Once being the world's master,India is the world's oldest and largest democratic system creater nation. This is not the thing to prance upon forefathers like the way Lucknow's tongawala's call themselves posterity of Nawabs. nor this is the laughing matter at the prancing one, Looking at India's current selfmade predicament. But it the centerpoint(Krishnbindu) to think seriously that instead of leading, why are we trailing today ! In this blog we will analyse on the morality-immorality's past-present-future!

(1)माना कि भारत भी विश्व के अन्य राष्ट्रों की तरह वित्त द्वारा शोषण करने वाली यक्षीय अनुबंध प्रणाली में बंध गया है लेकिन इस का यह अर्थ भी नहीं है कि उद्योग-वाणिज्य की कॉमर्शियल प्रणाली से इतने बँधे रहें कि आहार का उत्पादन करने वाले वर्ग की क्रय-क्षमता ही समाप्त होती जाये और अंततः उद्योग भी ठप हो जाये..

(1) suppose that India, like other nations of the world, is bound by Yakshiya agreement system exploiting by finance. But this does not mean to be hardly bound by the commercial industry system that purchasing power of the food producing class, terminates. And eventually the commercial industry come to a standstill.

(2)कृपया भारत और भारतीयों की तुलना उन देशों से ही करें जहाँ अर्थ-व्यवस्था का मूलाधार प्राकृतिक उत्पादन हो.वैदिक संस्कृत के शब्द "स्वास्ति-सृष्टम" का शब्दानुवाद है "सनातन-धर्म-चक्र" और इसका लेटिन शब्द है "इकोलोजीकल चैनल". भारत में "सनातन धर्मी अर्थ-व्यवस्था पद्धतियाँ" पुनर्स्थापित होनी चाहिए अर्थात "इकोनोमिक्स मस्ट बी इकोलोजी बेस्ड".

(2) Please compare India and Indians to those countries where foundations of The economy is natural production. Vedic Sanskrit word SWAASTI-SRISHTAM's literal translation is "Sanatan Dharma Chakra". It's Latin word is "Ecological Channel." means "the Eternal Righteous-System Practices" must be restored in India. Ie "Economics Must be Ecology-based".

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

सोमवार, 20 अगस्त 2012

17. बुद्धावतार एवं कल्कि अवतार का वर्त्तमान में झगड़ा !

सनातन धर्म का मानसिक [ आध्यात्मिक ] रूप !


अवतार के विषय को विस्तार देने से पूर्व यह एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य पुनः पुनः बताते जाना आवश्यक ही नहीं अतिआवश्यक है। क्योंकि प्रतेक तथ्य और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में धर्म की स्थिति उसी तरह बदल जाती है जिस तरह त्रिआयामी/Three-dimensional, त्रिकोणीय/Triangular रचना में एक आयाम के बदलते ही अन्य दोनों आयाम स्वतः प्रभावित होते हैं| लेकिन इसका सनातन सिद्धांत कभी नहीं बदलता।

आपने भगवान कृष्ण का एक चित्र देखा होगा जिसमे वे तीन-तीन डोरियों से तीन व्यक्तियों को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं। भूमि पर धन की तीन ढेरियाँ पड़ी है। एक व्यक्ति जो रजो प्रवृति का है वह उन तीनों ढेरियों को अपनी तरफ खींचता है,तामसी प्रवृति वाला उस के कार्य को रोकने का असफल प्रयास कर रहा होता है जबकि सात्विक प्रवृति वाला निर्विकार देख रहा होता है।


ये तीन तरह की प्रवृतियाँ सनातन मानवीय आचरण है अतः यह एक मूर्खतापूर्ण अवधारणा है कि पहले तो इन्सान वैसा था आज ऐसा है। इंसान हमेशा से तीन शारीरिक प्रकृतियों से वशीभूत हुआ इन तीन मानसिक प्रवृतियों का होता आया है। चूँकि यह विज्ञान का विषय है इसलिए तत्व की गुणधर्मिता से जुड़ा है अतः इस पर खानपान से नियंत्रण रखा जा सकता है। मैं पत्रकार की श्रद्धा/हैसियत से इतना ही कह सकता हूँ कि इस बिंदु पर जब तक नियंत्रण नहीं किया जाता तब तक हम रज की प्रवृति से मुक्त होकर लड़ने-झगड़ने, उठा-पटक वाली राक्षस प्रवृति से मुक्त नहीं हो सकते। अतः इसका एक मात्र तरीका है एक ऐसी व्यवस्था पुनः बनायी जाये जिसमे व्यवहार को आहार से नियंत्रित करने की तकनीक [विद्या] का उपयोग सामाजिक मान्यताओं के साथ जीवन शैली में प्रतिष्ठित हो। 


सनातन धर्म का दैविक रूप है नैसर्गिक प्रकृति !


‘‘सनातन‘‘  संस्कृत शब्द है। "अन-अवरूद्ध या सतत प्रक्रिया" हिन्दी शब्द है तथा 'Non-dis-continued' 'Un-blocked continuous process' अंग्रेज़ी शब्द हैं। तीनों समानार्थी शब्द हैं। सनातन Eternal धर्म का ज्ञान अर्थात पारिस्थितिकी[Ecology] विषयान्तर्गत आने वाले सभी आयामों की जानकारी।

सनातन धर्म की रक्षा यानी पारिस्थितिकी[ईको सिस्टम] का विस्तार अर्थात् जब वनोत्पादन से मानव जाति के लिए आवश्यकता जितने पौष्टिक आहार की आपूर्ति न हो तो वह कृषि एवं पशुपालन दोनों को एक साथ मिलाकरकर ईको सिस्टम का विस्तार करे।
फोरेस्ट ईकोलोजी को एग्रीकल्चर ईकोलोजी के माध्यम से विकसित करे। इसे एग्रीकल्चर कल्चर्ड ईकोलोजी भी कहा जाता है। यह सनातन धर्म का दैविक रूप है जो प्रकृति निर्मित है, भगवान द्वारा स्थापित और संचालित है।

सनातन धर्म का भौतिक रूप है सामाजिक-आर्थिक-प्रशासनिक व्यवस्थाएं ! 


इस भौतिक जगत में अर्थव्यवस्था का आधार तो ईकोसिस्टम आधारित इकोनोमिक्स है ही, साथ ही साथ वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था, कृषि-पषुपालन की अर्थव्यवस्था तथा निर्माण-उद्योग एवं वाणिज्य की अर्थव्यवस्था, तीनों को इस तरीके[पद्धति] से स्थापित किया जाये कि तीनों अर्थव्यवस्थाऐं एक दूसरे की पूरक बनें न कि एक दूसरे पर अतिक्रमण करें। 

सनातन धर्म के ये तीनों रूप ब्रह्म द्वारा संचालित होते हैं, जिसे शिक्षा का धर्म कहा जाता है।
1. ज्ञान   2. विद्या   3. बुद्धि ।
ज्ञान ब्राह्मण परम्परा का विषय है जो एकात्म परम्परा के नाम से भी जाना जाता है। अर्थात् स्वाध्याय करने एवं चिन्तन-मनन करने से ज्ञान स्वतः पैदा होता है। इसे स्मृति परंपरा भी कहा जाता है.

ज्ञान का तात्पर्य होता है गुणों को विकार सहित जानना। यह जानना कि जो स्थिति प्रिय लग रही है वह कितनी उचित या अनुचित है!...जिन कामनाओं को पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है, वे पूरी होने पर किन-किन बिन्दुओं पर हितकारी हैं और किन-किन बिन्दुओं पर अहित करने वाली हैं!... जो वर्तमान है, वह किस भूतकाल का परिणाम है अतः इसका भविष्य क्या होने वाला है!... जो विकास हो रहा है वह किस विषय के विनाश का कारण बनेगा!... इत्यादि कार्य और अकार्य[न किये जाने वाले खोटे कार्य] के भेद को जानना। यानी सभी विरोधाभासी द्विपक्षीय सत्य को जानना ज्ञान कहा जाता है, जिसे धर्म-अधर्म का ज्ञान भी कहा जाता है। जब सिद्धान्तों/Principles का व्यावहारिक उपयोग किया जाता है तभी सिद्धान्त काम के हैं। 

जब हम सिद्धान्तों/Theories का प्रयोग रचनात्मक कार्य में करते हैं तो वह विद्या कहलाती है और जब सिद्धान्त का रूप सूत्र/Formulas,समीकरण/equations,कारक/factors,अंकीय आंकड़े/numeric data हो जाते हैं तब उनका व्यवहार में उपयोग/Use in practice करते हैं तो वह बुद्धि कहलाती है।

इस तरह धर्म का ज्ञान तभी सनातन धर्म के रूप में माना जायेगा जब हम सिद्धान्तों का प्रयोग-उपयोग करें। इससे भी आगे बढ़कर यह तथ्य बनता है कि कब, कहाँ, किस सिद्धान्त का योग[प्रयोग-उपयोग] summation practical किस तरह किया जाये यह स्वविवेक ही सनातन धर्म की पालना कहा जायेगा। आज हमारी स्थिति यह है कि सिद्धान्त को हम पुस्तकीय ज्ञान कह कर नकार देते हैं। इसी मानसिकता का परिणाम है भ्रष्टाचार। 

व्यवहार और सिद्धान्त को हमने अलग-अलग कर दिया है इसे सनातन धर्म की हानि कहा जायेगा।
अब इस पूरे विवेचन को सांख्य के सूत्र में बाँधे तो यह है कि सनातन धर्म दो परम्पराओं के योग से बनने पर ही सनातन बनता है।

एक परम्परा है ज्ञान की; दूसरी परम्परा है विद्या एवं बुद्धि की।


ज्ञान की परम्परा को ब्रह्म परम्परा या ब्राह्मण-धर्म कहा गया है। विद्या एवं बुद्धि की परम्परा वेद-परम्परा या वैदिक-धर्म कहा गया है। विद्या की परम्परा निर्माण एवं उत्पादन तथा रचनाधर्मिता की परम्परा है जबकि बुद्धि की परम्परा व्यवसाय एवं व्यवहार की परम्परा है।

ब्राह्मण धर्म एवं वैदिक धर्म दोनों को सम करके जो परम्परा यानी सभ्यता-संस्कृति बनती है वही सनातन बनी रह सकती है। वर्तमान में जो सभ्यता संस्कृति है उसे निकट भविष्य में नष्ट होने से कोई नहीं रोक सकता। क्योंकि आज अज्ञान,अविद्या,अबुद्धि द्वारा विकास के नाम पर विषमता का प्रचार-प्रसार हो रहा है। 

जो परम्परा ज्ञान संबंधी है उसे एकात्म-परम्परा, आत्म-कल्याण की परम्परा और ब्राह्मण धर्म कहा गया है। 


उपर्युक्त शब्द केन्द्रीय अर्थ रखने वाले शब्द हैं। ये दोनों परम्पराऐं एक दूसरे के समानान्तर चलती हैं। सभी धार्मिक सम्प्रदायों में इनका विभाजन है।


जैसे कि प्राकृत-धर्म में बौद्ध एवं जैन नाम से विभाजन है। बुद्ध ने सिर्फ बुद्धि के विकास की बात ही नहीं कही थी बल्कि बोध को भी विकसित करने की बात कही थी जिसका अर्थ सेन्स एवं ज्ञान ही होता है। ब्रह्म को ही प्राकृत भाषा में चेतणा कहा जाता है जिसका हिन्दी में चेतना बना। इसी चेतना के विकास के लिए चेत्यालय विकसित किये गये जहाँ आत्मसंयम योग पर योगारूढ होने के लिए समाधि की स्थिति प्राप्त करने का वातावरण विकसित किया गया।

जैन परम्परा "जिन" के सभी वैज्ञानिक पहलुओं को जानने की परम्परा है। जानने के अन्तर्गत शरीर की उत्पत्ति के तीनों आयाम बताये गये हैं।

पहला आयाम है आत्मा[एटम] से मुदगल[मोलिक्यूल] तत्पश्चात् एककोशीय जीव[एमीनो एसिड्स के जटिल कम्पाउण्ड] की रचना का निर्माण तत्पश्चात पंचइन्द्रीय जीव तक की विकास यात्रा जिसे डारविन ने अपनी खोज के नाम से प्रचारित-प्रसारित किया था तथा जिसे उद्विकास के सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है।
दूसरा आयाम नसियाँ[नर्सरीज] की स्थापना करके वनस्पति, प्राणी और मानव जाति तीनों की संख्याऐं बढ़ाने का उपक्रम करना।
तीसरा जिनालयों के माध्यम से अच्छी नस्ल की मानव जाति की संकर नस्लों का विकास करने के लिए गर्भधारण की प्रक्रिया की सुविधा विकसित करना।
इस तरह इन दोनों मूल प्राकृतिक परम्पराओं में बुद्ध की परम्परा आत्म कल्याण की परम्परा के रूप में प्रचारित-प्रसारित हुई और जैन परम्परा जगत के कल्याण की परम्परा के रूप में विकसित हुई।

कालान्तर में दोनों परम्पराओं के अनुयाईयों ने इन दोनो परम्पराओं के एक दूसरे के पूरक और प्रतिपक्षी भाव को एक दूसरे के विपरीत और विरोधी परम्परा मान लिया क्योंकि तब तक इन परम्पराओं की लगामें राग एवं द्वेष भाव से ग्रसित बणियों के हाथों में आ गई थी। अतः इनमें परस्पर एक दूसरी परम्परा के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास समाप्त हो गया।

तब इन दोनों परम्पराओं का पुनः विभाजन हुआ और तब बौद्ध सम्प्रदाय में हीनयान और महायान तथा जैन सम्प्रदाय में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर नाम से विभाजन हुआ। अर्थात् आत्म कल्याण एवं जगत के कल्याण की परम्पपराऐं चुंकि एक दूसरे की पूरक होती है अतः ये स्वतः बन जाती हैं। 

इसी क्रम में जब पुनः इनमें आपसी श्रद्धा-विश्वास समाप्त हुआ तथा राग-द्वेष पनपा तो फिर इनमें विभाजन हुआ इस तरह ये दोनों परम्पराऐं जड़विहीन हो गईं। 

यही स्थिति ईसाई सम्प्रदाय में हुई। ईसा जब युराल पर्वत से होते हुए कश्मीर पहुंचे तब तक विक्रमादित्य द्वारा स्थापित व्यवस्था का परचम लहराने लगा था और विदेश व्यापार पर रोक लगाने के कारण विदेशी  व्यापारियों के आने का क्रम तो टूट गया था लेकिन ज्ञान अर्थात् सत्य अर्थात् धरातल की यथार्थ वास्तविकता की खोज में ईसा मसीह भारत आये।

यूरोप चुंकि प्राकृतिक सम्पदा यानी देवी सम्पदा से परिपूर्ण नहीं है, इनके मूल पूर्वजों यानी दैत्यों दानवों, राक्षसों और यक्षों ने हमेशा विष्णु अर्थात् प्रकृति की उपासना का विरोध किया है। अतः वहाँ भौतिकवादी मानसिकता है। भौतिक-विज्ञान के माध्यम से, पदार्थ विज्ञान के माध्यम से वे आदिकाल से ही भौतिक स्वर्ग बसाने की बार-बार चेष्टा करते आये हैं और बार-बार वेदों[वैज्ञानिक विद्याओं के साहित्य] को चुरा-चुरा कर भौतिक-विकास करते आये हैं और जगत की प्राकृतिक सम्पदाओं को, सनातन धर्म को हानि पहूँचाते आये हैं। इस क्रम में बार-बार उनका भौतिक विकास ताश के पत्तों से बने महल की तरह ढहता आया है। अगर हमने सन्तुलित व्यवस्था नहीं बनाई तो निकट भविष्य में पुनः ऐसा ही होगा।

ईसा जब भारत से सनातन धर्म को समझ कर उसका यूरोप में प्रचार-प्रसार करने गये तो वहाँ भी उन्होंने आत्म-कल्याण और जगत के कल्याण की परम्पराओं को समानान्तरण स्थापित किया।

चुंकि इनके भौतिकवादी मानसिकता वाले ब्रेन[ब्रह्म] की संरचना ही ऐसी है कि ये समाधी योग को प्राप्त नही हो सकते इसलिए इनके लिए आत्म-कल्याण का बिन्दु बना कन्फेशन[प्रायश्चित, क्षमा याचना] के माध्यम से अपराध स्वीकार करके अपराध बोध से मुक्त होना। 

जगत के कल्याण के लिए ईसा ने वहाँ कृष्ण धर्म की स्थापना की जो उच्चारण दोष के कारण क्रिश्चियन बना। कृष्ण धर्म के रूप में उन्होंने वहाँ की अर्थव्यवस्था के आधार मछलियाँ पकड़ने और समुद्री जीव-जन्तुओं का शिकार करने के स्थान पर पशुपालन को स्थापित किया। यूरोप के ठण्डे वातावरण के अनुरूप उन्होंने भेड़ पालन की परम्परा का प्रचार प्रसार किया।

आत्म कल्याण की परम्परा में अपने ब्रह्म[ब्रेन या चेतना के केन्द्र] को अव्यक्त परम ब्रह्म से जोड़ा जाता है जबकि जगत के कल्याण की परम्परा का आधार ईकोलोजी आधारित ईकोनोमिक्स को स्थापित करना होता है।

ईसाई सम्प्रदाय भी इसी बिन्दु पर दो भागों में विभाजित हुआ और इस्लाम भी इसी बिन्दु पर दो भागों में विभाजित हुआ। एक बिन्दु है परमात्मा के अव्यक्त भाव की उपासना करना, किसी व्यक्त् रूप को सजदा नहीं करना और दूसरा बिन्दु है जगत के व्यक्त स्वरूप में विषमता का नाश और सम की स्थापना यानी धर्म[ईमानदारी] की संस्थापना करना।

ईसा भारत में तब आये थे जब विदेशी व्यापारियों को भारत में आने से विक्रमादित्य ने रोक दिया था और सनातन धर्म के पुनरुद्धार के लिए क्रमबद्ध कार्यक्रम को आनन्द में दोलन करते हुए करने की शुरूआत की थी। 


पैग़म्बर मोहम्मद भारत में तब आये थे जब हर्षवर्धन सनातन धर्म के पुनरोद्धार के लिए संघर्ष कर रहे थे। उस समय तक विक्रमादित्य का विकसित किया गया हरा-भरा भारत तो गुप्तकाल में सोने की चिड़िया बनने के चक्कर में सिर्फ वनविहीन ही हुआ था जबकि ईरान से लेकर अरब तक का क्षेत्र पूरी तरह रेगिस्तान हो गया था। तब पैग़म्बर मोहम्मद भारत से बकरियां गधे एवं ऊँट ले गये थे जो कि पशुपालन अर्थव्यवस्था के रूप में जगत के कल्याण के लिए था। ये ही ऊंट ईरान में और घोड़े अरब में जाकर जबर्दस्त नस्लों के रूप में विकसित हुए। उन्होंने हक़ और बेइमानी के बीच सीमा रेखा खींचने के लिए शरीयत क़ानून बनाया। आत्म कल्याण के लिए अव्यक्त निराकार की उपासना करने को कहा।

ईसा एवं पैग़म्बर मोहम्मद दोनों ने ही अपना आन्दोलन जब स्थापित किया था तब वहाँ के लोग भी प्राकृत स्थिति में थे। फ़र्क सिर्फ इतना ही है कि बुद्ध-महावीर के समय जो प्राकृत वर्ग था वह वनों में रहने वाला था और वनों के ईकोसिस्टम को प्रभावित कर रहा था जबकि ईसा एवं पैग़म्बर ने जिन प्राकृत लोगों में सनातन धर्म की स्थापना का कार्यक्रम चलाया वे या तो संस्कारहीन कबीलाई थे जो आहार के लिए किसी भी सीमा तक छीना-झपटी कर सकते थे या फिर वे अशिक्षित श्रमिक लोग थे जो कुप्रथाओं और मनघड़न्त मान्यताओं में बँधे थे।

पैग़म्बर मोहम्मद जब भारत आये थे तब गुप्तों का पतन हो रहा था और हर्षवर्धन का राज्य सत्ताओं पर विजय का अभियान चल रहा था। पैग़म्बर यरूशलम के आस-पास के क्षेत्र में फैले औद्योगिक साम्राज्य में श्रमिकों के शोषण को भी देख कर आये थे और पूँजीपतियों के द्वारा ब्याज के माध्यम से होने वाले शोषण को भी देख कर आये थे। यही स्थिति उन्होने भारत में आकर भी देखी। वहाँ पर यह शोषण यहूदियों द्वारा हो रहा था और और यहाँ पर गुप्त शासकों और बौद्ध-जैन व्यापारियों के द्वारा हो रहा था। पैगम्बर मोहम्मद ने कुम्भ की धर्म संसद में भी इस बिन्दु को उठाया था।

बुद्धावतार और कल्कि अवतार मुहम्मद साहब के बारे में आप सामाजिक पत्रकारिता में विस्तार से पढ़ चुके होंगे !  यहाँ दशावतार की श्रृंखला के इन अंतिम दो अंशावतारों का पुनः ज़िक्र करने के पीछे कुछ बिंदु हैं।



  • आप यदि कल्कि अवतार का इंतज़ार कर रहे हैं तो यह मानकर चलें कि वह मोहम्मद साहब के रूप में हो चुका। इस तथ्य के लिए भविष्य पुराण में वर्णित कल्कि के आचरण से उनका आचरण मिलता है और यह भी मिलता है कि वह पश्चिम से आयेगा और उस समय के ऋषि[वैज्ञानिक] और मुनि [दार्शनिक] उन्हें अमान्य करेंगे। यह वर्णन भी मिलता है कि वह अपने पूर्ववर्तियों में एक अवतार को अमान्य करेगा,जैसा कि मोहम्मद साहब ने वराह अवतार को अमान्य कर दिया था।
  • मोहम्मद साहब चौदह सौ साल बाद के भविष्य के बारे में बताते हुए,बताने से पहले मुस्कुरा कर चुप हो गए थे। जिसके दो अर्थ द्वेष जनित मानसिकता से निकाले गए हैं। एक अर्थ मुस्लिम सम्प्रदाय से द्वेष करने वालों की मानसिकता से निकला है कि उसके बाद मुस्लिम सम्प्रदाय समाप्त हो जयेगा। दूसरा अर्थ दुनिया से ही द्वेष करने वालों की मानसिकता से निकला है कि दुनिया ही नष्ट हो जाएगी। जबकि उसका अर्थ यह है कि कल्कियुग की समाप्ति और कृतयुग के प्रारम्भ के संधिकाल में नये कल्प का प्रारम्भ होगा और प्रजातंत्र आ जायेगा और वैश्विक व्यवस्था बनेगी। इस अर्थ में पहले के दोनों अर्थ समाविष्ट हो जाते हैं। यानी थोड़ी-बहुत उठापटक अवश्य होगी क्योंकि ब्रह्म सत्य है अतः सोचा हुआ घटित अवश्य होता है।
  • उधर यक्ष प्रजाति भी, जिसने इतनी लम्बी लड़ाई के बाद भी अपनी प्रजाति को बचाये रखा। इनके  विरुद्ध इतने अवतारों के पैदा होने के बाद भी हर अवतार ने इनको जीवन दान दिया। राम ने रावण के बैंकर और फाईनेंसर कुबेर को जीवनदान दिया था। कृष्ण ने इन्हें मारने के स्थान पर दो विकल्प दिए थे या तो जरथ्रुष्ट्र के नेतृत्व में भारत को छोड़ कर जाओ या फिर सनातन धर्म [प्राकृतिक उत्पादन वाले अर्थशास्त्र] को अपना कर मुख्यधारा में आ जाओ। इसी तरह मोहम्मद साहब ने भी अन्त में एक दीवार की ओट में छिपे एक समूह को न सिर्फ छोड दिया था बल्कि एक गधे पर रोटी और पानी लाद कर गधे को उनकी तरफ धकेल दिया था ताकि उनको ईश्वर पर विश्वास हो। तब से ये यक्ष भी एक ऐसे अवतार की प्रतीक्षा में है, जो उन्हें नया जीवन देगा,फिर भी ये यक्ष इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि यह दुनिया ही ईश्वर का साकार रूप है। इनका मानना है कि ईश्वर की दुनिया अलग तरह की है।
  • अभी जो समय चल रहा है इसका एक आयाम प्रजातंत्र है, दूसरा एक आयाम वैचारिक स्वतंत्रता के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और तीसरा एक आयाम वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी सर्वविदित है। अतः आज उस तरह के अवतार की कल्पना अप्रासंगिक है जो चमत्कार के साथ पैदा होते हैं। अर्थात आप जो पत्रकारिता वृति के लेखक हैं उनको चाहिए वे इस बहुआयामी लेखन का अध्ययन वृति [रोजगार] की प्रवृति से मुक्त होकर ,पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर, दिमाग खुला रख कर समग्रता से करें और लेखन से जनक्रांति लाने का प्रयास करे। तब एक सर्वसम्मति बनेगी वही आज का अवतार होगा।

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