Once being the world's master,India is the world's oldest and largest democratic system creater nation. This is not the thing to prance upon forefathers like the way Lucknow's tongawala's call themselves posterity of Nawabs. nor this is the laughing matter at the prancing one, Looking at India's current selfmade predicament. But it the centerpoint(Krishnbindu) to think seriously that instead of leading, why are we trailing today ! In this blog we will analyse on the morality-immorality's past-present-future!

(1)माना कि भारत भी विश्व के अन्य राष्ट्रों की तरह वित्त द्वारा शोषण करने वाली यक्षीय अनुबंध प्रणाली में बंध गया है लेकिन इस का यह अर्थ भी नहीं है कि उद्योग-वाणिज्य की कॉमर्शियल प्रणाली से इतने बँधे रहें कि आहार का उत्पादन करने वाले वर्ग की क्रय-क्षमता ही समाप्त होती जाये और अंततः उद्योग भी ठप हो जाये..

(1) suppose that India, like other nations of the world, is bound by Yakshiya agreement system exploiting by finance. But this does not mean to be hardly bound by the commercial industry system that purchasing power of the food producing class, terminates. And eventually the commercial industry come to a standstill.

(2)कृपया भारत और भारतीयों की तुलना उन देशों से ही करें जहाँ अर्थ-व्यवस्था का मूलाधार प्राकृतिक उत्पादन हो.वैदिक संस्कृत के शब्द "स्वास्ति-सृष्टम" का शब्दानुवाद है "सनातन-धर्म-चक्र" और इसका लेटिन शब्द है "इकोलोजीकल चैनल". भारत में "सनातन धर्मी अर्थ-व्यवस्था पद्धतियाँ" पुनर्स्थापित होनी चाहिए अर्थात "इकोनोमिक्स मस्ट बी इकोलोजी बेस्ड".

(2) Please compare India and Indians to those countries where foundations of The economy is natural production. Vedic Sanskrit word SWAASTI-SRISHTAM's literal translation is "Sanatan Dharma Chakra". It's Latin word is "Ecological Channel." means "the Eternal Righteous-System Practices" must be restored in India. Ie "Economics Must be Ecology-based".

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

सोमवार, 24 सितंबर 2012

वर्तमान के यथार्थ का भविष्य मे चित्रण ! Illustration of the current reality in the future! !

वर्तमान मे जो कुछ भी आप देख-सुन रहे हैं, उसे बड़े लोगों का नाटक कह सकते हैं। 

यह नाटक परिवार नामक संस्था के मुखियाओं से शुरू होता है और राजकीय, ग़ैर-राजकीय, राजनैतिक और गैर-राजनैतिक संस्थाओं से होता हुआ राज्य, राष्ट्र, वाणिज्यिक एवं धार्मिक-साम्प्रदायिक सत्ताओं तक पहुँचता है। प्रत्येक व्यक्ति जो बड़ा बनना चाहता है वह इन तमाम रंगमचों में क्रमशः बड़े से बड़े रंगमंच का बड़े से बड़ा कलाकार बनने की कामना से तथाकथित प्रगति पर अग्रसर होता जाता है। 


ये रंगमंच के कलाकार जब राष्ट्रीय स्तर से भी आगे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने का प्रयास भी करते हैं और पृथ्वी ग्रह नामक क्षेत्र में "वसुधा" नामक कुटुम्ब के रंगमंच तक भी पहुँच जाते हैं तब भी इन रंगमंचों पर   वे वर्तमान को यथार्थ परिप्रेक्ष्य में जानने का प्रयास करने के स्थान पर विभ्रम में जीना पसन्द करते है या समझें उनकी ऊर्धमूलाकार रचना में, जो स्वयं के पैरों से स्वयं के साढ़े तीन हाथ ऊपर जो ब्रह्म रूपी डायरेक्टर बैठा है उसके निर्देष की अवहेलना करके किसी अन्य निर्देशक से निर्देशित होते हैं अतः यथार्थ की तरफ से आँख बन्द करके विभ्रम मे भ्रमित होकर एक दूसरे रंगमचों पर भ्रमण करते रहते हैं। 


एक दूसरे रंगमंचों की समीक्षा करते हुए परस्पर आलोचना, समालोचना करते हुए स्वयं तो इस रंगमंच से चले जाते हैं लेकिन जो सर्वसाधारण साधु (सीधे-सादे) लोग इन का नाटक देखने के लिए मजबूर हैं और टैक्स रूपी टिकट लेकर, अपने परिश्रम से कमाये हुए धन-धान्य को इन्हें कौड़ियों के भाव समर्पित करके इनके नाटक देखने को मजबूर हैं, वे भी एक विभ्रम में जी रहे हैं और इन्हें बड़ा कलाकार मानकर इनके अनुयाई व अंधानुयाई बन जाते हैं।


रंगमंच के इन कलाकारों ने इस वर्तमान का जो भविष्य निर्धारित कर दिया है उसमें दो प्रकार की सम्भावनाएँ बनती हैं।


या तो आप सभी कलाकार जीवन के यथार्थ को समझ कर एकजुट होकर एक सुन्दर वर्गीकृत व्यवस्था का यह ढाँचा स्वीकार कर के सभी वर्गों को स्व का तंत्र बनाने दें.एक दुसरे से जुड़ कर एक बेड़ा बनाएँ जो आँधी-तूफान में भी भव सागर में तैरता रहता है। जबकि जंगी जहाज़ तो डूब जाते हैं।

अतः या तो जनसाधारण एकजुट होकर इन बड़े नाटकीय आचरण वाले कलाकारों को मत का दान नहीं करके अपने स्वयं के प्रतिनिधि चुनकर फिर बेड़े का निर्माण स्वयं करें या फिर एक ऐसे भविष्य के लिए तैयार हो जायें जो इस पृथ्वी ग्रह को डायनासोर युग में धकेलेगा। क्योंकि अबकी बार जो विश्व-युद्ध [राम-रावण युद्ध] होगा और साथ में गृहयुद्ध [महाभारत] मचेगा वह परमाणु हथियारों से होगा और तब आपकी सन्तति को पत्थरों-लकड़ियों से लड़ने लायक भी नहीं रहने देगा।

अपना-अपना बेड़ा बना कर वर्गीकृत प्रशासनिक व्यवस्था बनाना अधिक कठिन नहीं या कहें बहुत सरल है यदि उस व्यवस्था के लिए मानसिक रूप से तैयार हो जायें। इसके लिए हमें एक वैचारिक आन्दोलन शुरू करना होगा। प्रत्येक टीवी चैनल पर चर्चाओं-गोष्ठियों का आयोजन करें जिसमें विद्यार्थियों के साथ नवयुवाओं से लेकर नव बौद्धिक वर्ग से बराबरी की हैसियत (श्रद्धा) से चर्चा करे। जिनके विषय बाँटे जा सकते हैं।


1. धार्मिक-साम्प्रदायिक बिन्दु

2. जीवनयापन से जुड़े आर्थिक बिन्दु
3. धार्मिक वैज्ञानिक बिन्दु
4. राष्ट्रीय सुरक्षा के बिन्दु
5. प्राकृतिक आपदा के बिन्दु
6. क्रीड़ा-मनोरंजन जगत के बिन्दु
7. शिक्षा एवं चिकित्सा के बिन्दु
8. विज्ञान-प्रौद्योगिकी के बिन्दु
9. पारिवारिक-सामाजिक समस्याओं के बिन्दु इत्यादि-इत्यादि।

टीवी चैनल दो वर्गों मे वर्गीकृत हैं। एक वर्ग जो बेहूदा नाटक दिखाता है दूसरा वर्ग जो विषमताओं से जुड़े समाचारों को अधिकाधिक तोड़-मरोड़ कर बताता है।


इन दोनों ही वर्गों के चैनलों को मैं दो वर्गो मे बँटे बिन्दु दूँगा।

वर्तमान में आप लोगों की (यानी नारद होने के नाते आप जो मेरे भाई-बंधुओं की श्रेणी में आते हैं) की स्थिति यह है कि T.R.P. को बढ़ाने के चक्कर में एक तरफ तो आपने बहुत सारे विषय जोड रखे हैं दूसरी तरफ एक-दूसरे के विषयों की भौंडी नकल कर रहे हैं।

जबकि टी.वी. चैनल्स एक ऐसा माध्यम है जिसकी सहायता से हम दूरदराज मे रहने वाले ग्रामीणों तक को शिक्षित कर सकते हैं। यहाँ शिक्षित शब्द को मात्र साक्षरता तक या पाठ्य क्रम में सीमित नहीं करें। शिक्षित होने का मूल तात्पर्य होता है अधिकारों और कर्तव्यों को संयुग्म करके धर्म को स्पष्ट कर सकें, समझा सकें और स्वधर्म को धारण कर के धर्म की सम स्थापना कर सकें। 

वर्त्तमान में शिक्षा के दोनों बिन्दु अपूर्ण हैं। एक बिन्दु है साक्षरता दूसरा बिन्दु है पुस्तकीय जानकारी को रट कर बड़ी डिग्री हासिल करना। अपूर्ण बिन्दुओं को ध्यान में रखकर सांसदों एवं विधायकों के लिये बड़ी डिग्री अनिवार्य नहीं बनाई गई। उसके स्थान पर नैतिक आचरण और मानसिक परिपक्वता को अधिक महत्त्व दिया गया।


लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज का उच्चपदस्थ सत्ताधीश न अपने और न ही जनसाधारण के अधिकारों और कर्तव्यों का संयोग (सम् योग) कर पा रहे है। सभी एक दूसरे के अधिकारों पर अतिक्रमण करने और कर्तव्य को मात्र सैद्धांतिक ज्ञान प्रमाणित करने में लगे हैं।


ऐसी स्थिति मे मीडिया का महत्व कर्तव्य और अधिकार दोनों बिन्दुओं पर बढ़ जाता है। यदि आज का मीडिया वित्तीय सत्ताओं के समक्ष दीन-हीन-कृपण न बने तो वह धार्मिक,राजनैतिक और आर्थिक तीनों सत्ताओं का भला कर सकता है। जबकि आज के हालात में तो यह मुहावरा चरितार्थ होता है कि "नाई की बारात मे सभी ठाकुर।" यानी मीडिया को पैसों से खरीद कर कोई भी धौंस जमा सकता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध से लेकर आज तक पुरी दुनिया मे जो भी उठा-पटक हो रही है, उसमें परदे के पीछे बैठे यक्ष (वित्तेश, कुबेर) मीडिया को माध्यम बनाकर चाहे जिस राष्ट्र में सत्ता बदलवा देते हैं, चाहे जिस राष्ट्र पर आक्रमण करवा देते हैं और फिर उस आक्रमण को मीडिया के माध्यम से सही प्रमाणित भी कर देते हैं।


भारत ब्राह्मण-परम्परा के वर्चस्व वाला क्षेत्र है। आज की स्थिति यह है कि ब्राह्मण (अध्यापक) सरकार के नौकर हैं। ऐसे सरकारी नौकर हैं जिन पर सभी सरकारी और राजनैतिक संस्थाऐं धौंस जमा सकती हैं।

अब ब्राह्मण-वर्ग (बौद्धिक-वर्ग) के रूप में सिर्फ मीडिया ही बचता है। मीडिया यदि साथ देता है तो भारत का ही नहीं, मानव मात्र का ही नहीं, जीव मात्र का भला हो ऐसा एक मॉडल बना कर दुनिया से जाना चाहता हूँ। यह मॉडल कैसा होगा इस पर इस नैतिक राजनीति शीर्षक वाले भाग में प्रस्तावना अनुभाग में विस्तार से बता रहा हूँ।


अभी तो भूमिका अनुभाग में आप भविष्य की संभावना के बारे में सुनें। यदि ऐसा ही चलता रहा तो 2050 से पहले-पहले यह एक दृश्य होगा जिसे रंगमंच की भाषा में सुनें।




एक दृश्य है। सन दो हजार पचास से दो हजार एक सौ के बीच सन कम या अधिक भी हो सकते हैं लेकिन निकट-भविष्य का दृश्य है। 

एक बड़ा सा तालाब है। उसके पास एक अस्सी वर्ष का वृद्ध और आठ दस वर्ष के कुछ बच्चे बैठे हैं। चारों तरफ खण्डहर बिखरे हैं। खण्डहर देख कर लगता है कि वहाँ पहले भव्य अट्टालिकायें रही होगी। 


बीच-बीच में झाड़ियाँ और कुछ पेड़ भी उगे हैं। इक्के-दुक्के लोग इधर-उधर आ जा रहे हैं जिनके हाथों मे जलाने की लकड़ियाँ और इधर-उधर से इकट्ठे किये हुए फल, हरी सब्जियाँ और कुछ इसी प्रकार की सूखी खाद्य सामग्रियाँ हैं। 


उनके कपड़े काफ़ी पुराने और फटे हुए से हैं। ये सभी बच्चे और वृद्ध इस तालाब के पास इसलिए बैठे हैं ताकि उस तालाब पर कोई पशु पानी पीने आये तो वे उसका शिकार कर सकें और आहार जुटा सकें। इस के लिए उनके हाथों में कुछ ऐसे हथियार हैं जो कभी फ़र्नीचर, दरवाज़ों और वाहनों के हिस्से रह चुके हैं।


बालक उस वृद्ध को पूछ रहे हैं :- हाँ तो दादाजी! आप से हमने पूछा था कि अचानक इतने सारे लोग मर कैसे गये तो आपने कहा था 'कभी तसल्ली से पूरी कहानी बताऊँगा'। तो अब हमें बताईये क्या हुआ था ?


वृद्धः- बात बहुत पुरानी है, मेरे बचपन की है। उससे भी पूर्व इसकी शुरूआत दो सौ, तीन सौ वर्ष पहले ही हो चुकी थी।


कुछ यक्ष थे, जो भारत में आये। वे यहाँ पर व्यापार करने लगे। इस काम के लिए उन्होंने मुद्रा नामक यक्षणी को पैदा किया। 


उस यक्षणी का बहुत ही जतन से पालन पोषण किया गया। जब वह युवा हो गई तो चारों तरफ उसी के चर्चे होने लगे। वह सभी को प्रिय लगने लगी। सभी उसे चाहने लग गये तो उन यक्षों ने उस अपनी पुत्री का विवाह ऋण नामक राक्षस से कर दिया। 


ये दोनो ही बहुत मायावी थे। क्योंकि मुद्रा नामक यक्षणी का विवाह ऋण नामक राक्षस से हुआ तो तुरन्त ही उनके एक पुत्र हुआ। उसका नाम था ब्याज। 


यह ब्याज नामक महाराक्षस पैदा होते ही बड़ी तेज़ गति से बढ़ने लगा। यह दिन रात बिना रूके बढ़ता था, फिर ब्याज का ब्याज और फिर उसके ब्याज के रूप मे यह बहुत विस्तार लेने लगा। 


चक्र की गति की तरह बढ़ने वाला चक्रवृद्धि ब्याज तेज़ी से बढ़ता ही गया। इस ब्याज नामक महाराक्षस की यह विशेषता थी कि बड़ा होकर पुनः अपनी माँ मुद्रा तथा अपने पिता ऋण का रूप ले लेता था और फिर उनकी सन्तानों का विस्तार होता जाता। 


इन मुद्रा नामक यक्षणी और ऋण नामक राक्षस और इनका ब्याज नामक पुत्र तीनों मिलकर भारत को और पूरी दुनिया की मानव जाति को खाने लगे। इन की भूख इतनी अधिक थी कि ये चाहे कितना ही खा लेते थे लेकिन इन्हें कभी तृप्ति नहीं मिलती थी। इनकी तृष्णा बनी रहती थी। यहाँ तक की यह ब्याज नामक महाराक्षस तो ऐसा था कि जितना अधिक खाता था उतनी ही अधिक भूख बढ़ती जाती थी। इसकी भूख प्रतिशत के रूप में बढ़ती थी।


इस पूरे यक्ष एवं राक्षस परिवार ने समाज का रूप ले लिया और ऐसी स्थिति पैदा कर दी थी कि जो लोग मानव नाम से जाने जाते थे और जो धरती माता के पुत्र थे, जो धरती से अन्न नामक पुण्य पैदा करते थे उनके उस पुण्य को भी वह ब्याज नामक महाराक्षस छीन कर ले जाता था। तब वह क्षत्रिय किसान जाति जिसके पराक्रम से इतिहास भरा था, वे इस ऋण और ब्याज से त्रस्त होकर आत्महत्याएं करने लगे। 


जब मुद्रा नामक यक्षणी को पैदा करने वाले यक्ष यह देखते कि अब बहुत सारे मानव ग़रीब हो गये हैं तो वे अनुदान नामक एक दानव को उनकी सहायता के लिए भेज देते। 


वे मानव जो कि पहले से ही असहाय हो जाते थे वे दान-अनुदान नामक सहायता लेकर और अधिक असहाय हो जाते और अधिक से अधिक सहायता की इच्छा करने लग जाते। इस तरह मानव इन दानवों, यक्षों और राक्षसों के सामने दीन-हीन-कृपण होता गया।


बच्चों का प्रश्न:- तो क्या वे मानव उन यक्षों एवं राक्षसों का विरोध नहीं करते थे।


वृद्ध:- मानव तो सभी असहाय हो गये थे। उन मानवों की सन्तानें युवा मानव भी उस मुद्रा के प्रति इतने आकर्षित थे कि वे अपने माता-पिता के हित में विरोध नहीं करते थे, बल्कि वे यह कहते हुए सड़कों पर उतर जाते थे कि हमें भी आप अपने समूह में शामिल करो। हमें भी ऐसा काम और ऐसा रोज़गार दो कि हम भी आपकी तरह मुद्रा नामक यक्षणी का साहचर्य प्राप्त कर सकें।


बालक:- तो मुद्रा नामक यक्षणी इतनी आकर्षक थी।


वृद्ध:- हाँ वह बहुत आकर्षक थी। अलग-अलग राष्ट्रों की मुद्रा का रंग-रूप तो अलग-अलग होता था लेकिन उसके आकर्षण से कोई मानव बच नहीं पाता था, क्योंकि मानवों को 
उसमें भगवान दिखने लगा। यहाँ तक कि मानव और युवा मानव सभी की यह स्थिति हो गई थी कि वे धरती माँ को भी इस मुद्रा के आकर्षण में बेचने लग गये। 

जो किसान युवा धरती माँ की कोख (गर्भ) से उपजे अन्न नामक पुण्य को ग्रहण करके युवा हुए वे भी इन यक्षों एवं राक्षसों के सहयोग के लिए बनी सरकार नामक सत्ता में शामिल होकर बहुत सारी मुद्राओं को अपने पास या अपने खाते में जमा कराते लेकिन उस मुद्रा का उपयोग पुण्य उपजाने के लिए, अपनी धरती माँ को हरा भरा करने के लिए नहीं करते थे। अतः धरती मां के स्तन भी सूख गये और उनमें दूध बनना बन्द होता गया।


बच्चे:- फिर क्या हुआ ?


वृद्ध:- फिर धीरे-धीरे एक तरफ तो यक्षों एवं राक्षसों ने 'इण्डस्ट्रीज़' नामक दैत्यों के आकार को बढ़ाना शुरू कर दिया और उन्होंने अधिक दैत्याकार भवन, दैत्याकार यंत्र और वाहन बनाने शुरू कर दिये जो आकाश में भी उड़ते थे तब दूसरी तरफ सभी युवा पुण्य पैदा करने वाले कृषि रोज़गार को छोड़-छोड़ कर बेराज़गार होने लग गये। 


एक तरफ तो बड़े-बड़े यक्ष पैदा हो गये जिनके पास मुद्रा नामक यक्षणियों के बड़े-बड़े हरम थे। जिन्हें बैंक कहा जाता था तो दूसरी तरफ उन्होंने विविध प्रकार के असुर बना लिये थे। जिन्हें बम कहते थे।


बच्चे:- ये असुर कैसे थे ?


वृद्ध:- ये असुर देखने में तो छोटे ही होते थे लेकिन ये एक क्षण में इतने बड़े हो जाते थे कि बड़ी भयानक आवाज करके मर जाते थे लेकिन आसपास की सभी चीज़ों को नष्ट कर देते थे। यक्षों ने जो उद्योग नामक बड़े-बड़े दैत्य बनाये थे उन के द्वारा असुर भी उत्पन्न करते थे। फिर इन असुरों को जब वे हवा में उड़ने वाले लोहे के दैत्याकार पक्षियों से नीचे गिराते तो वहाँ सभी कुछ नष्ट हो जाता था।


बच्चे:- वे ऐसा क्यों करते थे ?


वृद्ध:- यह उनका स्वभाव था। ऐसा करके वे अपने आप को शक्तिशाली प्रमाणित करने की कोशिश करते थे और स्वयं को शक्तिशाली मानने का उनमें भ्रम पैदा हो गया था।


वे सभी शरीर से इतने कमज़ोर हो गये थे कि उन्हें सुख की अनुभूति नहीं होती थी अतः उन्हें यक्षणी के साहचर्य से सुख महसूस करने का भ्रम हो गया था और वे एक-दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण करते रहते थे और मुद्रा के लालच में वे असुरों का और दैत्याकार यंत्रों का निर्माण करके बेचते थे। 


फिर एक दिन ऐसा हुआ कि सभी मानव भी यक्ष, राक्षस, दैत्य, दानव बनकर लड़ने लगे और यक्षणी के प्रभाव में आकर लूटपाट करने लगे और एक दुसरे को मारने लग गए। 


जब मानवों के शव सड़ने लगे तो महामारी फैलने लगी। अन्न की कमी से उनके शरीर कमज़ोर हो गये थे अतः महामारी में फैली बीमारियों का सामना नहीं कर पाये और फटाफट मरते गये।


उनके मरने का एक कारण यह भी था कि वे मुद्रा नामक यक्षणी पर इतने अधिक मोहित रहते थे कि उसी को समर्पित हो गये। उन्होंने इतने बड़े-बड़े मकान तो बनवा लिए लेकिन उन में खाने-पीने का सामान नहीं रखते थे सिर्फ़ सोने-बैठने के फर्नीचरों से मकान भर लेते थे। 


जब आपस मे लड़ाई छिड़ी तो उनके घरों में दो तीन दिनों में ही खाने-पीने का सामान खत्म हो गया और सभी भूखे मरने लगे। 


जहाँ अनाज पड़ा था, वह पड़ा ही रहा क्योंकि आने-जाने और सामान लाने-ले जाने की बड़ी-बड़ी यांत्रिक गाड़ियाँ थी उनके लिए पेट्रोल और डीज़ल नामक तरल पदार्थ होता था उनके गोदामों में विस्फोट हो गये थे। इन विस्फोटों से जहाँ-जहाँ आग लगी उनके प्रमाण तो तुम जहाँ-तहाँ देख ही रहे हो। 


लेकिन एक विस्फोटक उन्होंने ऐसा भी बना लिया था जो मीलों तक का क्षेत्र तबाह कर देता था। उसे परमाणु बम कहा जाता था। वे बम जहाँ-जहाँ गिरे हैं वहाँ तो अब हज़ारों वर्षो तक अन्न तो क्या घास तक पैदा नहीं होगा।


बालक:- ऐसा क्यों किया उन्होने ? वे भी सब मारे गये और हम भी उस विकसित सभ्यता को देखने और उसका सुख भोगने से वंचित रह गये।


वृद्ध:- यह सब इसलिए हुआ कि जो लोग सच्चाई जानते थे उनकी कोई नहीं सुनता था। सारे के सारे मानव यक्ष और राक्षस हो गये थे। 


वे एक दूसरे से अनुबन्ध मे बँधे थे और लड़ाई करने के लिए मजबूर हो गये थे क्योंकि सभी को मुद्रा नामक यक्षणी की आवश्यकता होती थी जो कि उन्हें महीने की महीने उपलब्ध करवाई जाती थी। 


दूसरी बात उन्होंने धरती को भी राष्ट्रों के नाम से बाँट रखा था। सभी योद्धा अपने राष्ट्र की सुरक्षा और दूसरे राष्ट्र पर अतिक्रमण करने को राष्ट्र धर्म मानने लगे थे अतः मानव धर्म नष्ट हो गया था। 


मानव धर्म पर मूर्खों एवं धूर्तों ने कब्जा कर लिया था अतः अजीब-अजीब तरह की पोशाकें पहन कर अजीब-अजीब तरह की बातें करके सभी धर्मगुरू अनुयाईयों के रूप में अपनी ग्राहक संख्या बढ़ाने में लग गये। ये भक्त भी उन्हें मुद्रा नामक यक्षिणियाँ लाकर देते थे।


ऐसा ही राजनीति में था, ऐसा ही समाज में था। पुरुष वैश्य बनने की दौड़ में शामिल हो गये और स्त्रियों का चरित्र वैश्या जैसा हो गया था। लड़कियाँ अपने प्रेमी से विवाह न करके उस यक्ष से विवाह करती थीं जिसके पास मुद्रा नामक यक्षणी होती थी।


सारे बच्चे एक साथ मुँह बिगाड़ कर बोले अजीब मूर्ख लोग थे हमारे पूर्वज, हमें उन पर शर्म आती है।


तो श्रीमान पाठकों/ मतदाताओं/ विद्यार्थियों ! अब आप को निर्णय करना है कि आप वर्तमान की इस स्थिति को ऐसे ही चलने देंगे या आगे आकर कुछ करेंगे ! 


कुछ करने में असमर्थ हैं और स्थिति को बदलने के लिए मतदाता के रूप में आपकी अपने-आप के प्रति श्रद्धा नहीं है, आपकी मानसिक सामर्थ्य, हैसियत, औकात कुछ करने की नहीं है तो आपकी आप जानें !


यदि अपने-आप के प्रति, मानवता के प्रति और भगवान की इन चैरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ अपनी मानव योनी के प्रति श्रद्धा है कि भगवान का सबसे शक्तिशाली और बलवान स्वरूप हम मानव ही है तो आपको चाहिये इस पूरे ताने-बाने (तंत्र) को ही सुव्यवस्थित करें।


इसके लिए आप अपने उस भूतकाल पर भी एक अध्ययनपरक दृष्टि डालें। क्योंकि काल (कल) हम बीते हुए को भी कहते हैं तो काल (कल) हम आने वाले कल को भी कहते हैं। 


जो जीवन चल रहा है वह वर्तमान है जो जीवन पूर्व में था वह कल था और इस जीवन के बाद का जीवन जो मिलेगा वह भी कल ही कहलाता है। 


कल जो कर्म किया था वह आज भोग रहे हैं और आज जो कर्म कर रहे हैं वो कल भोगेंगे। अतः सड़कों पर उतर कर सड़क-छाप बन कर अथवा किसी का अंधानुयायी बनकर जूते खाने और जूते मारने, स्टेज पर जूते उछालने,कपडे उतारने से तो अच्छा है अपने घर परिवार एवं गाँव मोहल्ले से मित्रता शुरू करके अपने-अपने क्षेत्र के ग़ैर राजनैतिक स्थाई प्रतिनिधियों को चुनें। जो आपको यह सूचना दे सकें कि आपके विधानसभा क्षेत्र एवं संसदीय क्षेत्र में किस व्यक्ति को सर्वसम्मति से खड़ा किया गया है ताकि आप उसे मतदान करके जिता सकें। ताकि हम सर्वसम्मति से ऐसी व्यवस्था पद्धति बना कर स्थापित कर सकें जो लम्बे समय तक प्रतिष्ठित रह सके और ब्रह्म द्वारा उपजाये गये, ईश्वर द्वारा भौतिक आधार दिये गये और भगवान द्वारा आकृति प्रकृति मे वर्गीकृत किये गये; इस जीव-जगत को मुद्रा और उसके पतियों [पूंजीपतियों] से तथा उनके पुत्र ऋण और पुत्र-वधु मुद्रा और पौत्र ब्याज से मुक्त और सुरक्षित करने का उपाय हो सके।


हरि ऊँ तत् सत्

आपका  देवर्षि नारद।  

शनिवार, 1 सितंबर 2012

आर्थिक भ्रष्टाचार से मुक्त, भारत वर्ष !

     भारत विश्व का एकमात्र ऐसा राष्ट्र है जिसके अनेक नाम हैं। भारत, इण्डिया, हिन्दुस्तान तो अभी प्रचलन में है ही। राष्ट्र और देश Nation and Country तो सभी राष्ट्रों के लिए काम में लिया जाता है लेकिन वर्ष शब्द सिर्फ भारतवर्ष के पीछे ही लगता है। यही भारत कभी आर्यावर्त भी कहा जाता था तब इन्द्र पद हुआ करता था। इंडिया शब्द, 'इन्द्र' शब्द का अपभ्रंश उच्चारण है।  'इंद्र शब्द का पर्यायवाची शब्द मानसून है। अरबी के शब्द मानसून का अर्थ विशेष हवाएं होता है जिनको वर्षा के लिए वायुदाब बनाने का कारण माना जाता है लेकिन इन्द्र शब्द आर्द्रता का पर्यायवाची है। वर्षा का कारण आर्द्रता पर निर्भर करता है इसीलिए रेगिस्तान और नमी वाले क्षेत्र में वर्षा के औसत में अन्तर होता है।

भारत नाम तो महाभारत-काल में श्रीकृष्ण ने रखा था। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत नाम बाद में रखा गया था, जबकि INDIA पुराना नाम है।

इस तरह यह तथ्य उभरकर आता है कि चाहे नाम जल की आर्द्रता पर हो या भारत नामक अग्नि पर हो नाम के पीछें वैज्ञानिक आधार है यानी इस क्षेत्र में विज्ञान की बहुत गहराई से जानकारी थी। अब कृष्ण शब्द को ही लें| जिसका अर्थ गुरुत्व-आकर्षण बल,चुम्बकीय बल रेखाओं का आकर्षण बल और वे तमाम आकर्षण बल होते है जिनसे सृष्टी और जैविक जगत चलता है। लेकिन आपने गुरुत्वाकर्षण बल के बारे में पढ़ते हुए यह भी पढ़ा होगा कि एक व्यक्ति सेब के पेड़ के नीचे बैठा था और जब सेब नीचे गिरा तो उसने सोचा सेब नीचे ही क्यों गिरा ऊपर क्यों नहीं गया, इस तरह उसने पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की खोज का श्रेय ले लिया। इसी तरह न्यूटन सहित एक विशेष यक्ष जाति के अनेक वैज्ञानिकों ने खोजों का श्रेय ले लिया।जबकि भारत का वैदिक साहित्य और  श्रुति परम्परा के मध्यम से यह ज्ञान सर्व-साधारण को भी था। लेकिन जब से धर्म के विषय ड्रेस-कोड वालों के पास चले गए तब से भारत का बँटाधार हो गया। 

यहाँ कुछ बिंदु सोचने लायक हैं कि जो यूरोपियन लोग भारत को खोजने से पहले समुद्री लुटेरे थे, समुद्री जीवों पर जिनकी अर्थव्यवस्था चलती थी और औरतों को बेचने का रोजगार करते थे और समुद्री जीवों एवं पशुओं की खाल के व् अन्य अवशेषों से बने कपडे पहनते थे; वे अचानक इतने बड़े-बड़े वैज्ञानिक कैसें हो गए !बात दरअसल यह है, जिसे यूरोपियन विद्वान् लोग भी स्वीकार करते हैं कि यह ज्ञान-विज्ञान कहीं से संग्रहित किया हुआ मिला है जो निसन्देह भारत से मिला है। लेकिन विकास की गलत दिशा पकड़ने से वैज्ञानिक ज्ञान का लाभ मानव जाति को मिल नहीं रहा है बल्कि नुकसान हो रहा है। 

जितना ज्ञान-विज्ञान था वह सत्रहवीं और अठारवीं सदी में एक साथ कैसे खोज लिया गया और सभी वैज्ञानिक एक यहूदी जाति-विशेष के क्यों हुए जबकि वह जाति वाणिज्य-व्यापार करने वाली है।

बात इतनी सी है कि आर्थिक भ्रष्टाचार की शुरुआत यहीं से होती है। आप जिसे भ्रष्टाचार कहते हैं वह मात्र रिश्वतखोरी है। रिश्वत दे कर काम करवाना पूंजीपतियों की कार्यप्रणाली का एक आयाम है। 

आज हम शहरीकरण, औद्योगीकरण को विकास की परिभाषा मान कर तथाकथित विकसित राष्ट्रों से सौ वर्ष पीछे चल रहे हैं। लेकिन वनस्पति साम्राज्य, प्राणी साम्राज्य और मानव साम्राज्य की विभिन्न प्रजातियों के वैज्ञानिक विकास के परिप्रेक्ष्य में हम विश्व में सभी राष्ट्रों से हजारों युगों से आगे हैं। 

जहाँ तक प्रश्न भौतिक यंत्रों के विकास का है, तो इतना जानना ही पर्याप्त होगा कि इससे कई गुणा अधिक यांत्रिक विकास इस पृथ्वी पर हो-हो कर नष्ट हो चुका है। जबकि भारतीय संस्कृति सनातन बनी रहती है।क्योंकि हमने विज्ञान में धर्म का यानी science में sanse का योग  करने वाली सभ्यता संस्कृति का विकास कर रखा है इसीलिए यह सनातन बनी रहती है।

अहिरावण ने समुद्र में नगरी बसाई थी, जिसको नष्ट नहीं किया गया था। हनुमान के पुत्र, मकरध्वज को वहाँ का शासक बना दिया था। आज भी वहाँ से उड़नतश्तरी आती है जिसे यू.एफ़.ओ कहा जाता है। 

आज ही नहीं, हमेशा से भारतीय मनीषी, इस तरह के विकास का विरोध करते रहे हैं। विरोध का बिंदु  विकास का विरोध नहीं है, विरोध का बिंदु है आर्थिक भ्रष्टाचार; जिसका प्रमुख माध्यम मौद्रिक भ्रष्टाचार [मुद्रा के माध्यम से भ्रष्टाचार] होता है और जब आप मुद्रा के मोहपाश में बंध जाते हैं तो नैतिकता सिर्फ शब्दकोश का शब्द बनकर रह जाता है। 


आपने राक्षस रावण के भाई यक्ष कुबेर का नाम सुना होगा,जिसका खजाना कभी भी खाली नहीं होता क्योंकि मुद्रा जब मुद्रणालय Printing press में छापी जा सकती हो तो उस खजाने को कौन खाली कर सकता है। उस मुद्रा के ऋण के ब्याज और फिर ऋण के माध्यम से किये गए विकास की कीमत पारिस्थिकी चक्र यानी सनातन धर्म चक्र, जैविक चक्र और प्राकृतिक उत्पादक वर्ग का सत्यानाश करके चुकानी पड़े तो विरोध स्वाभाविक हो जाता है। 

प्राकृत भाषा में धातु की मुद्रा के लिए पण शब्द उपयोग होता है। आपने जैन साहित्य में पणी शब्द भी पढा होगा, जिनका भारत में विरोध किया जाता था। पण या पणी का उपयोग करने वालों को पणिये कहा जाने लगा। जैसा कि अनेक बार दोहरा चुका हूँ कि संस्कृत के शब्द; ब्राह्मी और प्राकृत भाषा के शब्दों को संस्कारित करके भाषा-विज्ञान के नियमों में बांधे गए है। पण से ही पैसा और वाणिज्य शब्द विकसित हुए हैं और कालांतर में पणिये शब्द से ही बणिये,बाणिये और बनिये शब्द बने हैं। यह विडम्बना कही जायेगी कि जिस जैन साहित्य में पण का प्रचलन करने वाले पणियों का विरोध हुआ आज उसी जैन-सम्प्रदाय के अनुयायी बनिये हैं।


अतः आज यदि आर्थिक भ्रष्टाचार मुक्त भारत चाहिए तो उसकी प्रथम और अंतिम परिभाषा, पारिस्थितिकी चक्र और जैविक उत्पादक वर्ग को सुरक्षित करके उत्पादक वर्ग की क्रय क्षमता बढ़ाने के विषय में निर्णय लेना, होनी चाहिए। 


लेकिन चूँकि सब कुछ तहस-नहस हो चुका है। पतन का मूल्यांकन नैतिकता के मापदंड से होता है और आप अपने-आप से पूछें तो आप यह सच्चाई सीधे-सीधे स्वीकार नहीं करेंगे बल्कि एक तर्क गूंजेगा कि सभी ऐसे ही हैं, सभी ऐसा ही करते हैं, सभी ऐसा ही मानते हैं इत्यादि। अब जब सभी लोग अनैतिक आचरण सहजता से अपना रहे हैं तो नैतिकता की परिभाषा भी अपने-अपने तर्कों पर आश्रित हो गयी है। अतः अब नैतिक समाज का निर्माण करने के लिए व्यवस्था के प्रत्येक आयाम को बदलना होगा, जिसमें राजनैतिक के साथ-साथ सामाजिक संरचना, धार्मिक मान्यताएँ, साम्प्रदायिक संरचना, जीवन-शैली, प्रशासनिक प्रणाली इत्यादि एक लम्बी सूची है।      

हम सब-कुछ एक साथ नहीं बदल सकते जबकि यह भी सत्य है कि क्रमबद्ध आंशिक बदलाव भी करें तब भी सब-कुछ नही बदल सकते अब तो इसका एक ही तरीका है कि नए भारत की संरचना पूर्ण नैतिक मापदण्ड के साथ की जाये।

नैतिकता के मापदण्ड का पैमाना यही होता है कि व्यक्ति के शरीर कि प्रकृति के अनरूप उसकी मानसिक प्रवृति होती है और जैसी प्रवृति होती है वैसी ही वृति को व्यक्ति अवश हुआ चुनता है। अतः शिक्षा, क्रीड़ा, मनोरंजन इत्यादि के विषयों के चुनाव से लेकर रोज़गार तक के सभी विषयों को अपनी अभिरुचि के अनुसार चुनने की स्वतंत्रता और सुविधा प्रत्येक व्यक्ति को मिलनी चाहिए। 


यह तभी सम्भव होगा जब आर्थिक आधार भगवान के व्यवसाय [ सनातन धर्म चक्र ] पर निर्भर हो और नए सिरे से उसके अनुरूप जीवन-शैली और साथ-साथ वैसी ही शिक्षा-परीक्षा और प्रयोगशाला प्रणाली को पुनः प्रतिष्ठित की जाये, जो उस वर्गीकृत विशेष जीवन शैली के अनुरूप हो। 


इसके लिए आवश्यक है वर्गीकृत भारत बना कर पहले चरण में भारत के प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे वह आदिवासी,ग्रामीण और शहरी जन-साधारण हो या विभिन्न प्रकार की सत्ताओं के सत्ताधीश हों सभी को आभाव मुक्त किया जाये फिर उस भारत का वैश्विक विस्तार किया जाये।

भारत की परिभाषा को राष्ट्र की सीमारेखा में नहीं बाँधें बल्कि भारत शब्द की परिभाषा है वह भूमि जहाँ प्राणी-मात्र की जठराग्नि को पर्याप्त आहार मिले और वनस्पति-मात्र को प्रकाश-संश्लेषण के लिए पर्याप्त जीवनकाल मिले और वनस्पति और प्राणी दोनों साम्राज्य भावों का सम आदान-प्रदान करते हों। राष्ट्र का नाम चाहे कुछ भी हो भूमि-पुत्र, पृथ्वी-पुत्र पार्थ को आभावग्रस्त किये बिना सभी के भावों का विस्तार हो।


भाव जो कि ब्रेन से उत्सर्जित होने वाला चुम्बकीय बल रेखाओं का विस्तार होता है वह अपने आयतन का अनन्त तक विस्तार कर सकता है फिर भी वह किसी अन्य के ब्रह्म की विस्तार सीमा पर अतिक्रमण भी नहीं करता है। अतः जीत के लिए किसी अन्य को जीतना नहीं पड़े बस अपने आप को जीतना ही पर्याप्त होता हो।

अतः भ्रष्टाचार मुक्त की परिभाषा यह बनाना चाहिए, "जहाँ कोई भी अभावग्रस्त नहीं हो"; तब उस समाज पर नैतिकता का राज सम्भव हो पायेगा।  
  

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

19. आप मुझे मान्यता दें मैं आपको प्रजातांत्रिक व्यवस्था का स्वर्ग बना कर दूँगा !

 जैसा कि बार-बार दोहरा रहा हूँ कि इस ब्लॉग श्रृखला के माध्यम से में सांख्य-योग बताने जा रहा हूँ| सांख्य शब्द के अंतर्गत ये सभी शब्द आ जाते हैं; सिद्धांत, समीकरण, सूत्र, सांख्यकी, आंकड़े, प्रिंसिपल, तकनीक, तरीका इत्यादि का ज्ञान| Theory, Theoretically, Principled, Doctrine, Intransigent, Platonic, Equational, Formula, Original Concepts, idea, Vision, Perspective, 
Outlook, maxim, law, rule, motto, etc का ज्ञान लेकिन जब तक हम सांख्य का योग अर्थात प्रयोग-उपयोग करना नहीं जानते सांख्य का ज्ञान न सिर्फ व्यर्थ है बल्कि दुःख का कारण बन जाता है|

मैं उन सभी लोगों से क्षमा चाहता हूँ जो धार्मिक-अवतारों और धार्मिक साहित्य को लेकर पूर्वाग्रहग्रस्त हैं। पूर्वाग्रहग्रस्त लोग दो वर्गों में वर्गीकृत होते हैं। मैं उन सभी लोगों से क्षमा चाहता हूँ जो धार्मिक-साहित्य से राग-अनुराग रखते हैं अतः उनके पीछे की वैज्ञानिक सच्चाई जाने बिना ही अन्धानुयायी बन कर, आँख बंद करके भ्रम में भ्रमण करते हैं और उनसे भी क्षमा चाहता हूँ जो धार्मिक साहित्य से द्वेष रखते हैं अतः उसमें लिखे सत्य को जानने से पहले ही अस्वीकार कर देते हैं। अतः मैं उनसे भी क्षमा चाहता हूँ जो धर्म के नाम पर अतिवादी, कट्टरवादी और अन्धानुयायी होते हैं। उनसे भी क्षमा चाहता हूँ जो धर्म के नाम पर बिदक जाते हैं और धर्म के विषय में कुछ भी जानना उनके लिए हास्यास्पद आचरण है। मैं उनसे भी क्षमा चाहता हूँ जो धर्म के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं।

अभी एक लेख पढ़ा था जिस में लेखक ने लिखा है कि अब कल्कि अवतार की आवश्यकता है। कल्कि अवतार के बारे में अनेक प्रकार की अवधारणायें हैं। लेकिन मैं यदि नेताजी सुभाष बोस की भाषा में कहूँ कि 'आप मुझे मान्यता दें मैं आपको प्रजातांत्रिक व्यवस्था का स्वर्ग बना कर दूँगा'। तो क्या आप इस बात को स्वीकार करने की मनोस्थिति बना सकते हैं ? यदि हाँ तो आप यह स्वीकार करने की बौद्धिक क्षमता अवश्य रखते होंगे कि कृष्णावतार एक ग्वाला थे। ईसा मसीह गडरिये[भेड़ पालक] थे। पैगम्बर मोहमद एक रेबारी[ऊँट,बकरी पालक] थे। बुद्ध एवं महावीर आदिवासी थे। परशुराम वन संरक्षक थे और वहीं से आदिवासी से ब्राह्मण बनने की परंपरा की शुरुआत अर्थव्यवस्था में दखल देने से हुई। हलधर बलराम किसान थे। श्रीराम एक योद्धा थे। सभी अवतारों ने अपने अपने समय के काल स्थान परिस्थिति के अनुरूप तप किया था। जादू किसी के पास नहीं था।

जब राजाशाही होती है तो एक राजा का मंत्री बन कर या संपर्क करके उससे मंत्रणा करके जनहितकारी व्यवस्था को बलपूर्वक अंजाम दिया जा सकता है। लेकिन आज प्रजातंत्र है। प्रजातंत्र के अनुरूप ही वर्त्तमान की परस्थितियों में कोई अवतार अवतरित होगा। आप मुझे सर्वसम्मति दे सकने वाली निर्दलीय संसद बना कर दें। मैं एक पत्रकार की तरह आपको वह डिज़ाइन बना कर दूंगा जो सर्वमान्य होगी। बिना किसी हिंसक क्रान्ति के एक क्रमबद्ध कार्यक्रम दूँगा जो आनंद में दोलन करते हुए चलने वाला होगा। बुद्ध, महावीर, परशुराम, बलराम, ईसा, मोहम्मद, गोपालक गोपाल इत्यादि पूजनीय नहीं बल्कि आदर्श पुरुष थे। उसी रूप में उन्हें पुनर्स्थापित किया जायेगा। संस्कृत में आदर्श दर्पण, Mirror को भी कहा जाता है। आपका आदर्श उसे कहा जायेगा जिसमे आप अपनी छवि देखते हैं क्योंकि उसके जैसा बनना चाहेंगे।

इन्होंने जिन सम्प्रदायों की स्थापना की थी वे सभी सनातन धर्म की सुरक्षा,संरक्षण,संवर्धन और विस्तार के हेतू थे। इन्होंने सांख्य का योग किया था।

यह तथ्य भी मैं बार-बार दोहरा रहा हूँ कि सनातन धर्म धार्मिक वैज्ञानिक भाषा संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ होता है अनवरुद्ध, अविराम, निरंतर चलने वाला चक्र, जिसे लेटिन में ईकोलोजी कहा जाता है।विडम्बना यह है कि जो ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, जैन अथवा अन्य किसी सम्प्रदाय के हैं और वे अपने सम्प्रदाय से राग-अनुराग रखने के कारण अन्य सम्प्रदायों से द्वेष रखते हैं वे 'सनातनधर्म' शब्द को हिन्दू धर्म की शाखा समझने की त्रुटी कर सकते हैं। जो हिन्दूधर्म के नाम से धर्म की ठेकेदारी करते हैं उनमें जो अग्रणी हैं उन्होंने कृषिकर्म क्षेत्र, वनक्षेत्र और वनों में रहने वाले आदिवासियों को सिर्फ चित्रों और अखबारों में ही देखा है। वे शहरों में रहने वाले, भारी उद्योगों के समर्थक और पूंजी का खेल यानी जुआ खेलने वाले, राम और गाय को सिर्फ राजनीति का हथियार मानाने वाले हैं। अतः इन साम्प्रदायिक मानसिकता वालों के भरोसे सनातन धर्म की रक्षा के समर्थन में आगे आने की सम्भावना कम ही लग रही है।

जैसा कि मैं एक पत्रकार की भूमिका में बार-बार दोहरा रहा हूँ कि राष्ट्र,सम्प्रदाय और क्षेत्र को लेकर कभी भी विश्वयुद्ध और गृहयुद्ध की सम्भावना बन सकती है उसका एक नमूना अभी म्यांमार,बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच फँसे पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों के साथ जो हुआ और हो रहा है वह देख ही रहे हैं। अब भी आप यदि अपनी चेतना को जागृत नहीं करते हैं तो भारत को बचाने कोई भी अवतार पैदा होने वाला नहीं है। क्योंकि अवतार भी तभी पैदा होता है या उतरता है जब प्रार्थना[Appeal] करेंगे। जबकि आज जनसाधारण, जिनको गीता में साधु कहा गया है और उनकी रक्षा में सृजन की बात कही गयी है वह तो खुद धर्म के धर्म के विरुद्ध आकांक्षाएँ पाले बैठा है तब अवतार कैसे सम्भव है। ऐसी स्थिति में तो प्रकृति अवतार के रूप में नहीं सुनामी के रूप में अपना सृजन भले ही करले।

यदि आप जनसाधारण के रूप में भारत को स्वर्ग बनाने हेतु स्वयं प्रयास करते है और स्वर्ग के लिए राजनीति में खुद लड़ने के लिए आगे आते हैं और सक्रिय होकर अपने क्षेत्र का जनप्रतिनिधि दलीय राजनीति से ऊपर उठकर चुनते हैं तो मैं कहता हूँ...

आप मुझे मान्यता दें। मैं सनातन धर्म की पुनर्स्थापना करके आपके भारत को विश्वगुरु भारत बना कर दूँगा, सोने की चिड़िया भारत बना कर दूँगा और विश्व का अग्रणी भारत बना कर दूँगा। बस आप मुझे सिर्फ निर्दलीय संसद बना कर दे दें, जहाँ सर्व सम्मति बन सके। 


सोमवार, 20 अगस्त 2012

18. तुलसी के राम vs अकबर के कृष्ण और गाँधी का रामराज्य !

     राम-रावण के बीच युद्ध को सोलहवीं शताब्दी की रचना तुलसीकृत रामचरितमानस में एक विशेष दृष्टिकोण दे दिया गया है।

छठी शताब्दी में जब वर्गीकृत भारत को पुनः व्यवस्थित कर दिया गया था तब धनुर्धारी श्री राम राजपूतों के आदर्श एवं अनुकरणीय पुरुष थे, पृथ्वीराज चाहवान ने स्वप्न [स्व-पन] में अपने आप को कौशल्या के पुत्र के रूप में आशीर्वाद लेते हुए देखा था। 

ग्रामीण भारत में हलधर बलराम और गौपालक कृष्ण आदर्श एवं अनुकरणीय पुरुष थे, गाँवों को धनधान्य से और दूध,दही,मक्खन से संपन्न बना दिया था जहाँ हर आँगन में कृष्ण-बलराम खेलते थे; आज की तरह सिर्फ पत्थरों से बने भवनों में प्रस्तर-प्रतिमाओं के रूप में और दीवारों पर टंगे हुए प्रतीकों के रूप में नहीं थे। 

इसी तरह वर्षावनों वाले भारतवर्ष में फरसाधारी परशुराम आदर्श एवं अनुकरणीय पुरुष थे जो वनों की रक्षा करने के लिए ब्राह्मण होते हुए भी नरसंहार कर देते थे।

मुग़लों के स्थापित होने के बाद जब अकबर ने कृष्ण चरित्र को अपने आचरण में धारण करने का मंसूबा बनाया तो कृष्ण की रासलीला के माध्यम से बताई गयी एक सौ आठ परमाणुओं की संरचनाओं के वैज्ञानिक अर्थ को अकबर समझ नहीं पाया था क्योंकि यह उसका विषय भी नहीं था। इस विषय को तो यूरोपियन लोग समझने में सफल हुए थे जब कि अकबर ने तो इस रासलीला को अपनी हरम रखने वाली संस्कृति के अनुकूल पाया।

कहावत है कि जैसा राजा-वैसी प्रजा। अकबर के शासन काल में राम का आचरण अपनाने वाले राजपूत भी बहुत से विवाह करने लग गए, तो लोलुप लोगों ने भी बहते पानी में हाथ धोना शुरू कर दिया। ऐसी स्थिति में तुलसी ने रामचरितमानस में राम-सीता के एक पत्नी-एक पति धर्म की मानसिकता वाले आदर्श चरित्र को ही विशेष तौर पर उभारा था।

बाल्मीकि रामायण के राम-रावण, तुलसी रचित रामचरितमानस के राम रावण से सिर्फ अलग ही नहीं थे बल्कि घटना की पृष्ठभूमि ही अलग थी। यहाँ दो संस्कृतियों, दो राष्ट्रों, दो व्यवस्था पद्धतियों के बीच की नीतियों का टकराव था। यह वशिष्ठ और रावण के बीच, इन्द्र और रावण के बीच, अगस्त्य और रावण के बीच, विश्वामित्र और रावण के बीच परम्पराओं एवं नीतियों का टकराव था।

आज औद्योगिक-विकास से ही विकास का मापदंड निर्धारित होता है। भले ही इससे सनातन धर्म चक्र/ Ecological cycle नष्ट हो रहा हो, मानवीय जीवनशैली अमानवीय बनती जा रही हो, प्रदूषित नगरों में एक बड़ा वर्ग दयनीय स्थिति में रह रहा हो; लेकिन हम अपने राष्ट्र के अरबपतियों की गिनती और गगनचुम्बी इमारतों की ऊँचाई से गदगद हो जाते हैं। 

कुछ ऐसी ही स्थिति उस समय हो गई थी जब एक तरफ रावण की सोने की लंका थी तो दूसरी तरफ लकड़ी से बने साधारण भवनों में रहने वाले दशरथ थे। भले ही वे आज के ताशकंद[जहाँ उस समय का तक्षशिला विश्वविद्यालय था] से लेकर फारस की खाड़ी से प्रशांत महासागर तक के एक छत्र सम्राट थे।

भले ही उनके नैतिक मूल्य धन-धान्य से संपन्न भारत के लिए आदर्श स्थापित करने वाले थे, लेकिन जनता तो जनता है, उसे तो रावण की ईश्वर भोगी जीवन-शैली ही आकर्षक लग रही थी। इसी आकर्षण से आज का जीवन भी नारकीय[नकारात्मक मानसिकता वाला }होता जा रहा है, जनता की इसी मानसिकता के कारण भारत में वशिष्ठ ने पहली बार नैतिक-राज के स्थान पर राजनीति शब्द का उपयोग किया था। वशिष्ट ने नीतिराज वाले भारत में प्रथम राजनीति-शास्त्र रचा जिसका पहला वाक्य था 'राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है'। 

यही राजनीति महाभारत काल में आते-आते कूट-नीति हो गयी। अभी जो स्थिति है उसमें नीति नहीं अनीति पर चलने वालों की फ़तह /जीत हो रही है। अधर्म /ग़ैर संवैधानिक कार्य करने वालों का उत्थान हो रहा है और धर्म यानी नैतिक मूल्यों के प्रति ग्लानी भाव आ गया है। अतः आज भारत में ब्रह्म का सृजन होना अवश्यम्भावी है।

आज जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तो इसका अर्थ यह भी है कि ब्राह्मण वर्ग यानी बौद्धिक वर्ग स्वतन्त्र है।अतः हमें इस विषय पर विवेचना करनी चाहिए कि आख़िर नीति-अनीति की परिभाषा का आधार क्या हो ? गीता में तो यहाँ तक कहा है कि "प्रारब्ध के निर्माण के लिए पाँच हेतु [निमित्त] होते हैं।-
 (1) अधिष्ठान  (2) कर्ता  (3) तरह-तरह के करण  (4) विविध प्रकार की चेष्ठाएँ  (5) देव। ये पाँचों हेतू जब सती होते हैं (परस्पर जुड़ते हैं) तब प्रारब्ध का निर्माण होता है। 

इसके आगे यह भी कहा है कि चाहे न्याय संगत हो या अन्याय संगत जब पांचों हेतु सती होते हैं तभी प्रारब्ध का निर्माण होता है। इस वाक्य का अर्थ है कि यह संविधान और न्याय-व्यवस्था मानव का अपना स्वअनुष्ठित धर्म है; मुझ भगवान का, कुदरत का बनाया कानून नहीं है। अतः मैं इस पचड़े में नहीं पड़ता कि पाँचों हेतु न्याय संगत सति हुए हैं या अन्याय का सहारा लिया गया है। लेकिन यह सुनिश्चित है कि प्रारब्ध का निर्माण तो तभी होगा जब पाँचों हेतु सति होंगे।

इस तरह जब एक व्यक्ति अपने प्रारब्ध का निर्माण करता है तो वह न्याय[संवैधानिक नियम इत्यादि] को नहीं देखता, अन्याय[रिश्वत, परिचय, ऊपर से आया हुआ दबाव इत्यादि] का सहारा भी ले लेता है। अतः जब हम व्यवस्था में पदासीन व्यक्तियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हैं तो यह बस खुद के प्रारब्ध का निर्माण करने के लिए उठाया गया मुद्दा ही होता है। अतः हमें चाहिए कि हम निर्धारित करें कि नैतिकता की परिभाषा क्या हो! और उस आधार पर वैसी परिभाषा क्यों हो! इसीलिए हमें चाहिए कि हम काल के उस रूप को जानें, जो पुनरावर्तित होकर बार-बार दिन और रात की तरह हमारे सामने आता है। इस तरह-

भूत का मान + वर्त्तमान का यथार्थ मान = भविष्य के  निर्माण का मापदंड। यानी जब दो संख्याओं का मान पता हो और गणना करना आता हो तो तीसरी संख्या का मान निकाला जा सकता है।

जब हम भूत में हुई भूल का अवलोकन करके + वर्त्तमान का यथार्थ अध्ययन + नीति, नीत, नीयत निधारित करके, उसे धारण करके उसपर चलते हैं तो = हमारी योजनायें-परियोजनाएं हमें अपने लक्ष्य से मिला ही देती हैं। हमारी नीयत अगर कल्याणकारी होती है तो वह नियति बन कर हमें अवश करके लक्ष्य की तरफ धकेलती हुई लक्ष्य तक पहुँचा देती है, क्योंकि "जीतने वालों की मैं नीति हूँ।"

लेकिन आजकल जो चल रहा है उसमें राजा के स्थान पर बैठे राजनीतिज्ञों की नीयत ही जब रचनात्मक कार्यों को करने के स्थान पर एक दूसरे को पटखनी देने की है तो भारत की नियति[प्रारब्ध] का निर्माण गृहयुद्ध की तरफ धकियाये जाने का हो गया है।

इस तरह बात घूम फिर कर फिर वहीं आ जाती है कि हमें यदि ऐसी व्यवस्था बनानी हो कि जिसमें प्रारब्ध के निर्माण हेतु अन्याय का सहारा न लेना पड़े; तो उसका प्रथम और अंतिम एकमात्र तरीका है कि इस जलेबी कूद को तो छोड़ें और एक किनारे से नए भारत का निर्माण करें जहाँ हम एक ऐसी सामाजिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक संरचना बनाएं जहाँ रहने का अर्थ होगा मानव मात्र 'स्व के अर्ग' में संतुष्ट रहते हुए ऐसा जीवन जिए जिसमें न तो किसी को अन्याय का सहारा लेने की आवश्यकता पड़े और न ही किसी को अन्याय सहने की सहनशीलता की परीक्षा देनी पड़े।

रोज़गार के रूप में उस कार्य को करने की स्वतंत्रता और स्वाधीनता हो जिस कार्य में कर्ता को आत्म-संतुष्टि हो, कॉमर्शियल कामनाएँ जहाँ पैदा ही न होने पाएँ।

यह व्यवस्था भारत में ही सम्भव है जहाँ अर्थ[धन] की व्यवस्था वाली Economics, जीवन के अर्थ [meaning, sense,signification] की व्यवस्था वाली Ecology और अर्थ[पृथ्वी] पर एक समान व्यवस्था 
वाली Global economy के तीनों अर्थों को सम किया जा सकता है अर्थात जब हम भारत में स्वर्ग स्थापित करके विश्व को भी आर्थिक लाभ देते रहेंगे और जहाँ के निर्माण आधारित अर्थशास्त्र को भी संकट में आने से 
बचाते रहेंगे तो फिर क्यों तो महाभारत जैसे गृहयुद्ध होंगे और क्यों ही रामायण जैसे विश्वयुद्ध होंगे।

लेकिन चूँकि मानव चौरासी लाख योनियों[प्रजातियों,नस्लों] को पार करके, क्रमिक विकास करके आया है अतः हमारे अन्दर श्वान प्रजाति के गुण और विकार भी संग्रहित है। अतः यह भी हो सकता है कि आजकल की हमारी प्रजाति में रचनाधर्मिता के गुण के स्थान पर श्वान प्रजाति का गुण इतना हावी हो गया है कि हमारी नियति में लड़कर मरना,सड़क दुर्घटनाओं में मरना इत्यादि यानी कुत्ते की मौत मरना ही लिखा है तो जैसा चलता है चलने दो। क्यों नये भारत को बसाने की, रामराज्य को लाने की पंपाळ करें।

अभी-अभी एक घटना घट रही है। म्यामार में बांग्लादेशी मुस्लिम समुदाय पर हमला हुआ और उन्हें म्यामार से निष्कासित कर दिया गया। यह काम बौद्ध सम्प्रदाय के लोगों ने किया। अब यदि बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के परिप्रेक्ष में लें तो प्रथम बिंदु तो यही हो जाता है कि यह हिंसा है जो कि बुद्ध द्वारा बताये आचरण के विरूद्ध है, दूसरा बिंदु लें तो वह मुस्लिम समुदाय आदिवासी पहले हैं, मुस्लिम बाद में अतः इस साम्प्रदायिक हिंसा की शरुआत ही अधार्मिक है। उसके बाद भारत के मुस्लिम समुदाय को पाकिस्तान में बैठे साम्प्रदायिक राष्ट्रवादियों ने उकसाया और भारतीय मुस्लिम इस उकसावे में आ गये। अभी यह जो स्थिति है वह तो शायद सम्भाल ली जायेगी लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या हम अपनी धोती सम्भालने में ही लगे रहेंगे या कुछ स्थायी समाधान भी करेंगे !

लेकिन मुद्दे की बात यह है कि यदि हम राष्ट्र, सम्प्रदाय और दलीय राजनीति से ऊपर, मानवीय स्तर ऊँचाई पर उठ कर देखें और साथ ही साथ जमीन पर खड़े होकर मानवीय धरातल पर आंकलन करें यानी एक दूसरे को आहत करने के लिए हवा में तीर छोड़ना बंद करके यानी इस बिंदु पर बचकाने दर्शन से मुक्त होकर, समग्र दृष्टिकोण से देखें तो सच्चाई वही ढाक के तीन पात है।

पहली सच्चाई है उन आदिवासियों का पेट यानी भूख। दूसरी सच्चाई है सम्प्रदायों और राष्ट्रों के नाम पर छिछोरी मानसिकता और तीसरी सच्चाई है दलीय राजनीति के कारण विश्व को गवर्न करने वाले विश्व गुरु भारत के राजनेताओं का उस मीडिया द्वारा गवर्न होना जिस मीडिया की मानसिकता सिर्फ टी आर पी में बँधी हुयी रहती है। भारत की राजनीति और मीडिया क्षुद्र लालच में बँधे हैं। अतः यदि गाँधी की कल्पना से भी बहुत परे सच्चा रामराज्य चाहते हैं तो उसका एक मात्र तरीका है एक नये वर्गीकृत किन्तु अखंड महाभारत का निर्माण जहाँ के बहुवर्गीय समाज को नीतियाँ संचालित करें न कि क्षुद्र मानसिकता। 

17. बुद्धावतार एवं कल्कि अवतार का वर्त्तमान में झगड़ा !

सनातन धर्म का मानसिक [ आध्यात्मिक ] रूप !


अवतार के विषय को विस्तार देने से पूर्व यह एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य पुनः पुनः बताते जाना आवश्यक ही नहीं अतिआवश्यक है। क्योंकि प्रतेक तथ्य और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में धर्म की स्थिति उसी तरह बदल जाती है जिस तरह त्रिआयामी/Three-dimensional, त्रिकोणीय/Triangular रचना में एक आयाम के बदलते ही अन्य दोनों आयाम स्वतः प्रभावित होते हैं| लेकिन इसका सनातन सिद्धांत कभी नहीं बदलता।

आपने भगवान कृष्ण का एक चित्र देखा होगा जिसमे वे तीन-तीन डोरियों से तीन व्यक्तियों को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं। भूमि पर धन की तीन ढेरियाँ पड़ी है। एक व्यक्ति जो रजो प्रवृति का है वह उन तीनों ढेरियों को अपनी तरफ खींचता है,तामसी प्रवृति वाला उस के कार्य को रोकने का असफल प्रयास कर रहा होता है जबकि सात्विक प्रवृति वाला निर्विकार देख रहा होता है।


ये तीन तरह की प्रवृतियाँ सनातन मानवीय आचरण है अतः यह एक मूर्खतापूर्ण अवधारणा है कि पहले तो इन्सान वैसा था आज ऐसा है। इंसान हमेशा से तीन शारीरिक प्रकृतियों से वशीभूत हुआ इन तीन मानसिक प्रवृतियों का होता आया है। चूँकि यह विज्ञान का विषय है इसलिए तत्व की गुणधर्मिता से जुड़ा है अतः इस पर खानपान से नियंत्रण रखा जा सकता है। मैं पत्रकार की श्रद्धा/हैसियत से इतना ही कह सकता हूँ कि इस बिंदु पर जब तक नियंत्रण नहीं किया जाता तब तक हम रज की प्रवृति से मुक्त होकर लड़ने-झगड़ने, उठा-पटक वाली राक्षस प्रवृति से मुक्त नहीं हो सकते। अतः इसका एक मात्र तरीका है एक ऐसी व्यवस्था पुनः बनायी जाये जिसमे व्यवहार को आहार से नियंत्रित करने की तकनीक [विद्या] का उपयोग सामाजिक मान्यताओं के साथ जीवन शैली में प्रतिष्ठित हो। 


सनातन धर्म का दैविक रूप है नैसर्गिक प्रकृति !


‘‘सनातन‘‘  संस्कृत शब्द है। "अन-अवरूद्ध या सतत प्रक्रिया" हिन्दी शब्द है तथा 'Non-dis-continued' 'Un-blocked continuous process' अंग्रेज़ी शब्द हैं। तीनों समानार्थी शब्द हैं। सनातन Eternal धर्म का ज्ञान अर्थात पारिस्थितिकी[Ecology] विषयान्तर्गत आने वाले सभी आयामों की जानकारी।

सनातन धर्म की रक्षा यानी पारिस्थितिकी[ईको सिस्टम] का विस्तार अर्थात् जब वनोत्पादन से मानव जाति के लिए आवश्यकता जितने पौष्टिक आहार की आपूर्ति न हो तो वह कृषि एवं पशुपालन दोनों को एक साथ मिलाकरकर ईको सिस्टम का विस्तार करे।
फोरेस्ट ईकोलोजी को एग्रीकल्चर ईकोलोजी के माध्यम से विकसित करे। इसे एग्रीकल्चर कल्चर्ड ईकोलोजी भी कहा जाता है। यह सनातन धर्म का दैविक रूप है जो प्रकृति निर्मित है, भगवान द्वारा स्थापित और संचालित है।

सनातन धर्म का भौतिक रूप है सामाजिक-आर्थिक-प्रशासनिक व्यवस्थाएं ! 


इस भौतिक जगत में अर्थव्यवस्था का आधार तो ईकोसिस्टम आधारित इकोनोमिक्स है ही, साथ ही साथ वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था, कृषि-पषुपालन की अर्थव्यवस्था तथा निर्माण-उद्योग एवं वाणिज्य की अर्थव्यवस्था, तीनों को इस तरीके[पद्धति] से स्थापित किया जाये कि तीनों अर्थव्यवस्थाऐं एक दूसरे की पूरक बनें न कि एक दूसरे पर अतिक्रमण करें। 

सनातन धर्म के ये तीनों रूप ब्रह्म द्वारा संचालित होते हैं, जिसे शिक्षा का धर्म कहा जाता है।
1. ज्ञान   2. विद्या   3. बुद्धि ।
ज्ञान ब्राह्मण परम्परा का विषय है जो एकात्म परम्परा के नाम से भी जाना जाता है। अर्थात् स्वाध्याय करने एवं चिन्तन-मनन करने से ज्ञान स्वतः पैदा होता है। इसे स्मृति परंपरा भी कहा जाता है.

ज्ञान का तात्पर्य होता है गुणों को विकार सहित जानना। यह जानना कि जो स्थिति प्रिय लग रही है वह कितनी उचित या अनुचित है!...जिन कामनाओं को पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है, वे पूरी होने पर किन-किन बिन्दुओं पर हितकारी हैं और किन-किन बिन्दुओं पर अहित करने वाली हैं!... जो वर्तमान है, वह किस भूतकाल का परिणाम है अतः इसका भविष्य क्या होने वाला है!... जो विकास हो रहा है वह किस विषय के विनाश का कारण बनेगा!... इत्यादि कार्य और अकार्य[न किये जाने वाले खोटे कार्य] के भेद को जानना। यानी सभी विरोधाभासी द्विपक्षीय सत्य को जानना ज्ञान कहा जाता है, जिसे धर्म-अधर्म का ज्ञान भी कहा जाता है। जब सिद्धान्तों/Principles का व्यावहारिक उपयोग किया जाता है तभी सिद्धान्त काम के हैं। 

जब हम सिद्धान्तों/Theories का प्रयोग रचनात्मक कार्य में करते हैं तो वह विद्या कहलाती है और जब सिद्धान्त का रूप सूत्र/Formulas,समीकरण/equations,कारक/factors,अंकीय आंकड़े/numeric data हो जाते हैं तब उनका व्यवहार में उपयोग/Use in practice करते हैं तो वह बुद्धि कहलाती है।

इस तरह धर्म का ज्ञान तभी सनातन धर्म के रूप में माना जायेगा जब हम सिद्धान्तों का प्रयोग-उपयोग करें। इससे भी आगे बढ़कर यह तथ्य बनता है कि कब, कहाँ, किस सिद्धान्त का योग[प्रयोग-उपयोग] summation practical किस तरह किया जाये यह स्वविवेक ही सनातन धर्म की पालना कहा जायेगा। आज हमारी स्थिति यह है कि सिद्धान्त को हम पुस्तकीय ज्ञान कह कर नकार देते हैं। इसी मानसिकता का परिणाम है भ्रष्टाचार। 

व्यवहार और सिद्धान्त को हमने अलग-अलग कर दिया है इसे सनातन धर्म की हानि कहा जायेगा।
अब इस पूरे विवेचन को सांख्य के सूत्र में बाँधे तो यह है कि सनातन धर्म दो परम्पराओं के योग से बनने पर ही सनातन बनता है।

एक परम्परा है ज्ञान की; दूसरी परम्परा है विद्या एवं बुद्धि की।


ज्ञान की परम्परा को ब्रह्म परम्परा या ब्राह्मण-धर्म कहा गया है। विद्या एवं बुद्धि की परम्परा वेद-परम्परा या वैदिक-धर्म कहा गया है। विद्या की परम्परा निर्माण एवं उत्पादन तथा रचनाधर्मिता की परम्परा है जबकि बुद्धि की परम्परा व्यवसाय एवं व्यवहार की परम्परा है।

ब्राह्मण धर्म एवं वैदिक धर्म दोनों को सम करके जो परम्परा यानी सभ्यता-संस्कृति बनती है वही सनातन बनी रह सकती है। वर्तमान में जो सभ्यता संस्कृति है उसे निकट भविष्य में नष्ट होने से कोई नहीं रोक सकता। क्योंकि आज अज्ञान,अविद्या,अबुद्धि द्वारा विकास के नाम पर विषमता का प्रचार-प्रसार हो रहा है। 

जो परम्परा ज्ञान संबंधी है उसे एकात्म-परम्परा, आत्म-कल्याण की परम्परा और ब्राह्मण धर्म कहा गया है। 


उपर्युक्त शब्द केन्द्रीय अर्थ रखने वाले शब्द हैं। ये दोनों परम्पराऐं एक दूसरे के समानान्तर चलती हैं। सभी धार्मिक सम्प्रदायों में इनका विभाजन है।


जैसे कि प्राकृत-धर्म में बौद्ध एवं जैन नाम से विभाजन है। बुद्ध ने सिर्फ बुद्धि के विकास की बात ही नहीं कही थी बल्कि बोध को भी विकसित करने की बात कही थी जिसका अर्थ सेन्स एवं ज्ञान ही होता है। ब्रह्म को ही प्राकृत भाषा में चेतणा कहा जाता है जिसका हिन्दी में चेतना बना। इसी चेतना के विकास के लिए चेत्यालय विकसित किये गये जहाँ आत्मसंयम योग पर योगारूढ होने के लिए समाधि की स्थिति प्राप्त करने का वातावरण विकसित किया गया।

जैन परम्परा "जिन" के सभी वैज्ञानिक पहलुओं को जानने की परम्परा है। जानने के अन्तर्गत शरीर की उत्पत्ति के तीनों आयाम बताये गये हैं।

पहला आयाम है आत्मा[एटम] से मुदगल[मोलिक्यूल] तत्पश्चात् एककोशीय जीव[एमीनो एसिड्स के जटिल कम्पाउण्ड] की रचना का निर्माण तत्पश्चात पंचइन्द्रीय जीव तक की विकास यात्रा जिसे डारविन ने अपनी खोज के नाम से प्रचारित-प्रसारित किया था तथा जिसे उद्विकास के सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है।
दूसरा आयाम नसियाँ[नर्सरीज] की स्थापना करके वनस्पति, प्राणी और मानव जाति तीनों की संख्याऐं बढ़ाने का उपक्रम करना।
तीसरा जिनालयों के माध्यम से अच्छी नस्ल की मानव जाति की संकर नस्लों का विकास करने के लिए गर्भधारण की प्रक्रिया की सुविधा विकसित करना।
इस तरह इन दोनों मूल प्राकृतिक परम्पराओं में बुद्ध की परम्परा आत्म कल्याण की परम्परा के रूप में प्रचारित-प्रसारित हुई और जैन परम्परा जगत के कल्याण की परम्परा के रूप में विकसित हुई।

कालान्तर में दोनों परम्पराओं के अनुयाईयों ने इन दोनो परम्पराओं के एक दूसरे के पूरक और प्रतिपक्षी भाव को एक दूसरे के विपरीत और विरोधी परम्परा मान लिया क्योंकि तब तक इन परम्पराओं की लगामें राग एवं द्वेष भाव से ग्रसित बणियों के हाथों में आ गई थी। अतः इनमें परस्पर एक दूसरी परम्परा के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास समाप्त हो गया।

तब इन दोनों परम्पराओं का पुनः विभाजन हुआ और तब बौद्ध सम्प्रदाय में हीनयान और महायान तथा जैन सम्प्रदाय में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर नाम से विभाजन हुआ। अर्थात् आत्म कल्याण एवं जगत के कल्याण की परम्पपराऐं चुंकि एक दूसरे की पूरक होती है अतः ये स्वतः बन जाती हैं। 

इसी क्रम में जब पुनः इनमें आपसी श्रद्धा-विश्वास समाप्त हुआ तथा राग-द्वेष पनपा तो फिर इनमें विभाजन हुआ इस तरह ये दोनों परम्पराऐं जड़विहीन हो गईं। 

यही स्थिति ईसाई सम्प्रदाय में हुई। ईसा जब युराल पर्वत से होते हुए कश्मीर पहुंचे तब तक विक्रमादित्य द्वारा स्थापित व्यवस्था का परचम लहराने लगा था और विदेश व्यापार पर रोक लगाने के कारण विदेशी  व्यापारियों के आने का क्रम तो टूट गया था लेकिन ज्ञान अर्थात् सत्य अर्थात् धरातल की यथार्थ वास्तविकता की खोज में ईसा मसीह भारत आये।

यूरोप चुंकि प्राकृतिक सम्पदा यानी देवी सम्पदा से परिपूर्ण नहीं है, इनके मूल पूर्वजों यानी दैत्यों दानवों, राक्षसों और यक्षों ने हमेशा विष्णु अर्थात् प्रकृति की उपासना का विरोध किया है। अतः वहाँ भौतिकवादी मानसिकता है। भौतिक-विज्ञान के माध्यम से, पदार्थ विज्ञान के माध्यम से वे आदिकाल से ही भौतिक स्वर्ग बसाने की बार-बार चेष्टा करते आये हैं और बार-बार वेदों[वैज्ञानिक विद्याओं के साहित्य] को चुरा-चुरा कर भौतिक-विकास करते आये हैं और जगत की प्राकृतिक सम्पदाओं को, सनातन धर्म को हानि पहूँचाते आये हैं। इस क्रम में बार-बार उनका भौतिक विकास ताश के पत्तों से बने महल की तरह ढहता आया है। अगर हमने सन्तुलित व्यवस्था नहीं बनाई तो निकट भविष्य में पुनः ऐसा ही होगा।

ईसा जब भारत से सनातन धर्म को समझ कर उसका यूरोप में प्रचार-प्रसार करने गये तो वहाँ भी उन्होंने आत्म-कल्याण और जगत के कल्याण की परम्पराओं को समानान्तरण स्थापित किया।

चुंकि इनके भौतिकवादी मानसिकता वाले ब्रेन[ब्रह्म] की संरचना ही ऐसी है कि ये समाधी योग को प्राप्त नही हो सकते इसलिए इनके लिए आत्म-कल्याण का बिन्दु बना कन्फेशन[प्रायश्चित, क्षमा याचना] के माध्यम से अपराध स्वीकार करके अपराध बोध से मुक्त होना। 

जगत के कल्याण के लिए ईसा ने वहाँ कृष्ण धर्म की स्थापना की जो उच्चारण दोष के कारण क्रिश्चियन बना। कृष्ण धर्म के रूप में उन्होंने वहाँ की अर्थव्यवस्था के आधार मछलियाँ पकड़ने और समुद्री जीव-जन्तुओं का शिकार करने के स्थान पर पशुपालन को स्थापित किया। यूरोप के ठण्डे वातावरण के अनुरूप उन्होंने भेड़ पालन की परम्परा का प्रचार प्रसार किया।

आत्म कल्याण की परम्परा में अपने ब्रह्म[ब्रेन या चेतना के केन्द्र] को अव्यक्त परम ब्रह्म से जोड़ा जाता है जबकि जगत के कल्याण की परम्परा का आधार ईकोलोजी आधारित ईकोनोमिक्स को स्थापित करना होता है।

ईसाई सम्प्रदाय भी इसी बिन्दु पर दो भागों में विभाजित हुआ और इस्लाम भी इसी बिन्दु पर दो भागों में विभाजित हुआ। एक बिन्दु है परमात्मा के अव्यक्त भाव की उपासना करना, किसी व्यक्त् रूप को सजदा नहीं करना और दूसरा बिन्दु है जगत के व्यक्त स्वरूप में विषमता का नाश और सम की स्थापना यानी धर्म[ईमानदारी] की संस्थापना करना।

ईसा भारत में तब आये थे जब विदेशी व्यापारियों को भारत में आने से विक्रमादित्य ने रोक दिया था और सनातन धर्म के पुनरुद्धार के लिए क्रमबद्ध कार्यक्रम को आनन्द में दोलन करते हुए करने की शुरूआत की थी। 


पैग़म्बर मोहम्मद भारत में तब आये थे जब हर्षवर्धन सनातन धर्म के पुनरोद्धार के लिए संघर्ष कर रहे थे। उस समय तक विक्रमादित्य का विकसित किया गया हरा-भरा भारत तो गुप्तकाल में सोने की चिड़िया बनने के चक्कर में सिर्फ वनविहीन ही हुआ था जबकि ईरान से लेकर अरब तक का क्षेत्र पूरी तरह रेगिस्तान हो गया था। तब पैग़म्बर मोहम्मद भारत से बकरियां गधे एवं ऊँट ले गये थे जो कि पशुपालन अर्थव्यवस्था के रूप में जगत के कल्याण के लिए था। ये ही ऊंट ईरान में और घोड़े अरब में जाकर जबर्दस्त नस्लों के रूप में विकसित हुए। उन्होंने हक़ और बेइमानी के बीच सीमा रेखा खींचने के लिए शरीयत क़ानून बनाया। आत्म कल्याण के लिए अव्यक्त निराकार की उपासना करने को कहा।

ईसा एवं पैग़म्बर मोहम्मद दोनों ने ही अपना आन्दोलन जब स्थापित किया था तब वहाँ के लोग भी प्राकृत स्थिति में थे। फ़र्क सिर्फ इतना ही है कि बुद्ध-महावीर के समय जो प्राकृत वर्ग था वह वनों में रहने वाला था और वनों के ईकोसिस्टम को प्रभावित कर रहा था जबकि ईसा एवं पैग़म्बर ने जिन प्राकृत लोगों में सनातन धर्म की स्थापना का कार्यक्रम चलाया वे या तो संस्कारहीन कबीलाई थे जो आहार के लिए किसी भी सीमा तक छीना-झपटी कर सकते थे या फिर वे अशिक्षित श्रमिक लोग थे जो कुप्रथाओं और मनघड़न्त मान्यताओं में बँधे थे।

पैग़म्बर मोहम्मद जब भारत आये थे तब गुप्तों का पतन हो रहा था और हर्षवर्धन का राज्य सत्ताओं पर विजय का अभियान चल रहा था। पैग़म्बर यरूशलम के आस-पास के क्षेत्र में फैले औद्योगिक साम्राज्य में श्रमिकों के शोषण को भी देख कर आये थे और पूँजीपतियों के द्वारा ब्याज के माध्यम से होने वाले शोषण को भी देख कर आये थे। यही स्थिति उन्होने भारत में आकर भी देखी। वहाँ पर यह शोषण यहूदियों द्वारा हो रहा था और और यहाँ पर गुप्त शासकों और बौद्ध-जैन व्यापारियों के द्वारा हो रहा था। पैगम्बर मोहम्मद ने कुम्भ की धर्म संसद में भी इस बिन्दु को उठाया था।

बुद्धावतार और कल्कि अवतार मुहम्मद साहब के बारे में आप सामाजिक पत्रकारिता में विस्तार से पढ़ चुके होंगे !  यहाँ दशावतार की श्रृंखला के इन अंतिम दो अंशावतारों का पुनः ज़िक्र करने के पीछे कुछ बिंदु हैं।



  • आप यदि कल्कि अवतार का इंतज़ार कर रहे हैं तो यह मानकर चलें कि वह मोहम्मद साहब के रूप में हो चुका। इस तथ्य के लिए भविष्य पुराण में वर्णित कल्कि के आचरण से उनका आचरण मिलता है और यह भी मिलता है कि वह पश्चिम से आयेगा और उस समय के ऋषि[वैज्ञानिक] और मुनि [दार्शनिक] उन्हें अमान्य करेंगे। यह वर्णन भी मिलता है कि वह अपने पूर्ववर्तियों में एक अवतार को अमान्य करेगा,जैसा कि मोहम्मद साहब ने वराह अवतार को अमान्य कर दिया था।
  • मोहम्मद साहब चौदह सौ साल बाद के भविष्य के बारे में बताते हुए,बताने से पहले मुस्कुरा कर चुप हो गए थे। जिसके दो अर्थ द्वेष जनित मानसिकता से निकाले गए हैं। एक अर्थ मुस्लिम सम्प्रदाय से द्वेष करने वालों की मानसिकता से निकला है कि उसके बाद मुस्लिम सम्प्रदाय समाप्त हो जयेगा। दूसरा अर्थ दुनिया से ही द्वेष करने वालों की मानसिकता से निकला है कि दुनिया ही नष्ट हो जाएगी। जबकि उसका अर्थ यह है कि कल्कियुग की समाप्ति और कृतयुग के प्रारम्भ के संधिकाल में नये कल्प का प्रारम्भ होगा और प्रजातंत्र आ जायेगा और वैश्विक व्यवस्था बनेगी। इस अर्थ में पहले के दोनों अर्थ समाविष्ट हो जाते हैं। यानी थोड़ी-बहुत उठापटक अवश्य होगी क्योंकि ब्रह्म सत्य है अतः सोचा हुआ घटित अवश्य होता है।
  • उधर यक्ष प्रजाति भी, जिसने इतनी लम्बी लड़ाई के बाद भी अपनी प्रजाति को बचाये रखा। इनके  विरुद्ध इतने अवतारों के पैदा होने के बाद भी हर अवतार ने इनको जीवन दान दिया। राम ने रावण के बैंकर और फाईनेंसर कुबेर को जीवनदान दिया था। कृष्ण ने इन्हें मारने के स्थान पर दो विकल्प दिए थे या तो जरथ्रुष्ट्र के नेतृत्व में भारत को छोड़ कर जाओ या फिर सनातन धर्म [प्राकृतिक उत्पादन वाले अर्थशास्त्र] को अपना कर मुख्यधारा में आ जाओ। इसी तरह मोहम्मद साहब ने भी अन्त में एक दीवार की ओट में छिपे एक समूह को न सिर्फ छोड दिया था बल्कि एक गधे पर रोटी और पानी लाद कर गधे को उनकी तरफ धकेल दिया था ताकि उनको ईश्वर पर विश्वास हो। तब से ये यक्ष भी एक ऐसे अवतार की प्रतीक्षा में है, जो उन्हें नया जीवन देगा,फिर भी ये यक्ष इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि यह दुनिया ही ईश्वर का साकार रूप है। इनका मानना है कि ईश्वर की दुनिया अलग तरह की है।
  • अभी जो समय चल रहा है इसका एक आयाम प्रजातंत्र है, दूसरा एक आयाम वैचारिक स्वतंत्रता के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और तीसरा एक आयाम वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी सर्वविदित है। अतः आज उस तरह के अवतार की कल्पना अप्रासंगिक है जो चमत्कार के साथ पैदा होते हैं। अर्थात आप जो पत्रकारिता वृति के लेखक हैं उनको चाहिए वे इस बहुआयामी लेखन का अध्ययन वृति [रोजगार] की प्रवृति से मुक्त होकर ,पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर, दिमाग खुला रख कर समग्रता से करें और लेखन से जनक्रांति लाने का प्रयास करे। तब एक सर्वसम्मति बनेगी वही आज का अवतार होगा।

शनिवार, 18 अगस्त 2012

16.. द्वापर का अन्तिम चरण और कृष्ण अवतार ! The Last Phase of Dwapara and Krishna Avatar !

     अब आते हैं गण राज्यों के आदर्श नायक कृष्ण-बलराम पर। कृष्ण के समय में भी यही स्थिति थी जो आज है। कृषक, पशुपालक और वनोत्पादन पर आश्रित जनसमुदाय अभावग्रस्त और शहरी जनसमुदाय ईश्वर भोगी हो गया था। चारागाह समाप्त हो गये थे और गौ-नस्लें कमज़ोर हो गई थीं। उस समय जिस एक गाँव, जिसकी अर्थ-व्यवस्था दस हजार गायों पर निर्भर थी, उस नन्द गाँव के मुखिया के घर कृष्ण और बलराम बड़े हो रहे थे।

कृष्ण बाल सेना के साथ जब गायें चराने जाते थे तो चारागाह छोटा पड़ता था। कृष्ण एक तरफ बलराम के नैतृत्व में बाल सेना को वृक्षारोपण तथा चारागाह विकास में लगा देते। खुद, अंगिरस परम्परा के गुरू घोर अंगिरस के पास समाधि-योग और अन्य सिद्धियों का अभ्यास करते थे। 

ये घोर अंगिरस जैन तीर्थंकरों में नेमीनाथ नाम से महिमा मण्डित हैं।

 जब कृष्ण ने पर्वत यानी मेरू को हराभरा पर्वत अर्थात सुमेरू बनाया तो उस क्षेत्र में अन्य क्षेत्रों की तुलना में अच्छी वर्षा होने लगी। बाँसुरी वादन से गायों के हारमोनी में रहने के परिणामस्वरूप गायें अच्छा दूध देने लगीं। 


जब बाक़ी स्थानों पर अकाल जैसे हालात थे और नन्द गाँव में हरियाली थी और गायें अच्छा दूध देती थी,तो उस समय के ऋषि(वैज्ञानिक) एवं मुनि(दार्शनिक) दूर-दूर से उस की सच्चाई को जानने आने लगे थे।

कृष्ण ने इन्द्र को हराया और इन्द्र पद को समाप्त किया। क्योंकि उस समय के इन्द्र पद का पदाधिकारी सुरापान (शराब-सेवन) करने वाला ऐयाश हो गया था। कृष्ण ने कहा था वर्षा इस इन्द्र के हाथ में नहीं है, जब तुम्हारे मेरू (पर्वत) सुमेरू (हरे भरे पर्वत) होंगे तो वर्षा अपने आप आयेगी। 


अब इन पौराणिक घटनाक्रमों को अधिक विस्तार नहीं देकर इतना ही बताना चाहता हूँ कि जिस भारतवर्ष में अर्थात् पृथ्वी के जिस क्षेत्र में वर्षा के वार्षिक चक्र से भरण-पोषण की भरपूर सामग्री पैदा होती है, उस भारत-वर्ष की सीमा कभी केस्पियन सागर से शुरू होती थी| लेकिन बार-बार के औद्योगिक विकास और भौतिकवादी सभ्यता संस्कृति के विकास के कारण पूरा पश्चिम एशिया रेगिस्तान होता गया और भारतवर्ष की पश्चिमी सीमा रेखा सिन्धु घाटी तक सिकुड़ गई। वह भारत वर्ष अब भी यदि शहरीकरण एवं औद्योगिकरण को विकास की परिभाषा इसी तरह मानता रहा और आधुनिक साधनों का उपयोग करके हरे-भरे गणराज्य विकसित नहीं किये तो आर्थिक कारणों से होने वाले अबकी बार के विश्वयुद्ध के बाद मानव जाति पत्थरों एवं लाठियों से युद्ध करने लायक भी नहीं रहेगी। क्योंकि तब डायनोसोर युग आयेगा। यदि इस स्थिति से भारत को बचाना है तो सनातन धर्म की कम से कम भारत में तो रक्षा कीजिये।

अब यदि इतना जान लेने के बाद भी,आप अवतार की कल्पना अन्यथा अर्थ में करते हैं तो आप की आप जानें लेकिन प्रजातंत्र में अवतार इसी तरह की सामूहिक हित की योजना के रूप में पैदा होगा,जैसी योजना मैं आपको दे रहा हूँ। 

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

15. Beginning of the Republic of India ! गणराज्य भारत की शुरुआत !

      महाभारत कथा की शुरुआत दुष्यंत और शकुन्तला के गन्धर्व विवाह से होती है।
      वन में भ्रमण को निकले दुष्यन्त को नव राजुस्वला नारी के शरीर की गन्ध आती है और वह उसका पीछा करते करते एक आश्रम में पहूँचता है। जहाँ उसे शकुन्तला मिलती है और आश्रम के सरक्षक की अनुपस्थिति में  दोनों में प्रणय सम्बन्ध बन जाते हैं।
       दुष्यन्त के चले जाने पर शकुन्तला अनमनी सी बैठी होती है और अपने संरक्षक ऋषि के आने पर भी वह उनके आने की आहट सुनकर सचेत नहीं होती है और स्वागत के लिए खड़ी नहीं होती तब उस ऋषि को शंका होती है और वह उसे श्राप दे देता है कि तूं जिसकी स्मृति में इतनी एकाग्रचित्त है वह तुझे भूल जायेगा।
       ऐसा ही होता है और आश्रम में ही उस एक प्रणय का देवता भरत पैदा होता है। भरत आश्रम में रह कर ही बड़ा होने लगता है। एक दिन वह वन में ही एक सिंह के शावकों के दांत गिन रहा होता है तब वहाँ से गुजर रहे पथिक दुष्यंत के पास यह समाचार पहुंचाते है।
      यह वह समय था जब एक तरफ तो राम द्वारा स्थापित भारतराष्ट्र था तो दूसरी तरफ भारत का धर्म क्षेत्र भारतवर्ष था लेकिन ब्राह्मण और वैदिक दोनों परम्पराओं का समन्वय हो चुका था।लेकिन वह समन्वय ज्ञान-विज्ञान में था यानी वन-क्षेत्र में गुरुकुलों और आश्रमों में वशिष्ठ और विश्वामित्र परम्पराएं एक दुसरे की पूरक बन गयी थी|
      लेकिन आर्थिक-प्रशासनिक विषय में एक तरफ वर्षा वनों वाले साम्राज्य के लिए, इंद्र पद के लिए घमासान होता था तो दूसरी तरफ नगरों में रहने वाले नागरिक शक्तिहीन और बलहीन हो गए थे। ऐसी स्थिति में वन में परवरिश प्राप्त वीर बालक भरत कौतुहल का विषय बन गया था। लेकिन श्रापित स्थिति में दुष्यंत पहचान नहीं पाया, जब शकुन्तला ने प्रमाण के लिए प्राप्त मुद्रिका दिखाई तब वह पहचान पाया। 
      भरत के राज्याभिषेक के बाद भरत ने नागरिकों में आई नपुंसकता को महसूस किया और यह नियम बनाए कि राजा का चुनाव क्रीडा प्रतिस्पर्धा,शक्ति प्रदर्शन और जनमत से होगा। The choice of the king to sports competition, will power performance and public opinion. इसी के साथ भारत को गणराज्यों में बाँट दिया पंचायती राज व्यवस्था शुरू की गयी। India is divided into the republics of the Panchayati Raj system was introduced.जब पांडव और कौरव जो कि एक ही परिवार के थे उन्होंने शक्ति प्रदर्शन और क्रीडा प्रतिस्पर्धाएं शुरू की तो पांडवों के,विशेषकर अर्जुन के दिमाग में युद्ध का चित्र नहीं था।When the Pandavas and the Kauravas were of the same family that started the power, performance and sports events of the Pandavas, especially Arjuna's mind was not a picture of the war.लेकिन चूँकि दुर्योधन ने राष्ट्र वादियों से सामरिक समझोते कर रखे थे और भीष्म सहित सभी राष्ट्र के वेतन भोगी थे।अतः सभी की धृति राष्ट्र में बंधी थी।But the strategic agreement with litigants Duryodhana had put the nation and all nations, including Bhishma were salaried. So all tenure was bound in the nation.
    लेकिन पांच पांडव पंचायती राज व्यवस्था के समर्थक थे और उन्होंने कहा कि हमें पांच गाँव ही दे दिये जाएँ।But the five Pandavas, who was a supporter of the PRI system that gave us the five-country visit.इसी बात पर महाभारत नामक गृह युद्ध हुआ। Called the Mahabharata thing similar Civil War. 
यह वह समय था जब देत्य,दानव,राक्षस बोलकर कोई नस्ल भेद नहीं रह गया था अतः यहाँ पर जब कृष्णावतार हुए तब एक नए नाम का सृजन हुआ,सुर-असुर।This was the period when Dety, Monster, Monster saying apartheid was no longer there, so here's the new name was created when Krishnawatar, sur - Asur।