Once being the world's master,India is the world's oldest and largest democratic system creater nation. This is not the thing to prance upon forefathers like the way Lucknow's tongawala's call themselves posterity of Nawabs. nor this is the laughing matter at the prancing one, Looking at India's current selfmade predicament. But it the centerpoint(Krishnbindu) to think seriously that instead of leading, why are we trailing today ! In this blog we will analyse on the morality-immorality's past-present-future!

(1)माना कि भारत भी विश्व के अन्य राष्ट्रों की तरह वित्त द्वारा शोषण करने वाली यक्षीय अनुबंध प्रणाली में बंध गया है लेकिन इस का यह अर्थ भी नहीं है कि उद्योग-वाणिज्य की कॉमर्शियल प्रणाली से इतने बँधे रहें कि आहार का उत्पादन करने वाले वर्ग की क्रय-क्षमता ही समाप्त होती जाये और अंततः उद्योग भी ठप हो जाये..

(1) suppose that India, like other nations of the world, is bound by Yakshiya agreement system exploiting by finance. But this does not mean to be hardly bound by the commercial industry system that purchasing power of the food producing class, terminates. And eventually the commercial industry come to a standstill.

(2)कृपया भारत और भारतीयों की तुलना उन देशों से ही करें जहाँ अर्थ-व्यवस्था का मूलाधार प्राकृतिक उत्पादन हो.वैदिक संस्कृत के शब्द "स्वास्ति-सृष्टम" का शब्दानुवाद है "सनातन-धर्म-चक्र" और इसका लेटिन शब्द है "इकोलोजीकल चैनल". भारत में "सनातन धर्मी अर्थ-व्यवस्था पद्धतियाँ" पुनर्स्थापित होनी चाहिए अर्थात "इकोनोमिक्स मस्ट बी इकोलोजी बेस्ड".

(2) Please compare India and Indians to those countries where foundations of The economy is natural production. Vedic Sanskrit word SWAASTI-SRISHTAM's literal translation is "Sanatan Dharma Chakra". It's Latin word is "Ecological Channel." means "the Eternal Righteous-System Practices" must be restored in India. Ie "Economics Must be Ecology-based".

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

19. आप मुझे मान्यता दें मैं आपको प्रजातांत्रिक व्यवस्था का स्वर्ग बना कर दूँगा !

 जैसा कि बार-बार दोहरा रहा हूँ कि इस ब्लॉग श्रृखला के माध्यम से में सांख्य-योग बताने जा रहा हूँ| सांख्य शब्द के अंतर्गत ये सभी शब्द आ जाते हैं; सिद्धांत, समीकरण, सूत्र, सांख्यकी, आंकड़े, प्रिंसिपल, तकनीक, तरीका इत्यादि का ज्ञान| Theory, Theoretically, Principled, Doctrine, Intransigent, Platonic, Equational, Formula, Original Concepts, idea, Vision, Perspective, 
Outlook, maxim, law, rule, motto, etc का ज्ञान लेकिन जब तक हम सांख्य का योग अर्थात प्रयोग-उपयोग करना नहीं जानते सांख्य का ज्ञान न सिर्फ व्यर्थ है बल्कि दुःख का कारण बन जाता है|

मैं उन सभी लोगों से क्षमा चाहता हूँ जो धार्मिक-अवतारों और धार्मिक साहित्य को लेकर पूर्वाग्रहग्रस्त हैं। पूर्वाग्रहग्रस्त लोग दो वर्गों में वर्गीकृत होते हैं। मैं उन सभी लोगों से क्षमा चाहता हूँ जो धार्मिक-साहित्य से राग-अनुराग रखते हैं अतः उनके पीछे की वैज्ञानिक सच्चाई जाने बिना ही अन्धानुयायी बन कर, आँख बंद करके भ्रम में भ्रमण करते हैं और उनसे भी क्षमा चाहता हूँ जो धार्मिक साहित्य से द्वेष रखते हैं अतः उसमें लिखे सत्य को जानने से पहले ही अस्वीकार कर देते हैं। अतः मैं उनसे भी क्षमा चाहता हूँ जो धर्म के नाम पर अतिवादी, कट्टरवादी और अन्धानुयायी होते हैं। उनसे भी क्षमा चाहता हूँ जो धर्म के नाम पर बिदक जाते हैं और धर्म के विषय में कुछ भी जानना उनके लिए हास्यास्पद आचरण है। मैं उनसे भी क्षमा चाहता हूँ जो धर्म के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं।

अभी एक लेख पढ़ा था जिस में लेखक ने लिखा है कि अब कल्कि अवतार की आवश्यकता है। कल्कि अवतार के बारे में अनेक प्रकार की अवधारणायें हैं। लेकिन मैं यदि नेताजी सुभाष बोस की भाषा में कहूँ कि 'आप मुझे मान्यता दें मैं आपको प्रजातांत्रिक व्यवस्था का स्वर्ग बना कर दूँगा'। तो क्या आप इस बात को स्वीकार करने की मनोस्थिति बना सकते हैं ? यदि हाँ तो आप यह स्वीकार करने की बौद्धिक क्षमता अवश्य रखते होंगे कि कृष्णावतार एक ग्वाला थे। ईसा मसीह गडरिये[भेड़ पालक] थे। पैगम्बर मोहमद एक रेबारी[ऊँट,बकरी पालक] थे। बुद्ध एवं महावीर आदिवासी थे। परशुराम वन संरक्षक थे और वहीं से आदिवासी से ब्राह्मण बनने की परंपरा की शुरुआत अर्थव्यवस्था में दखल देने से हुई। हलधर बलराम किसान थे। श्रीराम एक योद्धा थे। सभी अवतारों ने अपने अपने समय के काल स्थान परिस्थिति के अनुरूप तप किया था। जादू किसी के पास नहीं था।

जब राजाशाही होती है तो एक राजा का मंत्री बन कर या संपर्क करके उससे मंत्रणा करके जनहितकारी व्यवस्था को बलपूर्वक अंजाम दिया जा सकता है। लेकिन आज प्रजातंत्र है। प्रजातंत्र के अनुरूप ही वर्त्तमान की परस्थितियों में कोई अवतार अवतरित होगा। आप मुझे सर्वसम्मति दे सकने वाली निर्दलीय संसद बना कर दें। मैं एक पत्रकार की तरह आपको वह डिज़ाइन बना कर दूंगा जो सर्वमान्य होगी। बिना किसी हिंसक क्रान्ति के एक क्रमबद्ध कार्यक्रम दूँगा जो आनंद में दोलन करते हुए चलने वाला होगा। बुद्ध, महावीर, परशुराम, बलराम, ईसा, मोहम्मद, गोपालक गोपाल इत्यादि पूजनीय नहीं बल्कि आदर्श पुरुष थे। उसी रूप में उन्हें पुनर्स्थापित किया जायेगा। संस्कृत में आदर्श दर्पण, Mirror को भी कहा जाता है। आपका आदर्श उसे कहा जायेगा जिसमे आप अपनी छवि देखते हैं क्योंकि उसके जैसा बनना चाहेंगे।

इन्होंने जिन सम्प्रदायों की स्थापना की थी वे सभी सनातन धर्म की सुरक्षा,संरक्षण,संवर्धन और विस्तार के हेतू थे। इन्होंने सांख्य का योग किया था।

यह तथ्य भी मैं बार-बार दोहरा रहा हूँ कि सनातन धर्म धार्मिक वैज्ञानिक भाषा संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ होता है अनवरुद्ध, अविराम, निरंतर चलने वाला चक्र, जिसे लेटिन में ईकोलोजी कहा जाता है।विडम्बना यह है कि जो ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, जैन अथवा अन्य किसी सम्प्रदाय के हैं और वे अपने सम्प्रदाय से राग-अनुराग रखने के कारण अन्य सम्प्रदायों से द्वेष रखते हैं वे 'सनातनधर्म' शब्द को हिन्दू धर्म की शाखा समझने की त्रुटी कर सकते हैं। जो हिन्दूधर्म के नाम से धर्म की ठेकेदारी करते हैं उनमें जो अग्रणी हैं उन्होंने कृषिकर्म क्षेत्र, वनक्षेत्र और वनों में रहने वाले आदिवासियों को सिर्फ चित्रों और अखबारों में ही देखा है। वे शहरों में रहने वाले, भारी उद्योगों के समर्थक और पूंजी का खेल यानी जुआ खेलने वाले, राम और गाय को सिर्फ राजनीति का हथियार मानाने वाले हैं। अतः इन साम्प्रदायिक मानसिकता वालों के भरोसे सनातन धर्म की रक्षा के समर्थन में आगे आने की सम्भावना कम ही लग रही है।

जैसा कि मैं एक पत्रकार की भूमिका में बार-बार दोहरा रहा हूँ कि राष्ट्र,सम्प्रदाय और क्षेत्र को लेकर कभी भी विश्वयुद्ध और गृहयुद्ध की सम्भावना बन सकती है उसका एक नमूना अभी म्यांमार,बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच फँसे पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों के साथ जो हुआ और हो रहा है वह देख ही रहे हैं। अब भी आप यदि अपनी चेतना को जागृत नहीं करते हैं तो भारत को बचाने कोई भी अवतार पैदा होने वाला नहीं है। क्योंकि अवतार भी तभी पैदा होता है या उतरता है जब प्रार्थना[Appeal] करेंगे। जबकि आज जनसाधारण, जिनको गीता में साधु कहा गया है और उनकी रक्षा में सृजन की बात कही गयी है वह तो खुद धर्म के धर्म के विरुद्ध आकांक्षाएँ पाले बैठा है तब अवतार कैसे सम्भव है। ऐसी स्थिति में तो प्रकृति अवतार के रूप में नहीं सुनामी के रूप में अपना सृजन भले ही करले।

यदि आप जनसाधारण के रूप में भारत को स्वर्ग बनाने हेतु स्वयं प्रयास करते है और स्वर्ग के लिए राजनीति में खुद लड़ने के लिए आगे आते हैं और सक्रिय होकर अपने क्षेत्र का जनप्रतिनिधि दलीय राजनीति से ऊपर उठकर चुनते हैं तो मैं कहता हूँ...

आप मुझे मान्यता दें। मैं सनातन धर्म की पुनर्स्थापना करके आपके भारत को विश्वगुरु भारत बना कर दूँगा, सोने की चिड़िया भारत बना कर दूँगा और विश्व का अग्रणी भारत बना कर दूँगा। बस आप मुझे सिर्फ निर्दलीय संसद बना कर दे दें, जहाँ सर्व सम्मति बन सके। 


सोमवार, 20 अगस्त 2012

18. तुलसी के राम vs अकबर के कृष्ण और गाँधी का रामराज्य !

     राम-रावण के बीच युद्ध को सोलहवीं शताब्दी की रचना तुलसीकृत रामचरितमानस में एक विशेष दृष्टिकोण दे दिया गया है।

छठी शताब्दी में जब वर्गीकृत भारत को पुनः व्यवस्थित कर दिया गया था तब धनुर्धारी श्री राम राजपूतों के आदर्श एवं अनुकरणीय पुरुष थे, पृथ्वीराज चाहवान ने स्वप्न [स्व-पन] में अपने आप को कौशल्या के पुत्र के रूप में आशीर्वाद लेते हुए देखा था। 

ग्रामीण भारत में हलधर बलराम और गौपालक कृष्ण आदर्श एवं अनुकरणीय पुरुष थे, गाँवों को धनधान्य से और दूध,दही,मक्खन से संपन्न बना दिया था जहाँ हर आँगन में कृष्ण-बलराम खेलते थे; आज की तरह सिर्फ पत्थरों से बने भवनों में प्रस्तर-प्रतिमाओं के रूप में और दीवारों पर टंगे हुए प्रतीकों के रूप में नहीं थे। 

इसी तरह वर्षावनों वाले भारतवर्ष में फरसाधारी परशुराम आदर्श एवं अनुकरणीय पुरुष थे जो वनों की रक्षा करने के लिए ब्राह्मण होते हुए भी नरसंहार कर देते थे।

मुग़लों के स्थापित होने के बाद जब अकबर ने कृष्ण चरित्र को अपने आचरण में धारण करने का मंसूबा बनाया तो कृष्ण की रासलीला के माध्यम से बताई गयी एक सौ आठ परमाणुओं की संरचनाओं के वैज्ञानिक अर्थ को अकबर समझ नहीं पाया था क्योंकि यह उसका विषय भी नहीं था। इस विषय को तो यूरोपियन लोग समझने में सफल हुए थे जब कि अकबर ने तो इस रासलीला को अपनी हरम रखने वाली संस्कृति के अनुकूल पाया।

कहावत है कि जैसा राजा-वैसी प्रजा। अकबर के शासन काल में राम का आचरण अपनाने वाले राजपूत भी बहुत से विवाह करने लग गए, तो लोलुप लोगों ने भी बहते पानी में हाथ धोना शुरू कर दिया। ऐसी स्थिति में तुलसी ने रामचरितमानस में राम-सीता के एक पत्नी-एक पति धर्म की मानसिकता वाले आदर्श चरित्र को ही विशेष तौर पर उभारा था।

बाल्मीकि रामायण के राम-रावण, तुलसी रचित रामचरितमानस के राम रावण से सिर्फ अलग ही नहीं थे बल्कि घटना की पृष्ठभूमि ही अलग थी। यहाँ दो संस्कृतियों, दो राष्ट्रों, दो व्यवस्था पद्धतियों के बीच की नीतियों का टकराव था। यह वशिष्ठ और रावण के बीच, इन्द्र और रावण के बीच, अगस्त्य और रावण के बीच, विश्वामित्र और रावण के बीच परम्पराओं एवं नीतियों का टकराव था।

आज औद्योगिक-विकास से ही विकास का मापदंड निर्धारित होता है। भले ही इससे सनातन धर्म चक्र/ Ecological cycle नष्ट हो रहा हो, मानवीय जीवनशैली अमानवीय बनती जा रही हो, प्रदूषित नगरों में एक बड़ा वर्ग दयनीय स्थिति में रह रहा हो; लेकिन हम अपने राष्ट्र के अरबपतियों की गिनती और गगनचुम्बी इमारतों की ऊँचाई से गदगद हो जाते हैं। 

कुछ ऐसी ही स्थिति उस समय हो गई थी जब एक तरफ रावण की सोने की लंका थी तो दूसरी तरफ लकड़ी से बने साधारण भवनों में रहने वाले दशरथ थे। भले ही वे आज के ताशकंद[जहाँ उस समय का तक्षशिला विश्वविद्यालय था] से लेकर फारस की खाड़ी से प्रशांत महासागर तक के एक छत्र सम्राट थे।

भले ही उनके नैतिक मूल्य धन-धान्य से संपन्न भारत के लिए आदर्श स्थापित करने वाले थे, लेकिन जनता तो जनता है, उसे तो रावण की ईश्वर भोगी जीवन-शैली ही आकर्षक लग रही थी। इसी आकर्षण से आज का जीवन भी नारकीय[नकारात्मक मानसिकता वाला }होता जा रहा है, जनता की इसी मानसिकता के कारण भारत में वशिष्ठ ने पहली बार नैतिक-राज के स्थान पर राजनीति शब्द का उपयोग किया था। वशिष्ट ने नीतिराज वाले भारत में प्रथम राजनीति-शास्त्र रचा जिसका पहला वाक्य था 'राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है'। 

यही राजनीति महाभारत काल में आते-आते कूट-नीति हो गयी। अभी जो स्थिति है उसमें नीति नहीं अनीति पर चलने वालों की फ़तह /जीत हो रही है। अधर्म /ग़ैर संवैधानिक कार्य करने वालों का उत्थान हो रहा है और धर्म यानी नैतिक मूल्यों के प्रति ग्लानी भाव आ गया है। अतः आज भारत में ब्रह्म का सृजन होना अवश्यम्भावी है।

आज जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तो इसका अर्थ यह भी है कि ब्राह्मण वर्ग यानी बौद्धिक वर्ग स्वतन्त्र है।अतः हमें इस विषय पर विवेचना करनी चाहिए कि आख़िर नीति-अनीति की परिभाषा का आधार क्या हो ? गीता में तो यहाँ तक कहा है कि "प्रारब्ध के निर्माण के लिए पाँच हेतु [निमित्त] होते हैं।-
 (1) अधिष्ठान  (2) कर्ता  (3) तरह-तरह के करण  (4) विविध प्रकार की चेष्ठाएँ  (5) देव। ये पाँचों हेतू जब सती होते हैं (परस्पर जुड़ते हैं) तब प्रारब्ध का निर्माण होता है। 

इसके आगे यह भी कहा है कि चाहे न्याय संगत हो या अन्याय संगत जब पांचों हेतु सती होते हैं तभी प्रारब्ध का निर्माण होता है। इस वाक्य का अर्थ है कि यह संविधान और न्याय-व्यवस्था मानव का अपना स्वअनुष्ठित धर्म है; मुझ भगवान का, कुदरत का बनाया कानून नहीं है। अतः मैं इस पचड़े में नहीं पड़ता कि पाँचों हेतु न्याय संगत सति हुए हैं या अन्याय का सहारा लिया गया है। लेकिन यह सुनिश्चित है कि प्रारब्ध का निर्माण तो तभी होगा जब पाँचों हेतु सति होंगे।

इस तरह जब एक व्यक्ति अपने प्रारब्ध का निर्माण करता है तो वह न्याय[संवैधानिक नियम इत्यादि] को नहीं देखता, अन्याय[रिश्वत, परिचय, ऊपर से आया हुआ दबाव इत्यादि] का सहारा भी ले लेता है। अतः जब हम व्यवस्था में पदासीन व्यक्तियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हैं तो यह बस खुद के प्रारब्ध का निर्माण करने के लिए उठाया गया मुद्दा ही होता है। अतः हमें चाहिए कि हम निर्धारित करें कि नैतिकता की परिभाषा क्या हो! और उस आधार पर वैसी परिभाषा क्यों हो! इसीलिए हमें चाहिए कि हम काल के उस रूप को जानें, जो पुनरावर्तित होकर बार-बार दिन और रात की तरह हमारे सामने आता है। इस तरह-

भूत का मान + वर्त्तमान का यथार्थ मान = भविष्य के  निर्माण का मापदंड। यानी जब दो संख्याओं का मान पता हो और गणना करना आता हो तो तीसरी संख्या का मान निकाला जा सकता है।

जब हम भूत में हुई भूल का अवलोकन करके + वर्त्तमान का यथार्थ अध्ययन + नीति, नीत, नीयत निधारित करके, उसे धारण करके उसपर चलते हैं तो = हमारी योजनायें-परियोजनाएं हमें अपने लक्ष्य से मिला ही देती हैं। हमारी नीयत अगर कल्याणकारी होती है तो वह नियति बन कर हमें अवश करके लक्ष्य की तरफ धकेलती हुई लक्ष्य तक पहुँचा देती है, क्योंकि "जीतने वालों की मैं नीति हूँ।"

लेकिन आजकल जो चल रहा है उसमें राजा के स्थान पर बैठे राजनीतिज्ञों की नीयत ही जब रचनात्मक कार्यों को करने के स्थान पर एक दूसरे को पटखनी देने की है तो भारत की नियति[प्रारब्ध] का निर्माण गृहयुद्ध की तरफ धकियाये जाने का हो गया है।

इस तरह बात घूम फिर कर फिर वहीं आ जाती है कि हमें यदि ऐसी व्यवस्था बनानी हो कि जिसमें प्रारब्ध के निर्माण हेतु अन्याय का सहारा न लेना पड़े; तो उसका प्रथम और अंतिम एकमात्र तरीका है कि इस जलेबी कूद को तो छोड़ें और एक किनारे से नए भारत का निर्माण करें जहाँ हम एक ऐसी सामाजिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक संरचना बनाएं जहाँ रहने का अर्थ होगा मानव मात्र 'स्व के अर्ग' में संतुष्ट रहते हुए ऐसा जीवन जिए जिसमें न तो किसी को अन्याय का सहारा लेने की आवश्यकता पड़े और न ही किसी को अन्याय सहने की सहनशीलता की परीक्षा देनी पड़े।

रोज़गार के रूप में उस कार्य को करने की स्वतंत्रता और स्वाधीनता हो जिस कार्य में कर्ता को आत्म-संतुष्टि हो, कॉमर्शियल कामनाएँ जहाँ पैदा ही न होने पाएँ।

यह व्यवस्था भारत में ही सम्भव है जहाँ अर्थ[धन] की व्यवस्था वाली Economics, जीवन के अर्थ [meaning, sense,signification] की व्यवस्था वाली Ecology और अर्थ[पृथ्वी] पर एक समान व्यवस्था 
वाली Global economy के तीनों अर्थों को सम किया जा सकता है अर्थात जब हम भारत में स्वर्ग स्थापित करके विश्व को भी आर्थिक लाभ देते रहेंगे और जहाँ के निर्माण आधारित अर्थशास्त्र को भी संकट में आने से 
बचाते रहेंगे तो फिर क्यों तो महाभारत जैसे गृहयुद्ध होंगे और क्यों ही रामायण जैसे विश्वयुद्ध होंगे।

लेकिन चूँकि मानव चौरासी लाख योनियों[प्रजातियों,नस्लों] को पार करके, क्रमिक विकास करके आया है अतः हमारे अन्दर श्वान प्रजाति के गुण और विकार भी संग्रहित है। अतः यह भी हो सकता है कि आजकल की हमारी प्रजाति में रचनाधर्मिता के गुण के स्थान पर श्वान प्रजाति का गुण इतना हावी हो गया है कि हमारी नियति में लड़कर मरना,सड़क दुर्घटनाओं में मरना इत्यादि यानी कुत्ते की मौत मरना ही लिखा है तो जैसा चलता है चलने दो। क्यों नये भारत को बसाने की, रामराज्य को लाने की पंपाळ करें।

अभी-अभी एक घटना घट रही है। म्यामार में बांग्लादेशी मुस्लिम समुदाय पर हमला हुआ और उन्हें म्यामार से निष्कासित कर दिया गया। यह काम बौद्ध सम्प्रदाय के लोगों ने किया। अब यदि बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के परिप्रेक्ष में लें तो प्रथम बिंदु तो यही हो जाता है कि यह हिंसा है जो कि बुद्ध द्वारा बताये आचरण के विरूद्ध है, दूसरा बिंदु लें तो वह मुस्लिम समुदाय आदिवासी पहले हैं, मुस्लिम बाद में अतः इस साम्प्रदायिक हिंसा की शरुआत ही अधार्मिक है। उसके बाद भारत के मुस्लिम समुदाय को पाकिस्तान में बैठे साम्प्रदायिक राष्ट्रवादियों ने उकसाया और भारतीय मुस्लिम इस उकसावे में आ गये। अभी यह जो स्थिति है वह तो शायद सम्भाल ली जायेगी लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या हम अपनी धोती सम्भालने में ही लगे रहेंगे या कुछ स्थायी समाधान भी करेंगे !

लेकिन मुद्दे की बात यह है कि यदि हम राष्ट्र, सम्प्रदाय और दलीय राजनीति से ऊपर, मानवीय स्तर ऊँचाई पर उठ कर देखें और साथ ही साथ जमीन पर खड़े होकर मानवीय धरातल पर आंकलन करें यानी एक दूसरे को आहत करने के लिए हवा में तीर छोड़ना बंद करके यानी इस बिंदु पर बचकाने दर्शन से मुक्त होकर, समग्र दृष्टिकोण से देखें तो सच्चाई वही ढाक के तीन पात है।

पहली सच्चाई है उन आदिवासियों का पेट यानी भूख। दूसरी सच्चाई है सम्प्रदायों और राष्ट्रों के नाम पर छिछोरी मानसिकता और तीसरी सच्चाई है दलीय राजनीति के कारण विश्व को गवर्न करने वाले विश्व गुरु भारत के राजनेताओं का उस मीडिया द्वारा गवर्न होना जिस मीडिया की मानसिकता सिर्फ टी आर पी में बँधी हुयी रहती है। भारत की राजनीति और मीडिया क्षुद्र लालच में बँधे हैं। अतः यदि गाँधी की कल्पना से भी बहुत परे सच्चा रामराज्य चाहते हैं तो उसका एक मात्र तरीका है एक नये वर्गीकृत किन्तु अखंड महाभारत का निर्माण जहाँ के बहुवर्गीय समाज को नीतियाँ संचालित करें न कि क्षुद्र मानसिकता। 

17. बुद्धावतार एवं कल्कि अवतार का वर्त्तमान में झगड़ा !

सनातन धर्म का मानसिक [ आध्यात्मिक ] रूप !


अवतार के विषय को विस्तार देने से पूर्व यह एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य पुनः पुनः बताते जाना आवश्यक ही नहीं अतिआवश्यक है। क्योंकि प्रतेक तथ्य और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में धर्म की स्थिति उसी तरह बदल जाती है जिस तरह त्रिआयामी/Three-dimensional, त्रिकोणीय/Triangular रचना में एक आयाम के बदलते ही अन्य दोनों आयाम स्वतः प्रभावित होते हैं| लेकिन इसका सनातन सिद्धांत कभी नहीं बदलता।

आपने भगवान कृष्ण का एक चित्र देखा होगा जिसमे वे तीन-तीन डोरियों से तीन व्यक्तियों को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं। भूमि पर धन की तीन ढेरियाँ पड़ी है। एक व्यक्ति जो रजो प्रवृति का है वह उन तीनों ढेरियों को अपनी तरफ खींचता है,तामसी प्रवृति वाला उस के कार्य को रोकने का असफल प्रयास कर रहा होता है जबकि सात्विक प्रवृति वाला निर्विकार देख रहा होता है।


ये तीन तरह की प्रवृतियाँ सनातन मानवीय आचरण है अतः यह एक मूर्खतापूर्ण अवधारणा है कि पहले तो इन्सान वैसा था आज ऐसा है। इंसान हमेशा से तीन शारीरिक प्रकृतियों से वशीभूत हुआ इन तीन मानसिक प्रवृतियों का होता आया है। चूँकि यह विज्ञान का विषय है इसलिए तत्व की गुणधर्मिता से जुड़ा है अतः इस पर खानपान से नियंत्रण रखा जा सकता है। मैं पत्रकार की श्रद्धा/हैसियत से इतना ही कह सकता हूँ कि इस बिंदु पर जब तक नियंत्रण नहीं किया जाता तब तक हम रज की प्रवृति से मुक्त होकर लड़ने-झगड़ने, उठा-पटक वाली राक्षस प्रवृति से मुक्त नहीं हो सकते। अतः इसका एक मात्र तरीका है एक ऐसी व्यवस्था पुनः बनायी जाये जिसमे व्यवहार को आहार से नियंत्रित करने की तकनीक [विद्या] का उपयोग सामाजिक मान्यताओं के साथ जीवन शैली में प्रतिष्ठित हो। 


सनातन धर्म का दैविक रूप है नैसर्गिक प्रकृति !


‘‘सनातन‘‘  संस्कृत शब्द है। "अन-अवरूद्ध या सतत प्रक्रिया" हिन्दी शब्द है तथा 'Non-dis-continued' 'Un-blocked continuous process' अंग्रेज़ी शब्द हैं। तीनों समानार्थी शब्द हैं। सनातन Eternal धर्म का ज्ञान अर्थात पारिस्थितिकी[Ecology] विषयान्तर्गत आने वाले सभी आयामों की जानकारी।

सनातन धर्म की रक्षा यानी पारिस्थितिकी[ईको सिस्टम] का विस्तार अर्थात् जब वनोत्पादन से मानव जाति के लिए आवश्यकता जितने पौष्टिक आहार की आपूर्ति न हो तो वह कृषि एवं पशुपालन दोनों को एक साथ मिलाकरकर ईको सिस्टम का विस्तार करे।
फोरेस्ट ईकोलोजी को एग्रीकल्चर ईकोलोजी के माध्यम से विकसित करे। इसे एग्रीकल्चर कल्चर्ड ईकोलोजी भी कहा जाता है। यह सनातन धर्म का दैविक रूप है जो प्रकृति निर्मित है, भगवान द्वारा स्थापित और संचालित है।

सनातन धर्म का भौतिक रूप है सामाजिक-आर्थिक-प्रशासनिक व्यवस्थाएं ! 


इस भौतिक जगत में अर्थव्यवस्था का आधार तो ईकोसिस्टम आधारित इकोनोमिक्स है ही, साथ ही साथ वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था, कृषि-पषुपालन की अर्थव्यवस्था तथा निर्माण-उद्योग एवं वाणिज्य की अर्थव्यवस्था, तीनों को इस तरीके[पद्धति] से स्थापित किया जाये कि तीनों अर्थव्यवस्थाऐं एक दूसरे की पूरक बनें न कि एक दूसरे पर अतिक्रमण करें। 

सनातन धर्म के ये तीनों रूप ब्रह्म द्वारा संचालित होते हैं, जिसे शिक्षा का धर्म कहा जाता है।
1. ज्ञान   2. विद्या   3. बुद्धि ।
ज्ञान ब्राह्मण परम्परा का विषय है जो एकात्म परम्परा के नाम से भी जाना जाता है। अर्थात् स्वाध्याय करने एवं चिन्तन-मनन करने से ज्ञान स्वतः पैदा होता है। इसे स्मृति परंपरा भी कहा जाता है.

ज्ञान का तात्पर्य होता है गुणों को विकार सहित जानना। यह जानना कि जो स्थिति प्रिय लग रही है वह कितनी उचित या अनुचित है!...जिन कामनाओं को पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है, वे पूरी होने पर किन-किन बिन्दुओं पर हितकारी हैं और किन-किन बिन्दुओं पर अहित करने वाली हैं!... जो वर्तमान है, वह किस भूतकाल का परिणाम है अतः इसका भविष्य क्या होने वाला है!... जो विकास हो रहा है वह किस विषय के विनाश का कारण बनेगा!... इत्यादि कार्य और अकार्य[न किये जाने वाले खोटे कार्य] के भेद को जानना। यानी सभी विरोधाभासी द्विपक्षीय सत्य को जानना ज्ञान कहा जाता है, जिसे धर्म-अधर्म का ज्ञान भी कहा जाता है। जब सिद्धान्तों/Principles का व्यावहारिक उपयोग किया जाता है तभी सिद्धान्त काम के हैं। 

जब हम सिद्धान्तों/Theories का प्रयोग रचनात्मक कार्य में करते हैं तो वह विद्या कहलाती है और जब सिद्धान्त का रूप सूत्र/Formulas,समीकरण/equations,कारक/factors,अंकीय आंकड़े/numeric data हो जाते हैं तब उनका व्यवहार में उपयोग/Use in practice करते हैं तो वह बुद्धि कहलाती है।

इस तरह धर्म का ज्ञान तभी सनातन धर्म के रूप में माना जायेगा जब हम सिद्धान्तों का प्रयोग-उपयोग करें। इससे भी आगे बढ़कर यह तथ्य बनता है कि कब, कहाँ, किस सिद्धान्त का योग[प्रयोग-उपयोग] summation practical किस तरह किया जाये यह स्वविवेक ही सनातन धर्म की पालना कहा जायेगा। आज हमारी स्थिति यह है कि सिद्धान्त को हम पुस्तकीय ज्ञान कह कर नकार देते हैं। इसी मानसिकता का परिणाम है भ्रष्टाचार। 

व्यवहार और सिद्धान्त को हमने अलग-अलग कर दिया है इसे सनातन धर्म की हानि कहा जायेगा।
अब इस पूरे विवेचन को सांख्य के सूत्र में बाँधे तो यह है कि सनातन धर्म दो परम्पराओं के योग से बनने पर ही सनातन बनता है।

एक परम्परा है ज्ञान की; दूसरी परम्परा है विद्या एवं बुद्धि की।


ज्ञान की परम्परा को ब्रह्म परम्परा या ब्राह्मण-धर्म कहा गया है। विद्या एवं बुद्धि की परम्परा वेद-परम्परा या वैदिक-धर्म कहा गया है। विद्या की परम्परा निर्माण एवं उत्पादन तथा रचनाधर्मिता की परम्परा है जबकि बुद्धि की परम्परा व्यवसाय एवं व्यवहार की परम्परा है।

ब्राह्मण धर्म एवं वैदिक धर्म दोनों को सम करके जो परम्परा यानी सभ्यता-संस्कृति बनती है वही सनातन बनी रह सकती है। वर्तमान में जो सभ्यता संस्कृति है उसे निकट भविष्य में नष्ट होने से कोई नहीं रोक सकता। क्योंकि आज अज्ञान,अविद्या,अबुद्धि द्वारा विकास के नाम पर विषमता का प्रचार-प्रसार हो रहा है। 

जो परम्परा ज्ञान संबंधी है उसे एकात्म-परम्परा, आत्म-कल्याण की परम्परा और ब्राह्मण धर्म कहा गया है। 


उपर्युक्त शब्द केन्द्रीय अर्थ रखने वाले शब्द हैं। ये दोनों परम्पराऐं एक दूसरे के समानान्तर चलती हैं। सभी धार्मिक सम्प्रदायों में इनका विभाजन है।


जैसे कि प्राकृत-धर्म में बौद्ध एवं जैन नाम से विभाजन है। बुद्ध ने सिर्फ बुद्धि के विकास की बात ही नहीं कही थी बल्कि बोध को भी विकसित करने की बात कही थी जिसका अर्थ सेन्स एवं ज्ञान ही होता है। ब्रह्म को ही प्राकृत भाषा में चेतणा कहा जाता है जिसका हिन्दी में चेतना बना। इसी चेतना के विकास के लिए चेत्यालय विकसित किये गये जहाँ आत्मसंयम योग पर योगारूढ होने के लिए समाधि की स्थिति प्राप्त करने का वातावरण विकसित किया गया।

जैन परम्परा "जिन" के सभी वैज्ञानिक पहलुओं को जानने की परम्परा है। जानने के अन्तर्गत शरीर की उत्पत्ति के तीनों आयाम बताये गये हैं।

पहला आयाम है आत्मा[एटम] से मुदगल[मोलिक्यूल] तत्पश्चात् एककोशीय जीव[एमीनो एसिड्स के जटिल कम्पाउण्ड] की रचना का निर्माण तत्पश्चात पंचइन्द्रीय जीव तक की विकास यात्रा जिसे डारविन ने अपनी खोज के नाम से प्रचारित-प्रसारित किया था तथा जिसे उद्विकास के सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है।
दूसरा आयाम नसियाँ[नर्सरीज] की स्थापना करके वनस्पति, प्राणी और मानव जाति तीनों की संख्याऐं बढ़ाने का उपक्रम करना।
तीसरा जिनालयों के माध्यम से अच्छी नस्ल की मानव जाति की संकर नस्लों का विकास करने के लिए गर्भधारण की प्रक्रिया की सुविधा विकसित करना।
इस तरह इन दोनों मूल प्राकृतिक परम्पराओं में बुद्ध की परम्परा आत्म कल्याण की परम्परा के रूप में प्रचारित-प्रसारित हुई और जैन परम्परा जगत के कल्याण की परम्परा के रूप में विकसित हुई।

कालान्तर में दोनों परम्पराओं के अनुयाईयों ने इन दोनो परम्पराओं के एक दूसरे के पूरक और प्रतिपक्षी भाव को एक दूसरे के विपरीत और विरोधी परम्परा मान लिया क्योंकि तब तक इन परम्पराओं की लगामें राग एवं द्वेष भाव से ग्रसित बणियों के हाथों में आ गई थी। अतः इनमें परस्पर एक दूसरी परम्परा के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास समाप्त हो गया।

तब इन दोनों परम्पराओं का पुनः विभाजन हुआ और तब बौद्ध सम्प्रदाय में हीनयान और महायान तथा जैन सम्प्रदाय में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर नाम से विभाजन हुआ। अर्थात् आत्म कल्याण एवं जगत के कल्याण की परम्पपराऐं चुंकि एक दूसरे की पूरक होती है अतः ये स्वतः बन जाती हैं। 

इसी क्रम में जब पुनः इनमें आपसी श्रद्धा-विश्वास समाप्त हुआ तथा राग-द्वेष पनपा तो फिर इनमें विभाजन हुआ इस तरह ये दोनों परम्पराऐं जड़विहीन हो गईं। 

यही स्थिति ईसाई सम्प्रदाय में हुई। ईसा जब युराल पर्वत से होते हुए कश्मीर पहुंचे तब तक विक्रमादित्य द्वारा स्थापित व्यवस्था का परचम लहराने लगा था और विदेश व्यापार पर रोक लगाने के कारण विदेशी  व्यापारियों के आने का क्रम तो टूट गया था लेकिन ज्ञान अर्थात् सत्य अर्थात् धरातल की यथार्थ वास्तविकता की खोज में ईसा मसीह भारत आये।

यूरोप चुंकि प्राकृतिक सम्पदा यानी देवी सम्पदा से परिपूर्ण नहीं है, इनके मूल पूर्वजों यानी दैत्यों दानवों, राक्षसों और यक्षों ने हमेशा विष्णु अर्थात् प्रकृति की उपासना का विरोध किया है। अतः वहाँ भौतिकवादी मानसिकता है। भौतिक-विज्ञान के माध्यम से, पदार्थ विज्ञान के माध्यम से वे आदिकाल से ही भौतिक स्वर्ग बसाने की बार-बार चेष्टा करते आये हैं और बार-बार वेदों[वैज्ञानिक विद्याओं के साहित्य] को चुरा-चुरा कर भौतिक-विकास करते आये हैं और जगत की प्राकृतिक सम्पदाओं को, सनातन धर्म को हानि पहूँचाते आये हैं। इस क्रम में बार-बार उनका भौतिक विकास ताश के पत्तों से बने महल की तरह ढहता आया है। अगर हमने सन्तुलित व्यवस्था नहीं बनाई तो निकट भविष्य में पुनः ऐसा ही होगा।

ईसा जब भारत से सनातन धर्म को समझ कर उसका यूरोप में प्रचार-प्रसार करने गये तो वहाँ भी उन्होंने आत्म-कल्याण और जगत के कल्याण की परम्पराओं को समानान्तरण स्थापित किया।

चुंकि इनके भौतिकवादी मानसिकता वाले ब्रेन[ब्रह्म] की संरचना ही ऐसी है कि ये समाधी योग को प्राप्त नही हो सकते इसलिए इनके लिए आत्म-कल्याण का बिन्दु बना कन्फेशन[प्रायश्चित, क्षमा याचना] के माध्यम से अपराध स्वीकार करके अपराध बोध से मुक्त होना। 

जगत के कल्याण के लिए ईसा ने वहाँ कृष्ण धर्म की स्थापना की जो उच्चारण दोष के कारण क्रिश्चियन बना। कृष्ण धर्म के रूप में उन्होंने वहाँ की अर्थव्यवस्था के आधार मछलियाँ पकड़ने और समुद्री जीव-जन्तुओं का शिकार करने के स्थान पर पशुपालन को स्थापित किया। यूरोप के ठण्डे वातावरण के अनुरूप उन्होंने भेड़ पालन की परम्परा का प्रचार प्रसार किया।

आत्म कल्याण की परम्परा में अपने ब्रह्म[ब्रेन या चेतना के केन्द्र] को अव्यक्त परम ब्रह्म से जोड़ा जाता है जबकि जगत के कल्याण की परम्परा का आधार ईकोलोजी आधारित ईकोनोमिक्स को स्थापित करना होता है।

ईसाई सम्प्रदाय भी इसी बिन्दु पर दो भागों में विभाजित हुआ और इस्लाम भी इसी बिन्दु पर दो भागों में विभाजित हुआ। एक बिन्दु है परमात्मा के अव्यक्त भाव की उपासना करना, किसी व्यक्त् रूप को सजदा नहीं करना और दूसरा बिन्दु है जगत के व्यक्त स्वरूप में विषमता का नाश और सम की स्थापना यानी धर्म[ईमानदारी] की संस्थापना करना।

ईसा भारत में तब आये थे जब विदेशी व्यापारियों को भारत में आने से विक्रमादित्य ने रोक दिया था और सनातन धर्म के पुनरुद्धार के लिए क्रमबद्ध कार्यक्रम को आनन्द में दोलन करते हुए करने की शुरूआत की थी। 


पैग़म्बर मोहम्मद भारत में तब आये थे जब हर्षवर्धन सनातन धर्म के पुनरोद्धार के लिए संघर्ष कर रहे थे। उस समय तक विक्रमादित्य का विकसित किया गया हरा-भरा भारत तो गुप्तकाल में सोने की चिड़िया बनने के चक्कर में सिर्फ वनविहीन ही हुआ था जबकि ईरान से लेकर अरब तक का क्षेत्र पूरी तरह रेगिस्तान हो गया था। तब पैग़म्बर मोहम्मद भारत से बकरियां गधे एवं ऊँट ले गये थे जो कि पशुपालन अर्थव्यवस्था के रूप में जगत के कल्याण के लिए था। ये ही ऊंट ईरान में और घोड़े अरब में जाकर जबर्दस्त नस्लों के रूप में विकसित हुए। उन्होंने हक़ और बेइमानी के बीच सीमा रेखा खींचने के लिए शरीयत क़ानून बनाया। आत्म कल्याण के लिए अव्यक्त निराकार की उपासना करने को कहा।

ईसा एवं पैग़म्बर मोहम्मद दोनों ने ही अपना आन्दोलन जब स्थापित किया था तब वहाँ के लोग भी प्राकृत स्थिति में थे। फ़र्क सिर्फ इतना ही है कि बुद्ध-महावीर के समय जो प्राकृत वर्ग था वह वनों में रहने वाला था और वनों के ईकोसिस्टम को प्रभावित कर रहा था जबकि ईसा एवं पैग़म्बर ने जिन प्राकृत लोगों में सनातन धर्म की स्थापना का कार्यक्रम चलाया वे या तो संस्कारहीन कबीलाई थे जो आहार के लिए किसी भी सीमा तक छीना-झपटी कर सकते थे या फिर वे अशिक्षित श्रमिक लोग थे जो कुप्रथाओं और मनघड़न्त मान्यताओं में बँधे थे।

पैग़म्बर मोहम्मद जब भारत आये थे तब गुप्तों का पतन हो रहा था और हर्षवर्धन का राज्य सत्ताओं पर विजय का अभियान चल रहा था। पैग़म्बर यरूशलम के आस-पास के क्षेत्र में फैले औद्योगिक साम्राज्य में श्रमिकों के शोषण को भी देख कर आये थे और पूँजीपतियों के द्वारा ब्याज के माध्यम से होने वाले शोषण को भी देख कर आये थे। यही स्थिति उन्होने भारत में आकर भी देखी। वहाँ पर यह शोषण यहूदियों द्वारा हो रहा था और और यहाँ पर गुप्त शासकों और बौद्ध-जैन व्यापारियों के द्वारा हो रहा था। पैगम्बर मोहम्मद ने कुम्भ की धर्म संसद में भी इस बिन्दु को उठाया था।

बुद्धावतार और कल्कि अवतार मुहम्मद साहब के बारे में आप सामाजिक पत्रकारिता में विस्तार से पढ़ चुके होंगे !  यहाँ दशावतार की श्रृंखला के इन अंतिम दो अंशावतारों का पुनः ज़िक्र करने के पीछे कुछ बिंदु हैं।



  • आप यदि कल्कि अवतार का इंतज़ार कर रहे हैं तो यह मानकर चलें कि वह मोहम्मद साहब के रूप में हो चुका। इस तथ्य के लिए भविष्य पुराण में वर्णित कल्कि के आचरण से उनका आचरण मिलता है और यह भी मिलता है कि वह पश्चिम से आयेगा और उस समय के ऋषि[वैज्ञानिक] और मुनि [दार्शनिक] उन्हें अमान्य करेंगे। यह वर्णन भी मिलता है कि वह अपने पूर्ववर्तियों में एक अवतार को अमान्य करेगा,जैसा कि मोहम्मद साहब ने वराह अवतार को अमान्य कर दिया था।
  • मोहम्मद साहब चौदह सौ साल बाद के भविष्य के बारे में बताते हुए,बताने से पहले मुस्कुरा कर चुप हो गए थे। जिसके दो अर्थ द्वेष जनित मानसिकता से निकाले गए हैं। एक अर्थ मुस्लिम सम्प्रदाय से द्वेष करने वालों की मानसिकता से निकला है कि उसके बाद मुस्लिम सम्प्रदाय समाप्त हो जयेगा। दूसरा अर्थ दुनिया से ही द्वेष करने वालों की मानसिकता से निकला है कि दुनिया ही नष्ट हो जाएगी। जबकि उसका अर्थ यह है कि कल्कियुग की समाप्ति और कृतयुग के प्रारम्भ के संधिकाल में नये कल्प का प्रारम्भ होगा और प्रजातंत्र आ जायेगा और वैश्विक व्यवस्था बनेगी। इस अर्थ में पहले के दोनों अर्थ समाविष्ट हो जाते हैं। यानी थोड़ी-बहुत उठापटक अवश्य होगी क्योंकि ब्रह्म सत्य है अतः सोचा हुआ घटित अवश्य होता है।
  • उधर यक्ष प्रजाति भी, जिसने इतनी लम्बी लड़ाई के बाद भी अपनी प्रजाति को बचाये रखा। इनके  विरुद्ध इतने अवतारों के पैदा होने के बाद भी हर अवतार ने इनको जीवन दान दिया। राम ने रावण के बैंकर और फाईनेंसर कुबेर को जीवनदान दिया था। कृष्ण ने इन्हें मारने के स्थान पर दो विकल्प दिए थे या तो जरथ्रुष्ट्र के नेतृत्व में भारत को छोड़ कर जाओ या फिर सनातन धर्म [प्राकृतिक उत्पादन वाले अर्थशास्त्र] को अपना कर मुख्यधारा में आ जाओ। इसी तरह मोहम्मद साहब ने भी अन्त में एक दीवार की ओट में छिपे एक समूह को न सिर्फ छोड दिया था बल्कि एक गधे पर रोटी और पानी लाद कर गधे को उनकी तरफ धकेल दिया था ताकि उनको ईश्वर पर विश्वास हो। तब से ये यक्ष भी एक ऐसे अवतार की प्रतीक्षा में है, जो उन्हें नया जीवन देगा,फिर भी ये यक्ष इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि यह दुनिया ही ईश्वर का साकार रूप है। इनका मानना है कि ईश्वर की दुनिया अलग तरह की है।
  • अभी जो समय चल रहा है इसका एक आयाम प्रजातंत्र है, दूसरा एक आयाम वैचारिक स्वतंत्रता के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और तीसरा एक आयाम वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी सर्वविदित है। अतः आज उस तरह के अवतार की कल्पना अप्रासंगिक है जो चमत्कार के साथ पैदा होते हैं। अर्थात आप जो पत्रकारिता वृति के लेखक हैं उनको चाहिए वे इस बहुआयामी लेखन का अध्ययन वृति [रोजगार] की प्रवृति से मुक्त होकर ,पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर, दिमाग खुला रख कर समग्रता से करें और लेखन से जनक्रांति लाने का प्रयास करे। तब एक सर्वसम्मति बनेगी वही आज का अवतार होगा।

शनिवार, 18 अगस्त 2012

16.. द्वापर का अन्तिम चरण और कृष्ण अवतार ! The Last Phase of Dwapara and Krishna Avatar !

     अब आते हैं गण राज्यों के आदर्श नायक कृष्ण-बलराम पर। कृष्ण के समय में भी यही स्थिति थी जो आज है। कृषक, पशुपालक और वनोत्पादन पर आश्रित जनसमुदाय अभावग्रस्त और शहरी जनसमुदाय ईश्वर भोगी हो गया था। चारागाह समाप्त हो गये थे और गौ-नस्लें कमज़ोर हो गई थीं। उस समय जिस एक गाँव, जिसकी अर्थ-व्यवस्था दस हजार गायों पर निर्भर थी, उस नन्द गाँव के मुखिया के घर कृष्ण और बलराम बड़े हो रहे थे।

कृष्ण बाल सेना के साथ जब गायें चराने जाते थे तो चारागाह छोटा पड़ता था। कृष्ण एक तरफ बलराम के नैतृत्व में बाल सेना को वृक्षारोपण तथा चारागाह विकास में लगा देते। खुद, अंगिरस परम्परा के गुरू घोर अंगिरस के पास समाधि-योग और अन्य सिद्धियों का अभ्यास करते थे। 

ये घोर अंगिरस जैन तीर्थंकरों में नेमीनाथ नाम से महिमा मण्डित हैं।

 जब कृष्ण ने पर्वत यानी मेरू को हराभरा पर्वत अर्थात सुमेरू बनाया तो उस क्षेत्र में अन्य क्षेत्रों की तुलना में अच्छी वर्षा होने लगी। बाँसुरी वादन से गायों के हारमोनी में रहने के परिणामस्वरूप गायें अच्छा दूध देने लगीं। 


जब बाक़ी स्थानों पर अकाल जैसे हालात थे और नन्द गाँव में हरियाली थी और गायें अच्छा दूध देती थी,तो उस समय के ऋषि(वैज्ञानिक) एवं मुनि(दार्शनिक) दूर-दूर से उस की सच्चाई को जानने आने लगे थे।

कृष्ण ने इन्द्र को हराया और इन्द्र पद को समाप्त किया। क्योंकि उस समय के इन्द्र पद का पदाधिकारी सुरापान (शराब-सेवन) करने वाला ऐयाश हो गया था। कृष्ण ने कहा था वर्षा इस इन्द्र के हाथ में नहीं है, जब तुम्हारे मेरू (पर्वत) सुमेरू (हरे भरे पर्वत) होंगे तो वर्षा अपने आप आयेगी। 


अब इन पौराणिक घटनाक्रमों को अधिक विस्तार नहीं देकर इतना ही बताना चाहता हूँ कि जिस भारतवर्ष में अर्थात् पृथ्वी के जिस क्षेत्र में वर्षा के वार्षिक चक्र से भरण-पोषण की भरपूर सामग्री पैदा होती है, उस भारत-वर्ष की सीमा कभी केस्पियन सागर से शुरू होती थी| लेकिन बार-बार के औद्योगिक विकास और भौतिकवादी सभ्यता संस्कृति के विकास के कारण पूरा पश्चिम एशिया रेगिस्तान होता गया और भारतवर्ष की पश्चिमी सीमा रेखा सिन्धु घाटी तक सिकुड़ गई। वह भारत वर्ष अब भी यदि शहरीकरण एवं औद्योगिकरण को विकास की परिभाषा इसी तरह मानता रहा और आधुनिक साधनों का उपयोग करके हरे-भरे गणराज्य विकसित नहीं किये तो आर्थिक कारणों से होने वाले अबकी बार के विश्वयुद्ध के बाद मानव जाति पत्थरों एवं लाठियों से युद्ध करने लायक भी नहीं रहेगी। क्योंकि तब डायनोसोर युग आयेगा। यदि इस स्थिति से भारत को बचाना है तो सनातन धर्म की कम से कम भारत में तो रक्षा कीजिये।

अब यदि इतना जान लेने के बाद भी,आप अवतार की कल्पना अन्यथा अर्थ में करते हैं तो आप की आप जानें लेकिन प्रजातंत्र में अवतार इसी तरह की सामूहिक हित की योजना के रूप में पैदा होगा,जैसी योजना मैं आपको दे रहा हूँ। 

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

15. Beginning of the Republic of India ! गणराज्य भारत की शुरुआत !

      महाभारत कथा की शुरुआत दुष्यंत और शकुन्तला के गन्धर्व विवाह से होती है।
      वन में भ्रमण को निकले दुष्यन्त को नव राजुस्वला नारी के शरीर की गन्ध आती है और वह उसका पीछा करते करते एक आश्रम में पहूँचता है। जहाँ उसे शकुन्तला मिलती है और आश्रम के सरक्षक की अनुपस्थिति में  दोनों में प्रणय सम्बन्ध बन जाते हैं।
       दुष्यन्त के चले जाने पर शकुन्तला अनमनी सी बैठी होती है और अपने संरक्षक ऋषि के आने पर भी वह उनके आने की आहट सुनकर सचेत नहीं होती है और स्वागत के लिए खड़ी नहीं होती तब उस ऋषि को शंका होती है और वह उसे श्राप दे देता है कि तूं जिसकी स्मृति में इतनी एकाग्रचित्त है वह तुझे भूल जायेगा।
       ऐसा ही होता है और आश्रम में ही उस एक प्रणय का देवता भरत पैदा होता है। भरत आश्रम में रह कर ही बड़ा होने लगता है। एक दिन वह वन में ही एक सिंह के शावकों के दांत गिन रहा होता है तब वहाँ से गुजर रहे पथिक दुष्यंत के पास यह समाचार पहुंचाते है।
      यह वह समय था जब एक तरफ तो राम द्वारा स्थापित भारतराष्ट्र था तो दूसरी तरफ भारत का धर्म क्षेत्र भारतवर्ष था लेकिन ब्राह्मण और वैदिक दोनों परम्पराओं का समन्वय हो चुका था।लेकिन वह समन्वय ज्ञान-विज्ञान में था यानी वन-क्षेत्र में गुरुकुलों और आश्रमों में वशिष्ठ और विश्वामित्र परम्पराएं एक दुसरे की पूरक बन गयी थी|
      लेकिन आर्थिक-प्रशासनिक विषय में एक तरफ वर्षा वनों वाले साम्राज्य के लिए, इंद्र पद के लिए घमासान होता था तो दूसरी तरफ नगरों में रहने वाले नागरिक शक्तिहीन और बलहीन हो गए थे। ऐसी स्थिति में वन में परवरिश प्राप्त वीर बालक भरत कौतुहल का विषय बन गया था। लेकिन श्रापित स्थिति में दुष्यंत पहचान नहीं पाया, जब शकुन्तला ने प्रमाण के लिए प्राप्त मुद्रिका दिखाई तब वह पहचान पाया। 
      भरत के राज्याभिषेक के बाद भरत ने नागरिकों में आई नपुंसकता को महसूस किया और यह नियम बनाए कि राजा का चुनाव क्रीडा प्रतिस्पर्धा,शक्ति प्रदर्शन और जनमत से होगा। The choice of the king to sports competition, will power performance and public opinion. इसी के साथ भारत को गणराज्यों में बाँट दिया पंचायती राज व्यवस्था शुरू की गयी। India is divided into the republics of the Panchayati Raj system was introduced.जब पांडव और कौरव जो कि एक ही परिवार के थे उन्होंने शक्ति प्रदर्शन और क्रीडा प्रतिस्पर्धाएं शुरू की तो पांडवों के,विशेषकर अर्जुन के दिमाग में युद्ध का चित्र नहीं था।When the Pandavas and the Kauravas were of the same family that started the power, performance and sports events of the Pandavas, especially Arjuna's mind was not a picture of the war.लेकिन चूँकि दुर्योधन ने राष्ट्र वादियों से सामरिक समझोते कर रखे थे और भीष्म सहित सभी राष्ट्र के वेतन भोगी थे।अतः सभी की धृति राष्ट्र में बंधी थी।But the strategic agreement with litigants Duryodhana had put the nation and all nations, including Bhishma were salaried. So all tenure was bound in the nation.
    लेकिन पांच पांडव पंचायती राज व्यवस्था के समर्थक थे और उन्होंने कहा कि हमें पांच गाँव ही दे दिये जाएँ।But the five Pandavas, who was a supporter of the PRI system that gave us the five-country visit.इसी बात पर महाभारत नामक गृह युद्ध हुआ। Called the Mahabharata thing similar Civil War. 
यह वह समय था जब देत्य,दानव,राक्षस बोलकर कोई नस्ल भेद नहीं रह गया था अतः यहाँ पर जब कृष्णावतार हुए तब एक नए नाम का सृजन हुआ,सुर-असुर।This was the period when Dety, Monster, Monster saying apartheid was no longer there, so here's the new name was created when Krishnawatar, sur - Asur।       

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

12. राक्षस-रक्षक ! रामावतार !

    सातवें अवतार श्रीराम की वंशावली राजा हरीशचन्द्र से शुरू होती है।
    राजा हरिश्चंद्र को सतयुग की समाप्ति और त्रेतायुग के आगमन के संधिकाल के समय का माना गया है। 
    श्रीराम को त्रेता की समाप्ति और द्वापर के आगमन के संधिकाल के समय का माना गया है। राम के समय तक भारतवर्ष और आर्यावर्त  अलग-अलग थे। राम ने उस भारतवर्ष को सुरक्षित किया था जिसके शासक पद को इन्द्र की पदवी दी जाती थी।
    आठवें अवतार कृष्ण-बलराम की जोड़ी को द्वापर की समाप्ति और कल्कियुग के आगमन के संधिकाल का माना गया है। यहाँ से अर्थात दुष्यंत-शकुन्तला के आकस्मिक मिलन और प्रणय से पैदा हुए भरत ने भारतदेश की पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत की थी।
     सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की धटना है कि हरीश चन्द्र ने वैदिक होते हुए भी ब्राह्मण परम्परा के ब्रह्मण वशिष्ठ को अपना धर्मगुरु बनाया तब उनके वैदिक पुरोहित ऋषि विश्वामित्र ने इसका विरोध किया। वशिष्ठ जो की वैदिक समाज में आने के कारण ब्रह्मण के साथ साथ ब्रह्मऋषि भी कहलाने लगे थे। 
    विश्वामित्र ने वैदिक-ऋषि होने के उपरान्त ब्रह्मण परम्परा की सिद्धियाँ भी प्राप्त करली थी अतः वे भी ब्रह्मऋषि की पदवी चाहते थे। जब ऐसा नहीं हुआ तो राजा हरिश्चंद्र को स्वप्न दिलवा दिया कि राजा ने विश्वामित्र को अपना राज्य दान में दे दिया है। दूसरे दिन प्रातः ही विश्वामित्र सत्ता हस्तान्तरण के लिए पहुँच गए और अंततः सत्यवादी राजा ने स्वीकार किया कि स्वप्न में मैंने राज्य को दान में दें दिया था तब राजा राज्य से निष्कासित कर दिए गए। लेकिन उसके बाद भी विश्वामित्र ने दान के साथ नगदी दक्षिणा देने की परिपाटी को लेकर राजा पर दबाव डाला तब राजा ने अपने पुत्र और पत्नी को बेच कर दक्षिणा की व्यवस्था की।
    जिस राज्य में अपनी पत्नी को बेचा था वहीँ पर वे नोकरी करने लग गए।उनको शमशान में मृतकों के दाह संस्कार के लिए शुल्क वशूलने का काम दिया गया।उसी समय उनके पुत्र की मृत्यु हो गयी लेकिन बिना शुल्क लिए उन्होंने अपनी पत्नी को अन्तिम संस्कार की इजाजत नहीं दी।
    इस धटनाक्रम में दो बातें उभर कर आती है। एक यह कि इतनी विपरीत परिस्थिति में भी ब्राह्मण संस्कृति के सम्पर्क में आने से सत्यवादी बने रहे और राजकोष की आय में भ्रष्टाचार से मुक्त रह कर अपने मृत पुत्र को भी निशुल्क सुविधा नहीं दी, तो दूसरी तरफ यह कि उस समय वैदिक-आर्य-सभ्यता और ब्राह्मण-संस्कृति का मिलाप हो रहा था।
    इसी तरह इस घटनाक्रम यह भी उभर कर आया है कि दैत्यों-दानवों की वैदिक सभ्यता में एक तरफ मुद्रा का प्रचलन और इंसान का भी वाणिज्य व्यापार यानी Commercial trading की तरह क्रय विक्रय किया जाता था तो दूसरी तरफ विश्वामित्र जैसे आदित्यों की परम्परा वाले देव भी ब्रह्मऋषि बनने को आतुर थे।
     ऐसे सत्यवादी राजा के वंशज राम थे।         
      जब रामावतार हुए तो दैत्य-आदित्य,दानव-मानव के बाद एक शब्द की रचना हुई ‘‘रक्षस‘‘। 
      रक्षस से दो शब्द बने रक्षक एवं राक्षस। 
      राम रक्षक कहलाऐ और रावण राक्षस । 
      आक्रमणकारी चरित्र को राक्षस कहा जाता है और राक्षसों से सुरक्षा देने वाला रक्षक कहा जाता है।अर्थात उस समय शस्त्र-निर्मान विज्ञान का विकास हो गया था जबकि उससे पहले विश्वामित्र ने कृत्रिम उपग्रह पर अनुसंधान कर लिया था। [Note इस विषय का बाद में उल्लेख करेंगे अभी अवतार कथा चल रही है]
      ऋषियों (वैज्ञानिकों) एवं मुनियों (दार्षनिकों) की भारत भूमि पर काल का साया मण्डराने लगा । रावण के नाना ने अपनी पुत्री को एक वैज्ञानिक पुलस्त्य ऋषि से विवाह करने को प्रेरित किया। उस ने वैज्ञानिक से पुत्र प्राप्त किये तत्पष्चात् उन पुत्रों को वैदिक परम्परा की उन वैज्ञानिक विद्याओं को बताने के लिए मजबूर किया, जो यंत्र- निर्माण सम्बन्धी थी। तत्पष्चात् रावण के भाईयों, उसके पुत्रों एवं खुद रावण ने जो विद्याऐं विकसित की उनको संक्षिप्त में समझें । 
     रावण ने परमाणु ऊर्जा संयत्र विकसित कर लिये थे और परमाणु बम बना लिये थे। रावण के पुत्र अहिरावण ने ऐसे यान बना लिए थे जो ध्वनि से कई गुणा अधिक या कहें, प्रकाश की गति के समकक्ष गति से उड़ान भरते थे । जिनका ईंधन डिस्टिल्ड वाटर यानी शुद्ध H2O था या है और जो ध्वनि नहीं करता तथा जिसकी आकृति गोलकार है क्योंकि गोल आकृति ही इतनी तेज़ चल पाती है वर्ना वायु घर्षण से जल कर राख हो जाती है। अहिरावण का कर्मस्थल समुद्र में था और मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि समुद्र में वह सभ्यता संस्कृति आज भी विद्यमान है और जिन्हें उड़न तश्तरीयाँ या UFO  अन आईइण्डिफाइड फ्लाईंग ऑब्जेक्ट कह कर वर्तमान के वैज्ञानिक उससे अनभिज्ञता दर्शाते हैं । 
     मेघनाद ने एक ऐसा ध्वनि उत्पादक एवं ध्वनि विस्तारक यंत्र बना लिया था जो ध्वनि तरंगों को नाद में बदल देता और वह नाद मेघ (बादल) की गर्जना जैसी ध्वनि थी, उन ध्वनी तरंगो से ही हृदयाघात हो जाता था अतः उसे मेघनाद नाम दिया गया। 
     कुम्भकर्ण छः महिने दक्षिणी ध्रुव यानी अण्टार्कटिका में रहकर जीव-विज्ञान पर शोध करता था और छः महिने सिर्फ खाता ही खाता था । क्योंकि उसने अपने शरीर में ऊँट की कूबड़ वाले टिष्यू (उत्तक) विकसित कर लिए थे । अतः वह छः महीनों में अपने शरीर में इतनी चर्बी का संग्रह कर लेता था कि बाक़ी के छः महिने वह बिना आहार के बिता सके । 
    लेकिन कहते हैं कि आसुरी प्रवृत्ति  का व्यक्ति दूसरों की हारमोनी यानी दूसरों का सुर भी बिगाड़ देता है क्योंकि वह खुद असुर होता है । 
     उसने वैदिक परम्परा की उन यज्ञशालाओं का निर्माण किया जिसे औद्योगिक प्रतिष्ठान कहते हैं। उनमें निर्मित उपभोक्ता वस्तुओं के माध्यम से भारत के दक्षिणी किनारे से भोगवादी संस्कृति-सभ्यता का विस्तार शुरू किया । 
इस सभ्यता संस्कृति ने तब पूरे दक्षिण भारत को निर्माण एवं वाणिज्य की कोमर्सियल यानी काम एवं अर्थ वाली सभ्यता में बदल दिया  था । 
     रावण की वह उपभोक्ता सभ्यता जब पूरे दक्षिण भारत की भूमि को बन्जर बनाती हुई उत्तर भारत की तरफ बढ़ रही थी, तब इन्द्र ने उसे रोका । 
      भारत में  इन्द्र शब्द का दो तरह उपयोग होता है । एक इन्द्र तो वह जो मानसून कहलाता है । दूसरा एक इन्द्र व्यक्ति वाचक शब्द है जिसे इन्द्र पद कहा जाता है । 
      आप यह कल्पना करें कि भारत वर्ष ताषकन्द से इण्डोनेषिया तक फैला है। उस भारत में अनेक देश हैं जो गणराज्य हैं और अनेक राष्ट्र यानी साम्राज्य भी हैं। उन सभी साम्राज्यों एवं गणराज्यों के ऊपर एक पद है जो इन्द्र पद कहा जाता है इस इन्द्र पद को पाने का कौन प्रयास नहीं करेगा! 
      इन्द्र के पास अधिकार होता था कि किसी भी साम्राज्य या गणराज्य को वह सेना एवं धन की आपूर्ति करने के लिये आदेश दे सकता था । 
     इन्द्र का कर्तव्य था, भारत वर्ष में वर्षा के वार्षिक चक्र की स्थिति को बिगड़ने  नहीं दे बल्कि अधिक से अधिक सुधरती जाये ऐसी व्यवस्था करे।
     राम  रक्षक
    रावण की फैलाई जीवन शैली से जब दक्षिण भारत का वनोत्पादन प्रभावित होने लगा और वन नष्ट होने लगे तथा नगरीय उपभोक्ता सभ्यता का विकास होने लगा और रावण उत्तर  भारत तक अपनी पहुँच बनाने लगा तो इन्द्र ने रावण के ऊपर सैनिक आक्रमण किया। 

14. राम सेतु

    अब यहाँ यह प्रश्न  पैदा होता है कि राम-सेतु तो युद्ध से पहले बनाया गया था जबकि युरेनियम तो युद्ध के बाद संग्रह किया होगा । 
    इस विषय में स्पष्ट है कि लंका में जाने के लिए जो सेतु बना था, वह पानी में तैरता हुआ अस्थाई पुल था जबकि लंका विजय के बाद जब बची हुई बन्दर भालू सेना वापस आई तब वह सोने से लदी थी और पूर्व में बनाया हुआ अस्थाई पुल टूट कर बिखर चुका था अतः एक तो नये पुल का निर्माण करना भी था दूसरा उस युरेनियम जैसे ख़तरनाक रेडियो एक्टिव पदार्थ को सुरक्षित जगह पर संग्रहित करना भी था अतः यह पुल बनाना एक पंथ दो काज वाला मामला था। 
    परशुराम तथा कृष्ण-बलराम तथा श्रीराम-हनुमान ये कोई व्यक्ति विषेष तक सीमित नाम नहीं है बल्कि ये तो वे सनातन चरित्र हैं जो अनादिकाल से युगों-युगों में स्थान-स्थान पर अवतरित होते आये हैं। 
     जब पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति वर्तमान की तरह सात महाद्वीपों वाली नहीं थी तब ऑस्ट्रेलिया एशिया के बिल्कुल नजदीक था। उस कल्प के समय दैंत्यों के पुरोहित शुक्राचार्य ने जेनेटिक्स पर काम किया था और अनेक ऐसी प्राणि प्रजातियाँ विकसित कीं थी जो विश्व की अन्य प्राणि प्रजातियों से भिन्न थीं। आज भी आप देखा रहें हैं कि ऑष्ट्रेलिया के वन्य प्राणियों जैसे अन्य द्वीपों पर नहीं मिलते।
    वर्तमान में जो रावण विकसित हो रहा है उसे अमेरिका कह सकते हैं। रावण भी कहता था ‘वयम रक्षाम‘‘ अर्थात् हमारी शरण में आओगे तो रक्षा है वर्ना मारे जाओगे। अमेरिका भी वही भाषा बोल रहा है कि जो हमारे खेमे में नहीं है वह हमारा दुश्मन है।
   जब हमारे अन्दर श्रद्धा होती है तो इसका अर्थ हमारे अन्दर मानसिक सामर्थ, सोचने करने की क्षमता, हैसियत, औकात होती है तब हम पढ़े हुए, कहे हुए, सुने हुए पर विश्वास करते हैं और तब तथ्य को यथा-अर्थ से समझ सकते   हंै । 
   लेकिन जब हमारे अन्दर श्रद्धा भाव नामक मनोबल नहीं होता तब हमारे अन्दर राग-द्वैष होता है उस स्थिति में हम तथ्य की वास्तविकता को नहीं जानकर उसको अन्यथा अर्थ में लेते है । 
    जब हमारे अन्दर किसी तथ्य को लेकर राग-अनुराग होता है तो हम उसे जाने बिना स्वीकार कर लेते है क्योंकि हमारी मानसिकता होती है कि यह हमारी सभ्यता संस्कृति से जुड़ा है अतः यह सन्देह करने लायक नहीं है । इस मानसिक स्थिति में भी हमारे अन्दर जिज्ञासा पैदा नहीं होती और जब द्वैष भाव से उसे नकार देते हैं तब भी जिज्ञासा पैदा नहीं होती क्योंकि हमें वह अविश्वसनीय लगता है ।  
     अवतारों के इन सनातन चरित्रों को राग-अनुराग से सुनने पर ये अतिमानवीय या मानवेतर चरित्र लगते हैं । अतः इनको मानवीय धरातल पर नहीं तौलते । इसके विपरित जब द्वैष भाव से दोष निकालते हैं तो कहते हैं कि जब ये भगवान थे तो क्यों नहीं चुटकियों में समस्या का समाधान किया। इतने लम्बे समय तक दुख क्यों पाये ? ये दोनों दृष्टिकोण जिज्ञासा पैदा नहीं होने देते और जब जिज्ञासा नहीं होती तो ज्ञान क्यों कर आयेगा ?

13. राम रक्षक ! रामायण [ राम-रावण ] की पृष्ट भूमि !

     यह वह समय था जब एक तरफ तो आर्यावर्त था जो आर्यन और फिर ईरान शब्द बना लेकिन श्रीराम के समय जो तक्षशिला थी वह आज का ताशकंद है अर्थात जैसा की होता आया है एक राष्ट्र भौगोलिक माप-दण्ड पर पूर्ण तभी कहलाता है जब उसमे सभी तरह की भौगोलिक स्थितियाँ हो। यूरोपियन जातियों के आने से पहले अमरनाथ,मानसरोवर सहित पूरा तिब्बत,नेपाल,अफगानिस्तान और दक्षिण पूर्वी एशिया अखण्ड भारतवर्ष  ही था लेकिन राष्ट्र के नाम पर भारतवर्ष को खंण्ड खण्ड कर दिया।    
    जब रावण ने लंका में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया तो दक्षिण भारत पर भी अपने साम्राज्य का विस्तार करने लगा। उस समय के इस पुरे ब्रह्मक्षेत्र,धर्मक्षेत्र में विश्वामित्र की वैदिकपरम्परा और वशिष्ठ की ब्रह्मपरम्परा दोनों समानान्तर स्थापित थी अर्थात एक तरफ एकात्म परम्परा के गुरुकुलों में स्वाध्याय की सुविधा भी थी तो दूसरी तरफ आश्रमों में जैविक प्रजाति संवर्धन का वैदिक कार्य भी चल रहा होता था। लेकिन सैन्य बल न के  बार थे। सेना के नाम पर देवराज इंद्र के पास वन संरक्षण और संवर्धन के लिए सैन्यबल था।
     जब रावण ने अपने साम्राज्य का विस्तार शुरू किया तो वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। तब एक तरफ तो अगस्त्य ऋषि ने उत्तर भारत को सुरक्षित करने के लिय कच्छ के रन से लेकर उड़ीसा के समुद्र तटीय क्षेत्र तक आदिवासी जातियों का, जिनको बाद में गोँड आदिवासी नाम दिया गया,का एक बेल्ट बना दिया जिसके लिए  आता है की अगस्त्य ऋषि ने अपनी बाहें फैलाकर रावण की भोगवादी [उपभोक्ता] सभ्यता को उत्तर भारत में आने से रोका। 
     दूसरी तरफ इंद्र ने अपने सैनिक अभियान चला रखे थे उसमें अन्य साम्राज्यों की सेना के साथ-साथ दशरथ की सेना भी थी । लम्बे समय तक चला युद्ध अनिर्णित रहा तब एक सामरिक समझौता हुआ । 
      उस सामरिक समझौते की दो मुख्य शर्तें थीं पहली दक्षिण भारत को स्वतन्त्र क्षेत्र (लाईन ऑफ़ कण्ट्रोल) घोषित कर दिया जाये । दूसरी शर्त कि कोई किसी पर आक्रमण न करे । 
      दूसरे बिन्दु पर जो समझौता हुआ उसमें था कि दानव, मानव, देव, गन्धर्व, यक्ष इत्यादि किसी भी प्रजाति की सेना द्वारा आक्रमण नहीं होगा । ऐसी स्थिति में रावण की इस विकास यात्रा को कैसे रोका जाये ? यह बहुत बड़ी समस्या थी । 
      इधर दशरथ के जीवन में तीन बड़ी समस्याऐं थीं। 
      एक तो राजा होते हुए भी अपनी कर्तव्य पालना में विफल रहे। 
      दूसरी उनके कोई संतान नहीं थी और वे एक पत्नी परम्परा को निभाते आने वाले वंश से थे। 
      तीसरी रावण की उपभोक्ता संस्कृति और शाही ठाठ को देख कर प्रजा के मानस में यह सुगबुगाहट (प्रश्न वाचक हलचल) पैदा हुई कि राजा तो रावण जैसा ऐश्वर्यशाली होना चाहिये यह दशरथ जो हमारी ही तरह रहता है, यह कैसा राजा ?
      तब वषिष्ठ के आग्रह पर दशरथ ने अपने पूर्वजों की परम्पराऐं तोड़ते हुए दो काम किये एक था आलीशान राजमहल का निर्माण और दूसरा दो अन्य विवाह ताकि सन्तान पैदा हो। 
     वैदिक सभ्यता के तीन आयाम हैं। एक आयाम है आयुर्वेद का विकास और चाहे जैसी जीव-प्रजातियों या चाहे जैसी मानव की मानसिक प्रजातियों का विकास । 
    इस वैदिक परम्परा को सनातन परम्परा का एक भाग माना जाता है । 
    वैदिक परम्परा के दो अन्य आयाम है जिन्हें आसुरी वैदिक परम्परा कहा जाता है । 
    एक परम्परा वह परम्परा है जो वर्तमान में भी चल रही है और रावण ने जिस परम्परा में क्षितिज को छू लिया था जिसे हम भौतिक विकास की परम्परा कहते हैं। जिसमें काम एवं अर्थ की लड़ाई की अन्तिम परिणीति परमाणु युद्ध होता है । 
    वैदिक विकास का दूसरा अन्य आसुरी रूप है तांत्रिक क्रियाऐं अर्थात् जो क्रियाऐं तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करके व्यक्ति को देव से असुर यानी इन्सान से शैतान बना देती है। यह आसुरी परम्परा ड्रग्स का निर्माण एवं सेवन करने की परम्परा है जिससे आतंकवादी या विद्रोही तैयार किये जाते हैं । 
    जब दशरथ के सन्तान नहीं हो रही थी तब वशिष्ट की परम्परा के गुरूकुल के कुलगुरू वशिष्ट ने उनसे आग्रह किया कि विश्वामित्र गुरू-कुल परम्परा के कुल-गुरू (चांसलर) को आमन्त्रित करें । 
विश्वामित्र ने जो उपाय किये उन में जो विज्ञान था वह आयुर्वेद के नाम से जाना जाता है। वैसे सभी वैदिक ज्ञान राजर्षि विश्वामित्र परम्परा में संकलित कर दिए गए थे और कालन्तर में पुनः अनेक शाखाओं के रूप में विकसित हुए थे। रावण के पिता पुलस्त्य ऋषि भी विश्वामित्र परम्परा की एक शाखा से थे ।  
    विश्वामित्र ने एक उपाय तो यह किया कि अण्ड प्रत्यारोपण से चार पुत्र पैदा हुए। 
    दूसरा उपाय था एक शक्तिषाली नारी सीता को गर्भ के बाहर पैदा किया ।
    तीसरा उपाय था राम को शस्त्र-संचालन विद्याओं के साथ-साथ एक औषधीय विद्या दी जिसके माध्यम से वे बन्दरों एवं भालुओं की सेना खड़ी कर सके थे ।  
     इस सन्दर्भ में आपने कभी इस बिन्दु पर तो चिन्तन किया ही होगा कि जिस शिव-धनुष को सीता बाँये हाथ से उठाकर उसको साफ़ करती थी, उस धनुष को रावण दोनों हाथों से उठाने में असमर्थ रहा । 
      जिस सीता एवं रावण के बल में इतना अन्तर था, उस सीता को वह रावण बलपूर्वक कैसे ले जा सकता था । 
      यह घटना दरअसल एक कूटनीति थी। राम के वनवास की कूटनीति इसलिए चलानी पड़ी कि जब सैनिक युद्ध नहीं लड़ने का सामरिक समझौता हो चुका था तो अयोध्या की सेना राम के किस काम की! 
       जब सेना काम की नहीं तो राज्यारोहण भी किस काम का, अतः राज्या रोहण के समय यह वनवास का घटनाक्रम रचा गया । 
       इसी तरह वनवास के समय में दो निशाने एक तीर से साधे गये। एक तो यह कि सीता को सुविधा जनक आवास मिल जायेगा और राम को एक बहाना कि रावण मेरी पत्नी को उठाकर ले गया है अतः उसे मुक्त कराने के लिए मुझे सहयोग चाहिये । 
       घटनाक्रम का जब अन्त हुआ तो वह यह था कि अन्ततः परमाणु शस्त्रों पर जीत हुई प्रकृति निर्मित यंत्रों की। वे प्रकृति निर्मित यंत्र थे विशालकाय और विशाल संख्या वाले बन्दर-भालुओं के देह रूपी यंत्र ।
     भूमिका के इस खण्ड में मैं यह बताना चाहता हूँ कि परशुराम का पुरूषार्थ होता है  वनों की सुरक्षा के लिए अतिक्रमणकारी क्षत्रियों का नाश करना। बल-राम का पुरूषार्थ होता है कृषि के माध्यम से धन-धान्य का उत्पादन करना । 
     लेकिन जब साम्राज्य के विस्तार के नाम पर आसुरी प्रवृति के लोग भौतिक यंत्रों का उपयोग करते हैं, प्राकृतिक जीवन शैली को प्रभावित करते हैं तो उन्हें किसी न किसी तरीके से मारना आवश्यक होता है तब उनके मारने के लिए किया जाने वाला पुरूषार्थ ही श्रीराम को आदर्श पुरूषार्थी या पुरूषोत्तम बनाता है। दशावतार में उनका विशिष्ट स्थान था।
     जब श्री राम ने रावण के परमाणु संयत्रों को नष्ट किया तो उनमें बना युरेनियम उन्होंने राम सेतु में दबवा दिया। अब यहाँ यह प्रश्न  पैदा होता है कि राम-सेतु तो युद्ध से पहले बनाया गया था जबकि युरेनियम तो युद्ध के बाद संग्रह किया होगा। 
    

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

11. भारत वर्ष-राष्ट्र ! परशुराम अवतार !

    भारतवर्ष का नाम कभी आर्यावर्त भी था। उससे पहले इसे जम्बूद्वीप नाम से भी जाना जाता था। भारत का नाम भारत कब पड़ा इस विषय में अनेक अंतर्द्वंद्व हैं। क्योंकि जम्बूद्वीप तो पुरे एशिया महाद्वीप का नाम था।
    कश्यप शब्द अवतार के रूप में कछुआ हो जाता है तो व्यक्ति के रूप के रूप में ऋषि [researcher]  और प्रजापति हो जाता है। लेकिन भारत  की जाति व्यवस्था में कश्यप कहार के लिए और प्रजापत कुम्हार के लिए भी काम में लिये जाते हैं। इसका अर्थ यह भी होता है कि शायद मानव ने सबसे पहले पहिये का आविष्कार नहीं करके कावड और डोली का आविष्कार किया होगा। 
     इसके अलावा एक और तथ्य है जिस पर विरोधाभाष है। एक तरफ तो नृसिंह अवतार और वामन अवतार के समय नगर निर्माण की योजना का जिक्र आता है जिसका अर्थ है कुम्हार [भवन निर्माता] के उपकरण विकसित हो गए थे लेकिन दूसरी तरफ धातु के शस्त्र का,फरसे का जो कि कुल्हाड़ी से मिलता जुलता होता है का,प्रथम आविष्कार परशुराम ने किया था।परशुराम ने ही कृष्ण को धातु से बना चक्र दिया था। इस का अर्थ यह हुआ कि या तो इस दरमियान निर्माण की विद्याएँ नष्ट हो गयी थी तो इसका अर्थ है सभ्यताएँ भी नष्ट हुयी हैं या यह भी हो सकता है कि कश्यप परम्परा के भवन निर्माण में लोहे के उपकरणों की उपस्थिति नहीं थी जब की परशुराम के भारत में लकड़ी के भवन बनाने के लिए फरशा इजाद हुआ। 
     पारशुराम ने 21 बार क्षत्रियों का नाश किया इसका अर्थ है कि छठ्ठे अवतार भगवान् परशुराम का संघर्ष देत्यों,दानवों से नहीं होकर भारतियों से ही हुआ है।अब यदि इन सभी आचरण को वैदिक द्रष्टि से देखें तो यह शरीर की त्रिगुणात्मक प्रकृति का परिणाम होता है अतः क्षत्रिय को राक्षस बनते लम्बा समय नहीं लगता,अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है की भारत के क्षत्रिय रज के विकार से बार बार राक्षस हुए हैं। 
   भारत का नाम भारत इस लिए पड़ा की वैश्वीकरण हुआ अतः विज्ञान शब्द कोष से एक नाम निकाला गया 'भारत"।जिसका अर्थ होता है भारती नामक अग्नि, जो वनस्पति में प्रकाश संश्लेषण क्रिया Photosynthesis process से अपना भोजन बनाती है,उसकी अधिकतम उपस्थिति के समय, ग्रीष्म काल में जब वर्षाऋतु आती है और वर्षा के जल से वनस्पति साम्राज्य का विस्तार होता है तो सनातन धर्म चक्र की गति तेज होती है और तब प्रकृति जनित पारिस्थितिकी अर्थशास्त्र Nature Generated Ecological Economics से धनधान्य पैदा होता है,वह स्थान भारत कहा गया है।
     जब वैदिक विकास में दैत्यों के दैत्याकर भवनों वाले दैत्याकार नगरों में दैत्याकार वाहनों के विकास का विरोध करने वाले और प्राकृतिक जीवन शैली के प्रति दृढ़ता दिखाने और छोटे छोटे गांवों के स्थान पर शहरीकरण और गृह उद्योग के स्थान पर देत्याकार मशीनीकरण को, विकास की परिभाषा नहीं मानने के कारण, ग्रीक शब्द कोष में,जो कि देत्यों-दानवों की सभ्यता का केंद्र था, की भाषा में, भारतियों को INDOCILE कहा गया जिसका अर्थ होता है जिद्दी और आज्ञा न मानने वाला। 
    चूँकि भारत में एकात्म परम्परा को मनुष्य की सर्वोच्च मानसिक स्थिति मानी जाती रही है और अकेला निर्जन स्थान पर,एकाकी एकांत में रहने वाले के लिए INDIVIDUAL शब्द का उपयोग होता है अतः भारतीयों को INDIAN कहा गया।
      अब यहाँ पर आप धेर्य से सोचें कि आज भारत में भी दो दृष्टिकोण हैं।एक वर्ग प्राकृतिक जीवन शैली चाहेगा और आत्मकल्याण को, Self-welfare को प्रथम प्राथमिकता देगा, तो एक वर्ग इस औद्योगिक नगरों के विकास को ही विकास मानता है।
      अतः जिस तरह आर्यावर्त और ब्रह्मलोक दोनों को मिलाकर, कश्यप सागर से इण्डोनेशिया तक के क्षेत्र को,भारत नाम दिया गया और उसे उस समय दो वर्गों में वर्गीकृत किया एक परशुराम द्वारा संरक्षित रहने वाला, ब्रह्मलोक,धर्मक्षेत्र कहा जाने वाला भारतवर्ष दूसरा आर्यों के संरक्षण में रहने वाला भारत राष्ट्र बनाया उसी तरह हमें भी इस वर्गीकरण परमपरा को पुनः लागू कर देना चाहिए।     
    परशुराम की उपस्थिति राम के पूर्वजों से लेकर कृष्ण के समय तक रही है और आज भी आदिवासियों के रूप में है। राक्षसों से आलग होकर आर्यों ने जब क्षत्रिय धर्म को धारण किया तब से लेकर 21 बार ऐसा हुआ है कि क्षत्रियों ने अपनी सीमा का उलंघन किया है और उसका अन्तिम चरण भी ब्रह्मपुत्री क्षेत्र में ही समाप्त हुआ है। जहाँ से हिमालय की पहाड़ियाँ शुरू होती है उस अंतिम किनारे पर परशराम कुंण्ड है जहाँ उन्होंने अपना फरशा रखा था।
   इसका तात्पर्य यह है कि आज हमें कम से कम पूर्वोत्तर राज्यों में तो क्षत्रियों के नाश का आन्दोलन चलाना ही चाहिए।        
   जब वामन अवतार हुए थे तब तक भारत का जिक्र नहीं है क्यों कि तब तक भारतवर्ष और आर्यावर्त अलग अलग थे।भारत वर्ष को भारत राष्ट्र और देश में विभाजित या वर्गीकृत नहीं किया गया होगा इसका विभाजन परशुराम की देन है ताकि भारत वर्ष सुरक्षित रहे। इसी सुरक्षा के लिए परशुराम ने 21 बार क्षत्रियों यानी भूस्वामियों के द्वारा वनों पर किये गये अतिक्रमण को हटाया था।
    इस तरह परशुराम को दशावतार की विशिष्ट सूचि में छठा अवतार माना गया।
    अतः जो लोग वर्तमान के अधर्म के उत्थान से परेशान होकर किसी अवतार की अपेक्षा Expectation करते हैं उन्हें धर्म के प्रति ग्लानी भाव और अधर्म के उत्थान की परिभाषा को अवश्य समाझ लेना चाहिए क्योंकि प्रजातंत्र है अतः आज के अवतार में सभी की सामूहिक भूमिका रहेगी।
     अन्तिम कल्कि अवतार तो मोहम्मद के रूप में हो चुके अतः चौदह सो हिजरी के बाद का भविष्य बताने के स्थान पर चुप हो गए क्योंकि भविष्य दृष्टा को पता था कि तब तक इस्लाम भारत में मान्यता प्राप्त कर लेगा और प्रजातंत्र आ जाएगा अतः आज पत्रकारिता से जुड़े वर्ग का दायित्व है कि वह धर्म और अधर्म की परिभाषा को रेखांकित करें और मतदाता तक तथ्य को पहुंचाए। 
    यह तो आप सामजिक पत्रकारिता ब्लॉग में पढ़ ही चुके हैं कि भारत वर्ष-देश-राष्ट्र तीनों प्रकार के भारत के तीन-तीन आदर्श हैं। तीनों प्रकार के भारत के तीन राम हैं जो कि तीन प्रकार का पुरूषार्थ करने वाले तीन आदर्ष पुरूष हैं।
आदर्श आचरण
   तीन भरत हैं जिनको तीन आदर्श आचरण कहा गया है जिनके नाम पर भारत का नाम भारत पड़ा ।

भारत वर्ष

      यह भारत वनों से आच्छादित भूभाग है, जहाँ से प्राकृत धर्म शुरू होता है। इस भारत का नाम जिस भरत पर पड़ा वे ऋषभदेव के पुत्र एवं बाहुबली के छोटे भाई भरत थे। चूँकि अहिंसा धर्म के कारण,चाहे वह लाठी ही क्यों नहीं हो,शस्त्र उठाना निषेध था अतः भारत वर्ष के आदिवासी शासन व्यवस्था में मुखिया का चुनाव मल्ल युद्ध से होता आया है। तो उन्होंने अपने बड़े भाई बाहुबली को मल्ल युद्ध के लिए ललकारा जो कि शासक-प्रमुख थे। लेकिन बाहुबली के बिना मल्लयुद्ध किये ही सत्ता छोड़ कर दिगम्बर हो कर वन में चले जाने पर उन्होंने प्राकृत भारत में शासक द्वारा अनुशासन परम्परा को समाप्त करके कहा कि प्राकृत भारत में आत्म-अनुशासन की परम्परा लागू की जाये न कि प्रशासन व्यवस्था। यह आदर्श आचरण माना गया। 
    भागवत महापुराण में ये जड़ भारत नाम से जाने जाते हैं। एक स्थान पर जड़ भारत और एक राजा, जिनका नाम स्मृति में नहीं है,के बीच एक रोचक वार्ता है जिसमे वे अपने तर्कों द्वारा राष्ट्र का सम्राट बनने को आत्मकल्याण के सामने तुच्छ प्रमाणित किया है।  
      आदर्श संस्कृत का शब्द है जिसका एक पर्यावाची शब्द मिरर (दर्पण) भी है। किसी को आदर्श  मानने का अर्थ है, हम उस व्यक्ति में अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं और वैसा ही बनने का प्रयास करते हैं । उनके आदर्शों का अनुसरण करते हैं। 
   बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय इन्हीं के आदर्शों पर चलकर अहिंसा एवं आत्म-अनुशासन के आचरण के मूल मन्त्र की परम्परा के वाहक हैं। 
    प्राकृत भारत के आदर्श पुरुषार्थी पुरूष वे राम हैं जिसके हाथ में परसा (फर्षा) रहता हे जिन्हें परशुराम कहा गया है । 
   परशुराम परम्परा उस आदर्श पुरूष की परम्परा है जो भारतवर्ष यानी प्राकृत भारत यानी वन्यक्षेत्र धर्मक्षेत्र वाले भारत के सुरक्षा के लिए पुरूषार्थ करते हैं । 
    परशुराम शान्ति काल में अपने परशे से देवी सम्पदा युक्त वनस्पतियों एवं प्राणियों की सुरक्षा करते हैं और आसुरी सम्पदा युक्त प्राणियों एवं वनस्पतियों को नियन्त्रण में रखते हैं। 
    जब भारत वर्ष की भूमि पर भारत राष्ट्र अथवा भारत देश के क्षत्रिय अतिक्रमण करते हैं तो उनको मार भगाते हैं। 
    भारत वर्ष की अर्थव्यवस्था उस वनोत्पादन पर चलती है जो वर्षा के वार्षिक चक्र से स्वतः उत्पादित होता है । जिसे हम वर्षा वन Rain Forest कहते हैं।  
    यदि आज हम भारत वर्ष की सीमा का निर्धारण करें तो दक्षिण-पूर्व एशिया का पूरा भाग भारत वर्ष में आता है । जिसका क्षेत्र कभी इरान से लेकर मलेसिया, वियतनाम एवं दक्षिणी चीन तक का भू-भाग हुआ करता था। उसके बाद जब आर्यावर्त में भी वर्षावन समाप्त हो गए तो अफ़ग़ानिस्तान से ले कर प्रशांत महासागर तक था आज यह सिन्धु घाटी से लेकर शुरू होता है लेकिन सम्माप्त होता जा रह है।

9. नृसिंह अवतार !

     प्रजापति दक्ष का मूल स्थान वह नदी था जिसे आप ब्रह्मपुत्र नदी के नाम से जानते हैं जबकि उसका मूल नाम है ब्रह्म पुत्री है। किन्तु  दक्ष प्रजापति  को ब्रह्म पुत्र  है 
    प्रजापति दक्ष की परम्परा को ब्राह्मण परम्परा, तथा मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था है जिसे जीव प्रजातियों के बीजों को संरक्षण देने की परम्परा कहा गया है । जब पूरी पृथ्वी ही आसुरी वैदिक विकास के परिणाम स्वरूप अग्नि में जलने लगती है तो ब्रह्मपुत्र घाटी ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र बचता है जहाँ जीव-जगत की मूल प्रजातियाँ सुरक्षित बचती हैं। प्रमाण रूप में समझना चाहें तो आप वहाँ देखेंगे कि विष्व की जितनी भी मानव प्रजातियाँ हैं वे सभी ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में निवास कर रही हैं।
      वैदिक सभ्यता के जनक प्रजापति ऋषि कश्यप ने तेरह अथवा नौ दक्ष कन्याओं से विवाह किया था । 
        प्रजापति कश्यप का कार्य क्षेत्र या मूल स्थान वह स्थान था जो एशिया एवं यूरोप को दो भागों में विभाजित करता है और जहां पर ऐसा सागर है जो झील की तरह पृथ्वी की सतह से घिरा हुआ है जिसका नाम कश्यप का अपभ्रंष उच्चारण केस्पियन सागर है । 
       प्रजापति कष्यप की नौ पत्नियों में से एक का नाम था दिती दूसरी एक का नाम अदिती । दिती के दो पुत्र जिनके हिरण्य अक्ष और हिरण्य कशिपू हुए जो दैत्य कहलाये तथा अदिती के बारह पुत्र हुए जो आदित्य कहलाये। जिनके बारे में अलग सन्देश में आपने पढ़ ही लिया है,
     इन दो पत्नियों की कहानी को बाईबिल और एंजील में भी दर्शाया गया है। इनमें ये घटनाऐं उस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रख कर लिखी गई जिन काल-खण्डों में ये रचनाऐं लिखी गईं। यहाँ वह झगड़ा भेड़ों  के विभाजन के साथ भूमि विभाजन का है। 
     दैत्यों एवं आदित्यों (देवों) के बीच का झगड़ा जीवन शैली को लेकर ही था। 
     दैत्य भौतिक विकास चाहते थे जबकि आदित्य प्राकृतिक जीवन शैली चाहते थे। 
     दैत्य साम्राज्यवादी थे जबकि देव प्रजातंत्र अनुशासित शासन व्यवस्था के पक्षधर थे।
     दैत्य देत्याकार भवनों और नगरों के पक्षधर थे जबकि देव छोटा किन्तु सुन्दर Small is beautiful को मान्यता देते थे।
     दैत्यों की बहन होलिका वनों में आग लगा कर वहाँ देत्याकार भवन बनाने के लिए भूमि तैयार कर रही थी लेकिन उसका भतीजा प्रहलाद बारहवें आदित्य विष्णु का भक्त था और इस कार्य में व्यवधान डाल रहा था तब होलिका ने उसे भी जलाकर मारने की साजिस रची। लेकिन होलिका खुद जल कर समाप्त हो गई और हरे वृक्षों सहित प्रहलाद सहीसलामत बच गया।
     इसके बाद भी जब देत्य वैष्णव धर्म को, वैश्विक अर्थशास्त्र  को, वर्तमान समय की तरह ही, नहीं समझ पाये  और विकास की अपनी परिभाषा पर अड़े रहे और अपने ही पुत्र को प्रताड़ित करते रहे,  जैसें कि वर्तमान में किसान भी अपने पुत्र को I.T.में जाने को उकसाते हैं और न जाने पर प्रताड़ित करते हैं, तब विष्णु,जो कि अणुओं की गुणधर्मिता को नियंत्रित करने का विज्ञान जनता था, ने नृसिंह रूप धारण किया और एक स्वप्न की तरह कुछ ही समय में उस विकास को धराशाही कर दिया।इस लिए नृसिंह अवतार को स्वप्न का देवता माना जाता है।
      इस घटना के दोनों पक्षों का समन्वय करके ब्राह्मण धर्म में होलीत्योंहार,Holy festival पर पवित्र करने वाली अग्नि की भी पूजा की जाती हैं तो हरे वृक्ष [प्रहलाद ] को भी सुरक्षित बचाते हैं।  
     
       बारह आदित्यों के बारे में अलग सन्देश में आपने पढ़ ही लिया है,अन्य सात पत्नियों को जलचरों, स्थलचरों  इत्यादि सात प्रजातियों में विभाजित जीवजगत की माताओं ( धाय माओं) के नाम से प्रजाति संवर्धन के लिये नियुक्त किया।