एक लाख बीस हज़ार वर्षों की एक चतुर्युगी होती है और इतने ही वर्षों का एक कृतयुग होता है । इस तरह दो लाख चालीस हज़ार वर्षों का एक पूर्ण युग चक्र होता है । ऐसे हज़ारों युगों का एक कल्प होता है जो ब्रह्मा का एक दिन कहा गया है।
ब्रह्मा का यह दिन रात तो सूर्य के प्रकाशित होने और ठण्डे होने से बना कल्प है। ग्रहों की गति से नापे जाने वाले युग का निर्धारण प्रकृति निर्मित काल खण्ड से होता है लेकिन कल्प का निर्माण ब्रह्मा करते हैं। यहाँ पर ब्रह्मा का एक दूसरा तात्पर्य सूर्य के चुम्बकीय क्षेत्र से नहीं बल्कि ब्रेन से है, ब्राह्मण कहे जाने वाले उस व्यक्ति से है जो ब्रह्म में रमण करता है।
तात्पर्य यह कि एक तरफ हज़ारों युगों का ब्रह्मा का एक दिन भी कल्प कहलाता है तो दूसरी तरफ एक युग (चतुर्युगी) में भी अनेक कल्प हो सकते हैं।
एक ब्राह्मण (ब्रह्मा) जब संकल्प-विकल्प का सहारा लेकर अपनी कल्पना से एक सुन्दर समाज व्यवस्था की संकल्पना प्रस्तुत करता है तो उसे भी कल्प का सृजन ही कहा गया है।
यहाँ हमें वर्तमान कल्प के परिप्रेक्ष्य में एक विरोधाभासी तथ्य को लेकर उसके पीछे के अंतर्विरोध को समझने का प्रयास करना चाहिये ।
(1) युग परिवर्तन, (2) प्राकृतिक दुर्घटना एवं (3) मानव के अमानवीय आचरण ।
इन तीनों में से कोई एक अथवा दो अथवा तीनों ही कारणों के अलग-अलग अथवा एक साथ होने से कोई एक कारक ( फ़ैक्टर) पैदा होता है और मानव सभ्यता काल का ग्रास बन जाती है या कहें मानव मानव साम्राज्य, हयूमन किंगडम संख्या में सिकुड़ जाता है। वह कल्प का अन्त कहा जायेगा। कालान्तर में फिर इसका उत्थान होने का जब समय आता है तो वह कल्प का आदि (प्रारम्भ) कहा जाता है ।
कल्प के आदि में एक व्यक्ति अथवा एक मत पर पूर्ण सहमति से एक समूह, जगत का पुनः विस्तार करने की दिशा में सक्रिय होता है। संकल्प-विकल्प का सहारा लेकर कल्पनाशील नेतृत्व में नये कल्प का प्रारम्भ होता है। यहाँ हम वर्तमान कल्प के आदि विषय में एक बिन्दु पर अपना ध्यान केन्द्रित करें तो एक विरोधाभास महसूस होता है ।
भारतीय सांस्कृतिक मान्यताओं में शंकर को छोड़ कर सभी देवी-देवताओं के जन्म दिन मनाये जाते हैं । शंकर के विवाह के उपलक्ष्य में महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। इसके पीछे मूल अवधारणा यह है कि शंकर इस पृथ्वी का पहला नर पुरूष है अतः उसके जन्म दिन का पता नहीं। शंकर ने किसी गर्भ से जन्म नहीं लिया बल्कि ईश्वर (ईथर) के द्वारा अणु परमाणुओं को अनुशासित करके पहली मानव देह की रचना की। हम सभी मानव उनकी सन्तान हैं। इसी शंकर शब्द का अभिप्राय आदिपुरूष, आदिनाथ, आदम इत्यादि है ।
एक अवधारणा जो सर्वाधिक उपयुक्त लगाती है, उसके अनुसार चतुर्युगी की समाप्ति होते-होते मानव नस्ल की देह दो से चार फ़ीट रह जाती है, तब हिमालय की कंदराओं से मानव नस्ल की मूल आकृति का 18 फ़ीट ऊँचा यति मानव आता है और पुनः पहले तो मानव नस्ल का विस्तार होता है फिर नस्ल की विनास यात्रा शुरू होती है।
फ़्रायड ने अपने उत्पतिवाद में यह कल्पना की कि इस पृथ्वी पर किसी अन्य ग्रह से कोई पहला मानव आया और उसी की सभी सन्ताने हैं। उनके विकृत मनोविज्ञान के परिणामस्वरूप अन्य विकृत देह के पशु पैदा हुए ।
चुंकि वह यक्ष-रक्षस परम्परा से जुड़ा भौतिकवादी था अतः इस भारतीय मान्यता को उसने अपने दृष्टिकोण से समझ कर उस पर अपने नाम का ठप्पा लगा कर इस धारणा को अपनी निजी शोध बताया।
शंकर को पशुपति नाथ बताया है जो पशुओं (प्राणी नस्लों) की सुरक्षा और संवर्धन का उत्तरदायित्व निभाते हैं। प्राकृत धर्मों में आदिनाथ और यति शब्दों का उपयोग हुआ है। आदिनाथ, आदम,आदिबाबा (आदिवासियों में प्रचलित शब्द ) इत्यादि शब्दों का उपयोग हुआ है। वैदिक साहित्य में ऋषि कश्यप से पुरुष प्रधान व्यवस्था का प्रारंभ होता है।
शंकर को पृथ्वी के प्रथम नर-पुरूष के रूप में स्थापित करने की अवधारणा सनातन-धर्म की है। दूसरी तरफ़ वैदिक साहित्य के अनुसार वर्तमान कल्प के प्रजापति कश्यप हुए हैं,जो एक ऋषि (वैज्ञानिक) थे।
कश्यप प्रजापति का स्थान या कर्मक्षेत्र या उत्पति क्षेत्र उनके नाम से प्रख्यात हुए केस्पियन सागर के आस पास का क्षेत्र था। ब्राह्मण परम्परा के मूल पुरूष शंकर तथा वैदिक परम्परा के मूल पुरूष प्रजापति कश्यप, दोनों ने ही दक्ष प्रजापति की कन्याओं से विवाह किया था। यह बिन्दु दो जिज्ञासायें पैदा करता है। 1. क्या दोनों का काल खण्ड एक था ? 2. यदि दोनों ही प्रथम मानव थे तो फिर दक्ष प्रजापति कौन थे जो उनसे पूर्व में पैदा हो चुके थे। उनकी अनेक कन्यायें भी थीं।
कश्यप का स्थान केस्पियन सागर माना गया । शंकर का उत्पत्ति स्थान भी पश्चिम एशिया था। वर्त्तमान में मक्का की मस्जिद में जो केन्द्रिय निर्माण है वह एक शिवलिंग को आवृत्त करने (ढकने) के लिए बनाया हुआ है। किन्तु शंकर का आवास स्थान,तपोस्थली हिमालय पर्वत है। उन्होंने पार्वती से विवाह करके अपना स्थाई निवास वहाँ बनाया था। घर जँवाई रहे ।
दक्ष प्रजापति मातृ प्रधान समाज से थे। इन्हें ब्रह्मा का पुत्र भी कहा गया है इनके नाम पर नदी जो कि स्त्रिलिग़ शब्द है फिर भी उसका नाम ब्रह्मपुत्र है.
शंकर ने एक पति-पत्नी धर्म और माता-पिता, नर-नारी, स्त्री-पुरुष , पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, भाई-बहिन दोनों को उभयपक्षी एक समान अधिकार वाली समाज व्यवस्था की नींव डाली। कश्यप से पित्तृ सत्तात्मक समाज का प्रारंभ होता है,जो इन दोनों से काफ़ी बाद में मानव के स्वअनुष्ठित धर्म( सभ्यता ) के रूप में शुरू होती है। कश्यप ने दक्ष प्रजापति की तेरह कन्याओं से विवाह किया था।
दक्ष का अर्थ कार्य कुशल,निपूण,प्रवीण, Efficient,Skilled,Conversant,Accomplished,Expert इत्यादि होता है।जिस तरह शिक्षा लेकर शिक्षित होता है उसी तरह दीक्षा लेकर दीक्षित होता है तब दक्ष कहलाता है।लेकिन सच्चाई तो यह है कि दक्ष अथवा सिद्ध तो निरन्तर अभ्यास करने से होता है अतः यह दीक्षा परम्परा वह परम्परा है जहां गुरु का आविर्भाव,आगमन होता ही नहीं है। जैसे कि दत्तात्रेय ने जब गुरु परम्परा की शुरुआत की तो उनका कोई गुरु नहीं था लेकिन उनका कहना था कि मछली,कुत्ता,हंस इत्यादि 24 गुरु थे जिनसे उन्होंने कलाएं सीखी।
ये सभी बातें तब समाप्त हो जाती जब आप 'दक्ष कन्याओं' के स्थान पर अनुवाद में 'दक्ष प्रजापति की कन्याओं' नहीं करें। अर्थात जब 1.20.000 वर्षों का चतुष्युगी काल समाप्त होता है तब तक 18 फीट ऊँचा यति,आदम, कमजोर होकर तीन चार फीट का रह जाता है तब कृतयुग शुरू होता है और शुरू होता है प्रकृति के विस्तार का कृत युग, तब नर:मादा का अनुपात 1:5,10 हो जाता है और वनोत्पादन का अर्थशास्त्र शुरू हो जाता है तब सभी काम नारी करती है और वह प्रतेक कार्य में दक्ष हो जाती है। इन्ही कन्याओं से विवाह करके कश्यप ने बहुपत्नी प्रथा और पुरुष प्रधान वैदिक समाज की आधार शिला रखी और शंकर ने नर-नारी समभाव की,एक पतिपत्नी वाली एकात्म परम्परा की नीँव रखी।
कश्यप के दिति के गर्भ से दो पुत्र पैदा हुए जो दैत्य कहलाये क्योंकि उनकी देह का आकार बड़ा था। वे दैत्याकार देह वाले थे। वे भयानक पुरूषार्थी किसी की उपासना नहीं करते थे।
अदिति के गर्भ से बारह आदित्य पैदा हुए। आदित्य सूर्य का ही एक नाम है। बारह आदित्यों को देव कहा गया। उनके बारह नाम उनकी प्राकृतिक गुणधर्मिता को दर्शाते हैं। यह प्राकृतिक गुणधर्मिता सूर्य के आचरण से कहीं न कहीं जुड़ी है। इनके बारह चारित्रिक नाम हैं :-
1. इन्द्र:- वर्षा (मानसून) की प्रक्रिया का देवता अर्थात जिसने मानसून आने के नियमों की खोज की । यहाँ इन्द्र को सबसे बड़े भाई के पद पर स्थापित किया गया है। यह इस बात का प्रमाण है (मैं आगे जाकर इसी बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित कराने जा रहा हूँ) कि भारतवर्ष में गर्मी का मानसून कभी केस्पियन सागर से लेकर पूरे दक्षिण एशिया और आस्ट्रेलिया की सीमा तक को आवृत्त (कवर) करता था। भारतवर्ष में इन्द्र पद सबसे बड़ा पद माना जाता रहा है। इन्द्र का काम (कर्तव्य एवं अधिकार) वर्षा के वार्षिक चक्र को नियमित बनाये रखना था ।
2. धातृ:- धृति बल को कैसे बढ़ाया जाये इस पर अनुसंधान करने वाला देव।
3. भग:- भग योनि (वेजाइना) को कहा जाता है । चैरासी लाख योनियाँ वर्गीकृत हुई हैं। यहाँ योनि का तात्पर्य प्रजाति (स्पीशीज, नस्ल) से लेना चाहिये। प्रजातियों की चारीत्रिक गुणधर्मिताओं पर शोध करना तथा संकर नस्ल पैदा करना इसका काम था।
4. त्वष्ट्र:- शरीर का आवरण त्वचा होता है। राष्ट्र की सीमायें भी त्वष्ट्र कही गयी हैं। त्वष्ट्र का विषय एक ही जाति (जीन्स, वंश, परिवार) के जीवों में पर्यावर्णिक स्थिति के कारण त्वचा पर चिकनाहट होना, बाल होना, त्वचा मोटी-पतली होना, अलग-अलग रंगों की होना जो एक प्राकृतिक घटना मानी जाती है, उस पर यानी त्वचा के बिन्दु पर, जेनेटिक-विज्ञान पर शोध करना था।
5. मित्र:- ये रचना धर्मिता को पैदा करने वाली चारीत्रिक गुणधर्मिता पर शोध करने वाला देव था । विश्वामित्र परम्परा की शाखा इन्हीं से शुरू हुई।
6. वरूण:- जल एवं जलचरों से जुड़े विषय पर शोध करने वाला देव था।
7. अर्यमन:- मानव में वंशानुगत गरिमा कैसे पैदा हो अर्थात् वह कुलीन कैसे बने, इस पर शोध करने वाला देव/पितर परम्परा का जानकार।
8. विवस्वत:- सूर्य से निकलने वाली वसु (चुम्बकीय तरंगें) प्राणी एवं वनस्पति पर क्या प्रभाव डालती हैं, इस पर शोध करने वाले देव।
9. सवितृ:- सूर्य से निकलने वाली प्रकाश तरंगें (फ़ोटोन) प्राणी के शरीर में यज्ञ का संचालन कैसे करती हैं, तथा वनस्पति में प्रकाश संश्लेषण (Photo-synthesis) क्रिया पर शोध करने वाला देव।
10. पूषन:- मांसपेशियों में बल पैदा होने और पुरूषार्थ करने तथा पुरूषत्व को प्राप्त करने के विषय का शोध कर्ता देव ।
11. अंशुमत:- शरीर में तेज कैसें पैदा होता है उसके विषय पर शोध करने वाला।
12. विष्णु:- अणुओं में व्याप्त होकर उनमें गुणधर्मिता पैदा करने वाली प्रक्रिया पर शोध करना कि किस तरह एक ही तरह के परमाणु अलग-अलग तरीक़े से जुड़कर अलग-अलग योगिक बनाते है। तब किस तरह उनकी रासायनिक गुणधर्मिता अलग-अलग बन कर यज्ञ प्रक्रिया (रासायनिक क्रियाओं) में परिवर्तन कर देती है ।
कश्यप प्रजापति ने दक्ष प्रजापति की कुल कितनी कन्याओं से विवाह किया यह संख्या भिन्न-भिन्न बताई गई है। लेकिन एक बिन्दु सभी उल्लेखों में एक समान है । ये अलग-अलग प्रजातियों की माताऐं कही गई हैं । इन्हें लोक माताएँ भी कहा गया है।
इन्होने अन्य जीवप्रजातियों का संरक्षण संवर्धन किया।
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