किसी को अन्याय का सहारा लेने की आवश्यकता पड़े और न ही किसी को अन्याय सहने की सहनशीलता की परीक्षा देनी पड़े।
रोज़गार के रूप में उस कार्य को करने की स्वतंत्रता और स्वाधीनता हो जिस कार्य में कर्ता को आत्म-संतुष्टि हो, कॉमर्शियल कामनाएँ जहाँ पैदा ही न होने पाएँ।
यह व्यवस्था भारत में ही सम्भव है जहाँ अर्थ[धन] की व्यवस्था वाली Economics, जीवन के अर्थ [meaning, sense,signification] की व्यवस्था वाली Ecology और अर्थ[पृथ्वी] पर एक समान व्यवस्था
वाली Global economy के तीनों अर्थों को सम किया जा सकता है अर्थात जब हम भारत में स्वर्ग स्थापित करके विश्व को भी आर्थिक लाभ देते रहेंगे और जहाँ के निर्माण आधारित अर्थशास्त्र को भी संकट में आने से
बचाते रहेंगे तो फिर क्यों तो महाभारत जैसे गृहयुद्ध होंगे और क्यों ही रामायण जैसे विश्वयुद्ध होंगे।
लेकिन चूँकि मानव चौरासी लाख योनियों[प्रजातियों,नस्लों] को पार करके, क्रमिक विकास करके आया है अतः हमारे अन्दर श्वान प्रजाति के गुण और विकार भी संग्रहित है। अतः यह भी हो सकता है कि आजकल की हमारी प्रजाति में रचनाधर्मिता के गुण के स्थान पर श्वान प्रजाति का गुण इतना हावी हो गया है कि हमारी नियति में लड़कर मरना,सड़क दुर्घटनाओं में मरना इत्यादि यानी कुत्ते की मौत मरना ही लिखा है तो जैसा चलता है चलने दो। क्यों नये भारत को बसाने की, रामराज्य को लाने की पंपाळ करें।
अभी-अभी एक घटना घट रही है। म्यामार में बांग्लादेशी मुस्लिम समुदाय पर हमला हुआ और उन्हें म्यामार से निष्कासित कर दिया गया। यह काम बौद्ध सम्प्रदाय के लोगों ने किया। अब यदि बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के परिप्रेक्ष में लें तो प्रथम बिंदु तो यही हो जाता है कि यह हिंसा है जो कि बुद्ध द्वारा बताये आचरण के विरूद्ध है, दूसरा बिंदु लें तो वह मुस्लिम समुदाय आदिवासी पहले हैं, मुस्लिम बाद में अतः इस साम्प्रदायिक हिंसा की शरुआत ही अधार्मिक है। उसके बाद भारत के मुस्लिम समुदाय को पाकिस्तान में बैठे साम्प्रदायिक राष्ट्रवादियों ने उकसाया और भारतीय मुस्लिम इस उकसावे में आ गये। अभी यह जो स्थिति है वह तो शायद सम्भाल ली जायेगी लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या हम अपनी धोती सम्भालने में ही लगे रहेंगे या कुछ स्थायी समाधान भी करेंगे !
लेकिन मुद्दे की बात यह है कि यदि हम राष्ट्र, सम्प्रदाय और दलीय राजनीति से ऊपर, मानवीय स्तर ऊँचाई पर उठ कर देखें और साथ ही साथ जमीन पर खड़े होकर मानवीय धरातल पर आंकलन करें यानी एक दूसरे को आहत करने के लिए हवा में तीर छोड़ना बंद करके यानी इस बिंदु पर बचकाने दर्शन से मुक्त होकर, समग्र दृष्टिकोण से देखें तो सच्चाई वही ढाक के तीन पात है।
पहली सच्चाई है उन आदिवासियों का पेट यानी भूख। दूसरी सच्चाई है सम्प्रदायों और राष्ट्रों के नाम पर छिछोरी मानसिकता और तीसरी सच्चाई है दलीय राजनीति के कारण विश्व को गवर्न करने वाले विश्व गुरु भारत के राजनेताओं का उस मीडिया द्वारा गवर्न होना जिस मीडिया की मानसिकता सिर्फ टी आर पी में बँधी हुयी रहती है। भारत की राजनीति और मीडिया क्षुद्र लालच में बँधे हैं। अतः यदि गाँधी की कल्पना से भी बहुत परे सच्चा रामराज्य चाहते हैं तो उसका एक मात्र तरीका है एक नये वर्गीकृत किन्तु अखंड महाभारत का निर्माण जहाँ के बहुवर्गीय समाज को नीतियाँ संचालित करें न कि क्षुद्र मानसिकता।
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