Once being the world's master,India is the world's oldest and largest democratic system creater nation. This is not the thing to prance upon forefathers like the way Lucknow's tongawala's call themselves posterity of Nawabs. nor this is the laughing matter at the prancing one, Looking at India's current selfmade predicament. But it the centerpoint(Krishnbindu) to think seriously that instead of leading, why are we trailing today ! In this blog we will analyse on the morality-immorality's past-present-future!

(1)माना कि भारत भी विश्व के अन्य राष्ट्रों की तरह वित्त द्वारा शोषण करने वाली यक्षीय अनुबंध प्रणाली में बंध गया है लेकिन इस का यह अर्थ भी नहीं है कि उद्योग-वाणिज्य की कॉमर्शियल प्रणाली से इतने बँधे रहें कि आहार का उत्पादन करने वाले वर्ग की क्रय-क्षमता ही समाप्त होती जाये और अंततः उद्योग भी ठप हो जाये..

(1) suppose that India, like other nations of the world, is bound by Yakshiya agreement system exploiting by finance. But this does not mean to be hardly bound by the commercial industry system that purchasing power of the food producing class, terminates. And eventually the commercial industry come to a standstill.

(2)कृपया भारत और भारतीयों की तुलना उन देशों से ही करें जहाँ अर्थ-व्यवस्था का मूलाधार प्राकृतिक उत्पादन हो.वैदिक संस्कृत के शब्द "स्वास्ति-सृष्टम" का शब्दानुवाद है "सनातन-धर्म-चक्र" और इसका लेटिन शब्द है "इकोलोजीकल चैनल". भारत में "सनातन धर्मी अर्थ-व्यवस्था पद्धतियाँ" पुनर्स्थापित होनी चाहिए अर्थात "इकोनोमिक्स मस्ट बी इकोलोजी बेस्ड".

(2) Please compare India and Indians to those countries where foundations of The economy is natural production. Vedic Sanskrit word SWAASTI-SRISHTAM's literal translation is "Sanatan Dharma Chakra". It's Latin word is "Ecological Channel." means "the Eternal Righteous-System Practices" must be restored in India. Ie "Economics Must be Ecology-based".

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

4. उत्पत्तिवाद ! शैव सिद्धांत !

      शैव मान्यता इस से जुड़ा हुआ दूसरा आयाम है और ब्राह्मण  मान्यता तीसरा आयाम है।
      डारविन ने वैष्णव मान्यता को और फ्रायड ने शैव मान्यता को अपने अपने तरीके से प्रस्तुत किया और अपने नाम का ठप्पा लगा कर प्रकाशित करवा दिया। 
       शैव मान्यता है कि मानव का यह ॐ आकार का शारीरिक स्वरूप इसी आकार में सदा से है।     
       आदिनाथ,पशुपतिनाथ,आदम, आदि मानव,हिमालय की कंदराओं से निकलने वाला यति और शंकर इत्यादि सब पर्यायवाची या पूरक शब्द हैं। शैव मान्यता है कि ईश्वर जिसे परमपुरुष भी कहा गया है वह 108 अणु-परमाणुओं को अनुशासित करके अपने इस ॐ आकार का रूप स्वतः धारण करते हैं अतः यह स्वरूप कहा जाता है। 
       इसी बात को फ्रायड ने अपने तरीके से कहा कि 'इस पृथ्वी ग्रह पर किसी अन्य ग्रह से कोई मानव आया और उसी के मानसिक योन-विकार के परिणाम से अन्य स्तनधारी पैदा हुए'।
      जब कि इस त्रिआयामी जगत में तीनो आयाम सम [घन] होते हैं तब पूरी संरचना का सृजन होता है अतः जब तक हम तीनों विरोधाभाषी दृष्टिकोण एक साथ स्वीकार नहीं करेंगे तो आप निर्णायक तथ्य पर नहीं पहूंच पाएंगे।
     दार्शनिक,मुनि ब्रह्मण परम्परा कहती है कि यह भौतिक देह भाव पैदा करने वाली यांत्रिक ईकाई,यन्त्र है। आप जब भाव में भावित होकर चुम्बकीय बलरेखाओं वाले क्षेत्र में,काल से अतीत हो कर स्थिर स्थित हो जाते हैं तो आप अमर यानी अव्यक्त में भी अव्यय हो जाते हैं और अपनी संकल्प-विकल्प शक्ति से पुनः इस यंत्र का सृजन करके नई सृष्टि,नए कल्प  का सृजन कर सकते हैं और इस साईकिल को पुनः शुरू कर सकते हैं।
      ईश्वर की गुणधर्मिता को जानने वाले शैव कहते हैं कि परमपुरुष की स्थिति को प्राप्त करके आप जब जहाँ चाहें वहाँ स्थित हो सकते हैं।जिस यंत्र का रूप धारण करना चाहें कर सकते हैं यानी जिस योनि [प्रजाति],जैविक नस्ल का स्वरूप धारण करना चाहें कर सकते हैं।
     प्रकृति के नियमों को मानने वाले, वैज्ञानिक द्रष्टिकोण को मानने वाले वैष्णव कहते हैं कि विकास की एक प्रक्रिया है वह पूरी होती है अतः आप को तो बस इतना चाहिए कि वर्तमान में अभावों से मुक्त होकर सुख को अधिकाधिक प्राप्त करें, जो होगा वह प्रकृति के नियमानुसार कल्याणकारी ही होगा अतः समयानुकूल फिट होने का प्रयास करें।
    वैष्णव मान्यता इसलिए स्थापित की गयी ताकि अभाव में भी भाव बना रहे,प्रतिकूल परिस्थिति में भी विद्रोह नहीं हो। जबकि ब्रह्मण और शैव मान्यता प्रकृति के उन सुनिश्चित नियमों की मोहताज नहीं है जो सर्वत्र एक सामान होते हैं। परमपुरुष की प्राप्ति अनन्य भक्ति से होती है अर्थात ऐसी भक्ति जिसकी तुलना अन्य से नहीं हो क्योंकि यह स्वयं के शरीर पर तप का प्रभाव स्वयं ही महसूस किया जाता है,शिव-अहम् [शिवोहम]बना जाता है और अहम् ब्रह्मास्मि बना जाता है अर्थात भाव में भावित होकर अपने आप को एक Definite ईकाई और परम को Indefinite अनिश्चितकालीन 0 शून्य मानकर अन्य को बीच में नहीं लाता।इस तरह यह 1 और 0 पर चलने वाली ऐसे कम्प्यूटर की भाषा हो जाती है जिसमे खुद ही कहने वाला और  खुद ही सुनने वाला होना पड़ता है। खुद ही प्रश्नोत्तर होता है। 
     जितने भी धार्मिक सम्प्रदाय हैं उन सभी पर दृष्टि डालें तो आप पायेंगे कि सभी सम्प्रदाय दो के विभाजन से विभाजित है। एक आत्म-कल्याण की ब्रह्म परम्परा से हैं जो निराकार को ज्ञान के मार्ग से मान्यता देती उसी के समानांतर एक निराकार को तप के माध्यम से मान्यता देती है। इसी के सामानांतर जगत के व्यक्त\साकार रूप को मान्यता देकर गुरु परम्परा,पूजापाठ,सामूहिक आयोजन इत्यादि को मान्यता देती है,जो जगत-कल्याण का हेतु होता है।    
     ये तीनों मान्यताये अंततः एक ही बिन्दु पर केन्द्रित हैं और वह है यह मानव देह जो हमें मिली है यही केन्द्रीय सत्ता है,भूतकाल-भविष्यकाल का केंद्र वर्तमान का जीवन है अतः जो राजनैतिक सत्ता इस सत्ता को नहीं समझ पाती और इंसान के वर्तमान को आभाव ग्रस्त बना देती है वह अमान्य होनी चाहिए। उसे मान्यता नहीं मिलनी चाहिए, अतः नैतिकता की नीति यह कहती है कि हमें वर्तमान की राजनैतिक प्रणाली को अमान्य कर देना चाहिए और सर्वजन सुखाय,सर्वजन हिताय, सर्वमान्य व्यवस्था बनानी चाहिए।       

3. दशावतार ! विकासवाद ! वैष्णव सिद्धांत !

     वैसे तो अवतारों की लम्बी सूची है लेकिन दस अवतारों को विषेष सूची में रखा गया है क्योंकि इन्होंने सनातन धर्म के ईकोसिस्टम को विकसित करने में विषेष भूमिका निभाई थी। इसे विकासवाद या उद्विकास Theory of evolution or spans the evolution के समकक्ष रख कर देखें। 
    डारविन ने विकासवाद का जो सिद्धांत दिया था वह इस वैष्णव सिद्धांत की प्रतिलिपि थी उसने बहुत सारे जीवाश्म और हड्डियों के ढाँचे, कंकाल इकट्ठे किये थे और उन्हें क्रमबद्ध रख कर क्रमिक विकास The evolution का सिद्धांत बताया। जैसा कि भारत को जब हम विश्वगुरु कहते हैं तो इसका अर्थ यह तो मान कर ही चलना चाहिए कि सभी तरह का ज्ञान-विज्ञान पौराणिक मान्यताओं में संग्रह कर चुके हैं.चूँकि वैदिक परम्परा को श्रुति परम्परा भी कहा गया है क्योंकि ज्ञान-विज्ञान तो आगे से आगे कहने सुनने से ही फैलता है फिर उसकी प्रामाणिकता तो प्रयोग उपयोग से ही बनती है.अब जब लिपि का आविष्कार हो गया तो कहने सुनने के स्थान पर लिखने पढ़ने बोल सकते हैं.श्रुति को श्रुति लेखन कहा गया।
    आज जन साधारण में लिपि का ज्ञान फैला है लेकिन फिर भी आप अपने बचपन से लेकर अब तक की जानकारी के संग्रह पर नजर डालें तो आप पायेंगे कि अधिकाँश जानकारी परस्पर वार्ता और सुनने से मिली है। मान्यताएँ बना देने से ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी स्वतः चलता है। यह ऐसा तरीका है जिसमे साक्षर होना भी जरुरी नहीं होता।
    इसी परिपेक्ष्य में इस अवतार मान्यता को ही ले लें जिसकी जानकारी सभी भारतीयों को है।जब जानकारी होती है तो उसकी व्याख्या करने वाला भी कहीं न कहीं,कभी न कभी मिल ही जाता है।
    प्रथम अवतार: मत्स्य-अवतार ! विकासवाद का सिद्धांत है कि पृथ्वी पर सर्व प्रथम समुद्र का ही भाग था और सर्व प्रथम जलचर पैदा हुए। अतः प्रकृति को ही जगत की उत्पत्ति का हेतु मानने वाले वैष्णव मत में,मान्यता में प्रथम अवतार मत्स्य-अवतार बताया है।  
   यह अवतार व्हेल मच्छली के रूप में है। यह एक मात्र समुद्री जीव है जो स्तनधारी हैं। इसने जल-मग्न पृथ्वी पर पर्यावरण सन्तुलन यानी ईकोचैनल का सेटअप संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जब समुद्री शैवाल Algae की पर्याप्त उत्पत्ति हो रही थी तब समुद्र में शाकाहारी स्तनधारी मछलियों ने अपनी संतति का इतना विस्तार किया कि समुद्र भी छोटा पड़ने लग गया और जब बड़ी संख्या में उनका कब्रिस्तान बना तो वहां हाईड्रोकार्बन का जो संग्रह हुआ वह आज का पेट्रोलियम प्रोडक्ट नाम से जाना जाता है.
    द्वितीय अवतार: कष्यप-अवतार (कछुआ)। विकासवाद का सिद्धांत कहता है कि जलचर के बाद जब समुद्र के बाहर धरती पर भी मछलियाँ आने लगी तो वे उभयचर के रूप में विकसित हुई। जो पानी और जमीन दोनों पर रह सके उन जीवों का विकास हुआ। 
     वैष्णव मान्यता है कि जब पृथ्वी समुद्र में ही थी तब कश्यप,कछुआ जो कि उभयचर है, यह जल एवं स्थल दोनों पर रह सकता है, के रूप में भगवान अवतार लेकर पैदा हुए और अपनी संतति का इतना विस्तार किया कि उनकी पीठ पर के कवच ने ढोस धरातल का विस्तार किया तब दलदली भूमि समुद्र से बाहर आई.इस को दल दल से निकाला वराह ने।
     तृतीय अवतार-वराह-अवतार (सुअर)  जब दल दल हुआ तो जलीय शैवाल जमीकंद के रूप में विकसित हुए,जलीय वनस्पति जमीकन्द रूप में विस्तार लेने लगी।  तब वराह के रूप में भगवान ने अवतार लिया और जमीकंद खा-खा कर अपनी संतति का इतना विस्तार किया कि दलदली धरती, पृथ्वी, भूमि को दल-दल से मुक्त किया और ढोस धरातल का विकास हुआ। 
     चतुर्थ अवतार नृसिंहअवतार। ये आधे नर-मानव और आधे सिंह-पशु  थे। जिसने हिरण्य-अक्ष और हिरण्य-कशिपु को इस लिए मारा था क्योंकि वे वनों को नष्ट कर रहे थे और वे अपने विकास की परिभाषा से इतने अधिक चिपक गए की अपनी ही सन्तान प्रहलाद को,जोकि देवों का समर्थक था और प्राकृतिक जीवन शैली का समर्थक था, वनभूमि को आग के हवाले करने का विरोधी था। सुनहरी आँखों वाले हिरण्य-अक्ष [हिर्णाक्ष] और सुनहरे बालों वाले हिरण्यकषिपू को मारा लेकिन उनके वंशज बार बार मार खाने के बाद भी अपने स्वभाव [प्रकृति] से वशीभूत हुए पुनः आज भी अग्नि के ताण्डव से जगत का नाश भी करते हैं और अंततः खुद भी मार खाते हैं। वह मार कभी विष्णु के अवतार से तो कभी प्राकृतिक आपदा से खाते हैं और फिर अपनी नस्ल की सुरक्षा के लिए छिपते फिरते हैं। 
    पंचम अवतार वामन-अवतार। अर्ध विकसित बौना मानव जिसने उस राजा बली को उपजाऊ भूमि छोड़ने को मजबूर किया था जो नगर-निर्माण के लिए भूमि पर के वनों को कटवाना चाहता था। इन्होंने ही जम्बूद्वीप को यूरोप एवं एशिया के रूप में विभाजित किया और राजा बलि को अपने अनुयायियों सहित यूरोप में जाने को मजबूर किया इस तरह भरण-पोषण के लिए आहार पैदा करने वाले भूभाग को मुक्त कराया। उस समय से एशिया आर्यावर्त कहलाया । 
     षष्टम अवतार परशुराम अव़तार सत्व प्रधान जिन्होंने वनों की रक्षा करने के लिए वनो पर अतिक्रमण करने वाले क्षत्रियों का बार बार नाश किया था।  
    सप्तम अवतार रामावतार सत्व व रज प्रधान जिन्होंने उस रावण को मारा था जिसने आणविक उर्जा का अनुसंधान कर लिया था और दक्षिण भारत को रेगिस्तान बना दिया था। 
    अष्टम अवतार-कृष्णावतार जो (सत्व-रज-तम) तीनों प्रकार की प्रवृति का समयानुसार उपयोग करने वाले पूर्ण अवतार। जिन्होंने गौपालन संस्कृति को घर-घर में स्थापित किया। 
 सम्पूर्ण अवतार के बाद इन दोनों अवतारों को अंशावतार कहा गया है।
    नवम्-अवतार बुद्धावतार जिन्होंने वनों की रक्षा के लिए वैश्य वर्ग को उपदेश दिया और व्यापारिक दोहन से वनों को बचाया । 
    दशम् अवतार-कल्कि अवतार। इसी क्रम में कल्कि अवतार का वर्णन भविष्य पुराण में किया हुआ है कि यह अवतार पश्चिम दिशा से आयेगा। यह अपने पूर्ववर्ती अवतारों की परम्पराओं को अमान्य करेगा । अतः उस समय का ऋषी वर्ग उसे अमान्य कर देगा। इन्होंने भी तो असुरों के वंशजों का खात्मा करने का बीड़ा उठाया था लेकिन जिस तरह रावण को मारकर भी राम ने कुबेर को छोड़ दिया था उसी तरह मोहमद ने भी इनके एक झुण्ड [परिवार] को छोड़ दिया था और यह भी कह दिया था कि ये लोग ईमान नहीं ला सकते,इनका इमान मुसल्लम नहीं है। इससे पहले भी दो किताबें [इंजील Evangel और बाईबिल Bibles]   उतर चुकी है लेकिन ये ईमान नहीं लाये। जिस तरह अन्य अवतारों ने किया उसी तरह कल्कि अवतार ने भी किया और यह अवतार परम्परा सनातन है अतः अंशावतार तो और भी होते रहेंगे।
    जब हनुमान ने राम से पूछा: कि यह मुद्रिका जो आपने मुझे लंका जाते समय पहचान के लिए दी थी अब इसको कहाँ रखूं? तो राम ने एक कुआ बताया और कहा: उसमे डालदो।जब हनुमान उस कुए पर पहूंचे तो देखा कि कुए में पहले से ही वैसी ही असंख्य मुद्रिकाएँ पड़ी है अर्थात यह बार बार धटित होता आया है अब जब हम इतने समझदार हो गए हैं तो फिर एक काम कर सकते है कि असुरों के नगरों को और देवों के खेतों को वर्गीकृत व्यवस्था में अलग अलग सुरक्षित कर सकते हैं तब दोनों प्रकार की मानव सभ्यता सनातन रह सकती है वर्ना मरना-मारना तो होता ही आया है.  
   

2. ब्रह्मा के रूप में सूर्य सभी को प्रत्यक्ष दिखाई देता है !

 सूर्य से जीव जगत को दो आधार मिलते हैं । 
       1. सूर्य में होने वाले हाइड्रोजन परमाणु विखण्डन से प्रकाश व तापक्रम के रूप में ऊर्जा मिलती है ।
       2. सूर्य से पैदा होने वाले चुम्बकीय क्षेत्र से जीव की देह में एक चुम्बकीय क्षेत्र बनता है। यही चुम्बकीय क्षेत्र चेतना के रूप में व्यक्त होता है और ब्रेन का विकास होने पर मन-बुद्धि-अहंकार के रूप में स्वभाव (अध्यात्म) बन कर व्यक्त होता है । सूर्य से दोनों आधार जब मिलने शुरू होते हैं तब जगत का प्रभव होता है और जब ये आधार मिलने बन्द होने लगते हैं तो जीव-जगत प्रलय को प्राप्त होने लगता है । 
सूर्य में हाइड्रोजन विखण्डन की प्रक्रिया जब एक पूर्णता को प्राप्त हो जाती है तब सूर्य ठण्डा होने लगता है और पृथ्वी पर प्रकाश व ऊष्मा आना बन्द हो जाती है । वह ब्रह्मा का रात्रिकाल कहा गया है और जब परमाणु विखण्डन की प्रक्रिया पुनः शुरू होती है तो उसे ब्रह्मा के दिन का प्रारम्भ कहा जाता है । 
जब सूर्य ठण्डा होता है तब पृथ्वी बर्फ़ का गोला हो जाती है उसी को शीत-युग कहा गया है । यह एक प्राकृतिक घटना है । इस पर चिन्ता करने की नहीं चिन्तन करने की आवश्यकता है।
     जब ब्रह्मा के दिन का अन्त होने लगता है तब जीव की शारीरिक संरचना का संवाहक गुण-सूत्र (जीन) वायरस का रूप ले लेता है इसी प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्य में कहा गया है कि 'अव्यक्त में भी जीव का भाव बना रहता है'। 
वायरस अव्यक्त रहता है लेकिन फिर भी वह है तो भौतिक रूप लेकिन इस भौतिक आधार का भी नाश हो जाये तब भी यानी सभी भूतों के नष्ट होने के बाद भी एक अन्य अव्यक्त भाव है जो बना रहता है। 
     उस अन्य अव्यक्त भाव को संस्कृतजन्य वैज्ञानिक शब्दावली में परमगति वाला चुम्बकीय क्षेत्र कहा गया है जो बिना किसी भौतिक आधार के मीजोन पार्टिकल के रूप में होता है वह कभी भी पंच महाभूतों को आधार बना कर व्यक्त होने लगता है और धीरे-धीरे उद्विकास (ईवोल्यूशन) की प्रक्रिया से अपने पुराणे रूप (पौराणिक रूप),मूल आकृति में व्यक्त हो जाता है।मूर्ति रूप में,मूर्त रूप धारण करता है।
चुम्बकीय क्षेत्र यानी परमगति वाले अव्यक्त क्षेत्र में स्थित-स्थिर होने को ब्रह्म में लीन होना भी कहा गया है। इसी को जीव-आत्मा के रूप में अमर होना भी कहा गया है, तो सिर्फ जीव भी कहा गया है । इसी को एक अन्य अव्यक्त भाव कहा गया है । 
आत्मा या आत्म शब्द का उपयोग दो स्थानों पर होता है। एक है जीव-आत्मा दूसरा है भूत-आत्मा ।
जीव-आत्मा ब्राह्मणी भाषा का शब्द है उसी को वैदिक-शब्दावली में अव्यक्त-अक्षर कहा गया है।
   इसी तरह भूत-आत्मा को अव्यय-अक्षर कहा गया है। भूत-आत्मा भौतिक देह का आधार होता है । आत्म का लेटिन में उच्चारण हुआ ''एटम'' । एटम शब्द आत्म का अपभ्रंश उच्चारण है । एटम सभी भूतों की आत्मा है जिसे अव्यय-अक्षर कहा है । क्योंकि पदार्थ की अविनाशिता के नियमानुसार देह के डिकम्पोज होने के बाद भी यह एटम, आत्मा मरता नहीं है । व्यय नहीं होता । इसी के आगे अध्याय आठ के इक्कीसवें श्लोक में कहा है - 

"जो अव्यक्त अक्षर नाम से कहा गया है उसे तो परम गति कहा गया है । इस परम गति को प्राप्त हुआ तो अव्यक्त से पुनः व्यक्त होता है लेकिन जिस स्थिति को प्राप्त होकर पुनः आवर्तित नहीं होता, आवागमन से निवृत्त हो जाता है, जिस परमधाम (गुरूत्वाकर्षण के केन्द्र) को प्राप्त हुआ मुझ (कृष्ण विवर/ ब्लेक होल) को प्राप्त हो जाता है वह कृष्ण विवर मेरा [गुरुत्वाकर्षण का] परमधाम है।"

यह पूरी प्रक्रिया प्रकृति जनित है अतः इस बिन्दु को समझ कर यह चिन्ता नहीं करनी चाहिये कि पृथ्वी पर जगत का नाश हो जायेगा तब हम कहाँ जायेंगे अतः हमें नये ग्रह की खोज कर लेनी चाहिये । यह चिन्ता आसुरी प्रवृति है। असुर चिन्ता करने में आनन्द महसूस करते हैं। इस तरह अपने साथ साथ सभी का वर्त्तमान भी बिगाड़ रहे हैं और भविष्य तो इस निराधार चिन्ता करने वालों का पहले से ही बिगड़ा हुआ होता है । 
    आज पृथ्वीवासियों की आवश्यकता अन्य ग्रहों पर जीवजगत को खोजने संबंधी नहीं होनी चाहिये बल्कि पृथ्वीग्रह पर जीवजगत विषमता की चपेट में आकार नष्ट हो रहा है, इस विनाश की प्रक्रिया को रोकने सम्बन्धी होनी चाहिये। यह तभी सम्भव है जब हम पारिस्थितिकी (इकोलोजी) को अर्थव्यवस्था का मूल आधार बनायें।
    क्योंकि जब तक व्यक्ति स्वयं सत-चित्त-आनंद घन की स्थिति के सुख को महसूस करने का अनुभव प्राप्त नहीं कर लेता तब तक वह जगत के उस स्वरूप की तरफ ध्यान नहीं  देगा जो स्वरूप परिस्थिति बनाता है. जबकि जीवन के तीनों आयाम सामान महत्त्व रखते हैं.
        पहला सुख निरोगी काया जब तक पौष्टिक आहार और शुद्ध और पवित्र देश उपलब्ध नहीं होगा शारीरिक रूप से स्वस्थ नहीं रह पाएंगे.जब तक शारीरिक स्वास्वस्थ अच्छा नहीं होगा मानसिकता, अध्यात्म,स्वभाव में आने वाले विकारों को आप रोक नहीं सकते. इन दोनों के योग से पैदा हुई मनः स्थिति के साथ परिवेश की परिस्थिति का भी अनुकूल होना आवश्यक होता है.जो व्यक्ति इस सच्चाई को जान जाता है वह इस सत्य और तथ्य को भी जान जाता है की आत्म कल्याण और समाज कल्याण एक दुसरे के पूरक हैं और जब इस सच्चाई को जान जाता है तो इस सच्चाई को भी जान जाता है कि आगामी जीवन में भी मुझे अनुकूल परस्थिति और परिवेश मिले इसके लिए सम्पूर्ण पृथ्वी पर फैला जगत यदि विषमता से मुक्त सम से व्याप्त होगा तो जीव मात्र के साथ मैं भी सचिदानन्दघन को स्वतः प्राप्त कर लूँगा.और वह यह भी जान जायेगा कि भौतिक सृष्टि भले ही भोग [ डीकम्पोजिसन ] को प्राप्त हो जाये वह ब्रह्म की स्थिति को प्राप्त हुआ पुनः योग [ कम्पोजिसन ] को प्राप्त कर लेगा अतः तब वह इस तरह की मुर्खता पूर्ण कल्पना में न जाकर रचनात्मक कल्पना में जायेगा.क्योंकि वह यह जान जाता है कि "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या"  

1. काल-चक्र का अध्ययन ब्रह्मा के दिन रात !



(1) सभ्यताओं के विकास एवं पतन के दोहराए जाने वाले कालचक्र के वे कारण जो कि मानव की प्रवृत्ति के चलते होते हैं। मानवीय और अमानवीय आचरण के चलते विकास एवं विनाश का एक समीकरण बनता है और घटनाऐं घटित होती हैं। जिन पर हम संवैधानिक अंकुश लगा सकते हैं।सामाजिक पत्रकारिता ब्लॉग में इसी तरह के कारणों पर गौर किया जायेगा.




(2) पृथ्वी ग्रह पर घटने वाली वे घटनाऐं जो प्राकृतिक काल-चक्र द्वारा संचालित होती हैं, दिन एवं रात की तरह स्वतः प्रक्रिया से चलने वाली, प्रकृति द्वारा स्वसंचालित प्रक्रिया है। उन विषयों को  इस नैतिक राज बनाम राजनीति ब्लॉग में उठाया जा रहा है।

      इस बिन्दु पर श्रीमद्भगवद्गीता नामक अशेषेण आख्यान यानी सम्पूर्ण एनसाईक्लोपीडिया में कही गई बात और वर्त्तमान में कही गई बात को मिलाकर जानने के लिए मुनि वेदव्यास के ब्लॉग गीता के द्वितीय अनुभाग कृष्ण वन्दे जगत गुरु में  (अध्याय-8-श्लोक संख्या 17 से 20 का अनुवाद) में भी पढ़ें! शीर्षक है... 
हिम युग :- पृथ्वीग्रह पर जीव जगत की उत्पति और प्रलय का स्वसंचालित काल चक्र का इतिहास:
   हम हिमयुग के बारे में सुनते हैं । उस समय पृथ्वी पर सिर्फ़ बर्फ़ ही बर्फ़ रहती है । इस विषय पर प्रामाणिक रूप से कहने के लिये हमें वर्तमान के वैज्ञानिकों द्वारा लगाये गये अनुमानों के साथ-साथ शास्त्रों का सहारा लेना पड़ेगा । प्रामाणिक को अंग्रेजी में ऑथेण्टिक Authentic कहते हैं । ऑथ Auth से ऑथर Author और ऑथेण्टिक शब्द बना है अर्थात जो पूर्व में लिखा हुआ है वह प्रामाणिक है । दूसरा तात्पर्य यह है कि जिसने लिखा है या कहा है वह व्यक्ति एक स्थापित ऑथेरिटी होना चाहिये । अब यदि जानने का विषय प्रकृति के परिप्रेक्ष्य में है तो वहाँ प्रामाणिक का आधार तर्कसंगत एवं विज्ञान सम्मत भी होना चाहिये और ऑथेरिटी Authority  वह होनी चाहिये जो मान्यता प्राप्त हो,Recognized हो।
     भारतीय वेद-परम्परा में ऑथेण्टिक होने के लिए लिखा होना भी आवश्यक नहीं है क्योंकि श्रुति परम्परा से सुना हुआ श्रुति hearing भी प्रामाणिक माना जाता है । अब यदि जानने का बिन्दु वर्तमान काल के भौतिक तथ्य से जुड़ा होता है तब तो हम प्रयोग करके उसे सिद्ध कर सकते हैं । लेकिन तथ्य जब भूतकाल के भौतिक तथ्य से जुड़ा हो तो हमें तर्क का सहारा लेना पड़ेगा और साथ-साथ उस तथ्य से जुड़ी मान्यता को मानना भी पड़ेगा ।     

     जब वर्तमान का वैज्ञानिक समाज जो कहता है वही बात यदि पूर्व में कही बात से मिलती है तो हमें उसे पूर्णतया प्रामाणिक मानने में सुविधा रहती है । अतः इस बिन्दु पर श्रीमद्भगवद्गीता नामक अशेषेण आख्यान यानी सम्पूर्ण एनसाईक्लोपीडिया में कही गई बात और वर्तमान में कही गई बात को मिलाकर इस बिन्दु पर जानते हैं ।  (अध्याय-8- श्लोक संख्या 17 से 20 का अनुवाद)     "हज़ारों युगों की समय-अवधि जितने काल-खण्ड को ब्रह्मा का एक महर्यद् (जीवन्त जगत, आर्गेनिक बौडीज़ का एक दिन) जानने वाला विद्वान जानता है कि इतने ही युगों की अवधि की एक अहोरात्रि होती है ।  दिन के आगमन के साथ साथ अव्यक्त से व्यक्त जगत का प्रभव होता है और रात्रि के आगमन के साथ-साथ व्यक्त जगत का अव्यक्त में प्रलय हो जाता है।" (प्रलय=लय के साथ विलय होना)    "हे पार्थ ! भौतिक देहधारियों वाले ये भूतगण रात्रि के प्रवेश काल में प्रलय को प्राप्त होते रहते हैं और दिन के प्रवेश काल में इनका पुनः पुनः प्रभव होता रहता है ।""किन्तु उस अव्यक्त से भी परे एक अन्य सनातन अव्यक्त भाव है। सभी भूतों का नाश होने के बाद भी उस अव्यक्त भाव का विनाश नहीं होता है ।"


      ब्रह्मा-विष्णु-महेश में से, आपने देखा होगा कि ब्रह्मा की प्रतिमा की उपासना नहीं की जाती! क्यों ? क्योंकि विष्णु [प्रकृति] और शिव [पदार्थ] भौतिक जगत को आकार देकर साकार बनाते हैं जबकि चेतना निराकार होती है। 
     चेतना,प्रकृति,पदार्थ (पुरूष) इन तीन शब्दों का मानवीकरण किया गया है। चार हाथों वाली विष्णु की प्रतिमा तथा तीन आखें बन्द करके समाधिस्थ शिव की प्रतिमा के आकार और इनके मानवीय चरित्र के रूप में शब्दों का मानवीकरण करके विज्ञान की जानकारी दी गयी है ।    
     परमाणु के प्रतीक रूप में शिवलिंग की प्रतिमा है। प्रोटोन एवं इलेक्ट्रोन के रूप में अर्धनारीश्वर शिव हैं जो तीसरी आँख (न्युट्रोन) को खोलते हैं तो परमाणु विखण्डन होता है और भौतिक रूप में प्रलय आ जाता है।
    इन एक सौ आठ परम् अणुओं में प्रत्येक परमाणु की अलग-अलग गुणधर्मिताऐं और इनसे बने अणुओं (मोल़ीक्यूल्स) की गुणधर्मिताऐं निर्धारित करने वाले विष्णु का जो चरित्र होता है वह अणुओं में व्याप्त रहकर पदार्थ में गुणधर्मिता को धारण करवाता है। इस तरह वैज्ञानिक जानकारी को स्थाई रखने के लिए इसे मान्यताओं के रूप में स्थापित किया गया ताकि लिखित साहित्य नष्ट भी हो जाये तब भी श्रुति के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान परम्परा को प्राप्त हो जाये ।
     पदार्थ (पार्थ) एवं प्रकृति (सारथी) अर्थात् शरीर एवं शरीर की प्रकृति का योग (कम्पोजिशन) तो एक दिन भोग (डिकम्पोजिशन) को प्राप्त हो जाता है लेकिन उस जीवन काल में जीव की चेतना का माध्यम जो ब्रह्मा है उसे मानने या जानने के लिये किसी प्रतीक की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि प्रत्यक्ष को प्रतिमा नामक प्रतीक की आवश्यकता नहीं होती । 
       ब्रह्मा का एक तात्पर्य जीव की चेतना से है,जीव पैदा होकर मरता है।ब्रह्मा का दूसरा तात्पर्य है जब जीव क्रमिक विकास के बाद मनुष्य योनी[प्रजाति] को प्राप्त कर लेता है तो उसके बाद उसमे ब्रैन brain का क्रमिक विकास होता है तब वह ब्रह्मणि स्थिति को प्राप्त करके ब्राह्मण बनता है तब वह ब्रह्मा कहलाता है।चूँकि चेतना सूर्य से मिलाती है और सूर्य के चुम्बकीय बलरेखा क्षेत्र से ही जीवमात्र का,जीवजगत का उद्भव होता है अतः ब्रह्मा का तीसरा तात्पर्य सूर्य होता है। 
     सूर्य की भी एक आयु होती है अतः आपने गौर किया होगा कि शिव-शंकर और विष्णु हमेशा युवा दिखाये जाते हैं जबकि ब्रह्मा को सफेद दाढ़ी वाला वयोवृद्ध दिखाया जाता है। इसका तात्पर्य है जीव जरावस्था प्राप्त करके वृद्ध होता है। इसी तरह आपने यह भी सुना होगा कि विष्णु और महेश अजर अमर है लेकिन ब्रह्मा की आयु होती है। इसका तात्पर्य है चुम्बकीय बलरेखाओं वाला क्षेत्र नष्ट भी होता है तो पुनः पैदा भी होता है। इसी तरह ब्रह्मा के चार मुख होते हैं। जिसका तात्पर्य होता है सूर्य की चुम्बकीय बल रेखाओं वाला क्षेत्र चहुँमुखी एक समान रूप से फैलता है और ब्राह्मण का चिन्तन-मनन,ब्रह्म में रमण भी सभी विषयों में एक साथ चलता है तब वह ब्रह्मण कहलाता है। 
     इस तरह ब्रह्मा के दिन रात में हजारों युगों वाले हजारो कल्प होते हैं। जब ब्रह्मा के दिन के प्रारम्भ होने के बाद यानि सूर्य के पुनः सक्रीय होने के बाद पृथ्वी पर पुनः भारती अग्नि पहुँचने के बाद पृथ्वी पर पुनः  सनातन धर्म चक्र शुरू होता है और पुनः भारतवर्ष विकसित होता है जो धिरे-धिरे सिमट कर आज सीमित क्षेत्र में रह गया है।
    इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान की वास्तविक वस्तुस्थिति को, मनुष्य ही जो कि ब्रह्मा का प्रतिनिधि है और कहता है कि 'मैं ही ब्रह्म हूँ', उसको समझना चाहिए कि वह शुद्रता छोड़े और ब्राह्मण बन कर ब्रह्म [दिमाग, बुद्धि, विद्या, ज्ञान] का उपयोग करे और न सिर्फ खुद सुख से रहने का उपाय करे बल्कि जीवमात्र को सुख मिले वैसा विकास करे। 
     व्यक्ति जब एक ऐसी शम स्थिति को प्राप्त कर लेता हैं कि सभी विषमताओं से उलझता हुआ भी समभाव से वर्तमान के हित का हेतु बनता है,तब वह उस अव्यक्त भाव को भी प्राप्त कर लेता है,जिसके लिए कहा हैं कि "किन्तु उस अव्यक्त से भी परे एक अन्य सनातन अव्यक्त भाव है। सभी भूतों का नाश होने के बाद भी उस अव्यक्त भाव का विनाश नहीं होता है ।" यानी आप अमर हो जाते हैं। 
इस तरह हम वर्तमान के सुख से अमरता को प्राप्त होते हैं।


(3) वर्तमान को केंद्र में रखकर वर्तमान में संवैधानिक अंकुश लगा सकते हैं जैसे कि परमाणु भट्टियों पर.निर्दलीय राज नैतिक मंच ब्लॉग में इस बिंदु पर गौर किया जायेगा.

सोमवार, 30 जुलाई 2012

सूत्रधार आत्म कथन

         बचपन में जब कभी भी किसी धर्मगुरू का प्रवचन मेरे कानों में पड़ता था तो मैं अक्सर सोचता था कि जो बातें अपने आप हर किसी को बचपन में ही पता चल जाती है,विशेषकर जो बच्चे पढ़ते हैं और कबीरदास के दोहे तो सभी को पता है और उन दोहों में भारी-भरकम और हल्की-फुल्की बातें कही गयी हैं उनके सामने ये बातें बचकानी लगाती हैं फिर भी इन बातों को ये बड़े-बड़े लोग सुनते हैं यह सब क्या है ? जबकि इस तरह के आयोजन पहले कम होते थे आज कल अधिक होते जा रहे हैं। 
      विवाहोत्सवों, त्योहारोत्सवों, धार्मिक उत्सवों को मैं मानवनिर्मित आयोजनों के रूप में देखता था। मेरे लिए उनकी उपयोगिता सिर्फ इतनी ही थी कि उनके कारण पकवान निरन्तर मिलते रहते थे । 
इसके समानान्तर मैं यह सोचता रहता था कि आदमी पैदा होता है मरता है। कोई कहता है ब्रह्मलीन हो गये, कोई कहता है स्वर्गवासी हो गये, कोई कहता है देहान्त हो गया, कोई कहता है श्री श्री 108 हो गये यह सब क्या है ? कोई कहता है आत्मा अमर है, कुछ जातियाँ पितरों का श्राद्ध करती है कुछ नहीं करती है । आखि़र यह सब चक्कर क्या है ?
    अधिकतर घरों में खाने-पीने, पहनने-ओढने का रहन सहन अच्छा नहीं होता फिर भी उनके पास धन होता है और मेरे परिवार जैसे कुछ परिवार हैं कि जो प्रतिष्ठित एवं अच्छे जीवन स्तर वाले हैं,खूब खर्च करते हैं, वे इन धन का संग्रह करने वाले परिवारों की हँसी उड़ाते हैं और दिन भर दुनियाँ भर के विषयों की बातें करते रहते हैं। यह सब कैसे संचालित होता है !
    मैं सोचता था कि यह तो सुनिश्चित है कि इस दुनियाँ को संचालित करने वाला कोई एक व्यक्ति विशेष नहीं है। ईश्वर, ब्रह्म, भगवान, देवी देवता यह सब क्या है ? इसी उधेड़बुन के बीच जीवविज्ञान, रसायनविज्ञान एवं भौतिकविज्ञान का पाठ्यपुस्तकीय अध्ययन भी हुआ और ऐतिहासिक, दार्शनिक और कथासाहित्य का तो नवीं कक्षा से जो सिलसिला शुरू हुआ वह युवास्था और प्रौढ़ावस्था के बीच की वयसंधि की अवस्था तक चला। लगभग पैंतीस वर्ष की आयु के आस-पास मुझे एक गुरू मिले जो मेरे जीवन के दूसरे और अन्तिम गुरू थे । 
पहले गुरू मेरे दादा थे, जो अध्यापक थे और जिन्हें मैं बाबा कहता था । उन्होने मेरे अन्दर कुछ ऐसे भाव भरे जिनके परिणाम स्वरूप मैंने किसी भी काल-स्थान-परिस्थिति में अपने आप को अभावग्रस्त महसूस नहीं किया ।
    दूसरे जो गुरू थे वे तहसील के अवकाश प्राप्त अधिकारी थे उन्होने मेरी जिज्ञासाएँ देखकर कहा आप इतना सब पढ़ते रहते हैं क्या आपने कभी धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया है ?
मैं हँसने लग गया और कहा 'मैंने कोशिश  तो बहुत की लेकिन उनमें इतना विरोधाभास भरा है कि मुझे तो ऐसा लगता है कि इनके लेखक अंतर्द्वंद्व में थे Confused और Duel determination वाले  थे।  सभी जगह विरोधाभाषी Contradictory बातें कही गयी हैं.
मैं तो सिर्फ़ मुस्कुराकर ही हँसा था जबकि उन्होंने ज़ोरदार ठहाका लगाया और कहा ‘‘आपमें इस धार्मिक वैज्ञानिक साहित्य को पढ़ने की असली पात्रता है। दरअसल होता यह है कि प्रत्येक तथ्य के दो समानान्तर पक्ष होते हैं। इस बिन्दु पर वैज्ञानिक भी अछूते नहीं हैं। जब वे किसी एक पक्ष को जानने लगते हैं तो उसे सत्य मानने लगते हैं लेकिन ज्योंहि उन्हें उसके प्रतिपक्षी तथ्य की जानकारी मिलती है वे पहले वाले पक्ष को नकार देते हैं और कहने लग जाते हैं कि पहले जो जाना था वह ग़लत था अभी जो नई जानकारी मिली है वह सत्य है।
    अतः आप इन शास्त्रों का इस तरह से अध्ययन करें कि लेखक दो विरोधाभासी तथ्यों को अपने तरीके से बता रहा है। आपको इस लम्बे चौड़े धार्मिक साहित्य को भी पढ़ने की आवश्यकता नहीं है आप तो सिर्फ गीता को पढ़ो और उसमें जो लिखा है उसको समझने की कोशिष करो, अभी तक आपने जो भी पढ़ा है वह सब एसेम्बल हो जायेगा ।‘‘
    उसके बाद एक के बाद एक सब स्पष्ट होता गया.सबसे रोचक जानकारी तो धर्म और विज्ञान के बीच संबंधों की है.जब आप शरीर विज्ञान और मनो विज्ञान के बीच संबंधों को जान जाते हैं तो फिर आप यह भी जान जाते हैं कि शिष्ट आचरण और भ्रष्ट आचरण के बीच कोई सीमा रेखा नहीं होती.संगत से संस्कारित  होते समय संगदोष भी विकसित होते हैं तो गुण भी विकसित होते हैं.आज हमारा राजनैतिक आचरण हो या अन्य सभी में संग दोष आ गया है अतः यदि हमें राजनीति में नैतिकता लानी है तो सबसे पहला काम संगत से मुक्त जन प्रतिनिधि को संसद और विधान सभा में भेजने से शुरू करना होगा.

सोमवार, 23 जुलाई 2012

21-12-2012 को कुछ नहीं होगा ! डायनासोर युग से बचें !

डायनासोर (दानव-असुर) युग 

डायनासोर युग तब आता है जब पृथ्वी पर हरियाली न्यूनतम हो जाती है, मांसाहारी पशु-पक्षियों की संख्या अधिक हो जाती है,धीरे-धीरे शाकाहारी पशुओं तत्पश्चात मांसाहारी पशुओं को भी खाते-खाते कुछ सरीसृप जाति की प्राणी नस्लें दैत्याकार रूप धारण कर लेती हैं। 
          इस स्थिति की ज़िम्मेदार न तो प्रकृति की स्वसंचालित प्रक्रिया है और न ही अन्तरिक्ष से गिरा कोई उल्का पिण्ड। यह तो मूर्ख से मूर्ख वैज्ञानिक को भी सोचना चाहिये की एक उल्का पिण्ड सभी महाद्वीपों की भूमि को प्रभावित नहीं कर सकता है। इस बुरी स्थिति की ज़िम्मेदार मानव की वह प्रवृत्ति है जो उसे बन्दर से मिली है।
           जब भी कोई बन्दर चोटिल हो जाता है और उसके शरीर से ख़ून बहने लग जाता है तब अन्य बन्दरों के मन में यह जिज्ञासा पैदा होती है कि यह रंगीन पानी कहाँ से आ रहा है और तब वे कटी हुई चमड़ी को खींच-खींच कर देखते हैं। परिणाम स्वरूप घायल बन्दर की देह क्षत-विक्षत हो जाती है।
यही स्थिति उन जिज्ञासु वैज्ञानिकों की होती है जो वैज्ञानिक तो बन जाते है किन्तु उनमें दार्शनिकता का आचरण नहीं होता यानी कल्याणकारी होने या नहीं होने का Sense,बोध,ज्ञान नहीं होता अतः वे अपने धर्म को महसूस नहीं कर सकते। ऐसी स्थिति में अब यदि ऐसे वैज्ञानिकों के आका यक्ष एवं राक्षसों में विभूति कहे जाने वाले 'वित्तेश' होते हैं जिनके निवेश करने का उद्देश्य ही कमाना होता है,और जब व्यक्ति कमाने हेतु कामना से वशीभूत होकर कोई काम करता है तो इतना कमीना हो जाता है कि उसे उचित-अनुचित का ध्यान नहीं रहता। अपनी कमाई के लिए वे अति पर उतारू हो जाते हैं और सीमा का उल्लंघन कर देते हैं।

 'बन्दरिया की बाटकी'

       एक कहावत है 'बन्दरिया की बाटकी' (कटोरी को बाटकी भी कहा जाता है)। एक बन्दरिया ने देखा कि एक बच्चा एक कटोरी से पानी पी रहा है। उसने सोचा मैं तो जब पानी पीने जाती हूँ तो नदी में झुककर पानी पीना पड़ता है जबकि यह बाटकी तो बहुत उपयोगी है,इसको पानी से भरकर पीते हैं तो झुकना नहीं      पड़ता। यह सब सोचकर वह बाटकी को छीन कर ले गई और नदी किनारे जाकर बाटकी भर-भर कर पानी पीने लगी तो उसे बड़ा मज़ा आया कि झुके बिना भी पानी पीया जा सकता है। वह इसी सुविधा का मज़ा लेती रही और पानी पर पानी पीती गई । परिणामतः पेट फट गया. 
मानव जब फोरेस्ट ईकोलोजी की ईकोनोमिक्स से विकास करके एग्रीकल्चर ईकोलोजी की ईकोनोमिक्स तक पहुँचता है तब तक तो कल्चर्ड कहा जाता है,लेकिन जब वह जीव-विज्ञान की शाखाओं से बाहर निकलकर प्रोद्योगिकी-विज्ञान पर पहुँचता है तब वह ईकोनोमिक्स को गौण करके काम और अर्थ वाली कॉमर्शियल सभ्यता में प्रवेश करता है तो समझ लेना चाहिये,बन्दरिया के हाथ में बाटकी आ गई है। अब वह कामनाओं में बँध कर काम और अर्थ का मज़ा लेते-लेते अति पर उतारू होगा और आत्मघातक आचरण अपनाने लगेगा। 

अग्नि की पूजा करो लेकिन एक सीमा तक 

आपने यह तो सुना-पढ़ा होगा कि प्राकृत धर्म के मुनि (दार्शनिक) अग्नि का भी त्याग करते हैं।क्यों ?
क्योंकि वे वनों में रहेते हैं और फलों पर निर्वाह करते हैं। अन्न के दाने भी कच्चे चबाते हैं क्योंकि वे पूर्ण रूप से प्राकृत जीवन जीने की परम्परा अपनाते हैं जबकि वैदिक परम्परा की सभी शाखाओं के लोग अग्नि की पूजा करते हैं। 
अग्नि की आवश्यकता भोजन पकाने के लिए होती है अतः ऋग्वेद की पहली ऋचा के पहले सूत्र में कहा है ''अग्नि मिळे पुरोहितम'' । 
लेकिन यही अग्नि जब प्रौद्योगिकी-विज्ञान तक पहुँचती है तब कार्बन-डाई-आक्साईड का अधिक उत्सर्जन होता है तो उसे सोखने के लिए वनों का विस्तार भी होना चाहिये। जब यह सन्तुलन बिगड़ जाता है तो ग्लोबल वार्मिंग होता है । 
यहाँ तक भी पारिस्थितिकी असन्तुलन चिन्ताजन स्थिति में नहीं पहुँचता क्योंकि प्रकृति अपने स्वसंचालित सनातन धर्म चक्र को पुनः संतुलित कर लेती है. लेकिन जब इसी अग्नि का उपयोग यान्त्रिक उर्जा के लिए होने लगता है और परमाणु विखण्डन की विधि विकसित हो जाती है तब प्रलयकारी स्थिति बनने की सम्भावना बन जाती है। 

शिव की तीसरी आँख 

परमाणु विखण्डन की प्रक्रिया में न्युट्रोन पर चोट की जाती है और जब परमाणु टूटता है तो उसे शिव की तीसरी आँख का खुलना कहा जायेगा।
    आज इस पृथ्वी पर जितने भी रेगिस्तान हैं वे सभी पूर्व में हो चुके परमाणु-बमों के उपयोग के परिणाम स्वरूप बने हैं। आज हम धीरे-धीरे एक ऐसी दिशा में विकास कर रहे हैं जो हमें डायनासोर (दानवासुर) काल में धकेल सकता है। समय रहते धर्म,राजनीति और वैज्ञानिक विकास तीनों के नाम पर कमाई करने वाला कमीनापन ऐसे ही बढ़ता रहा तो हम एक ऐसे वनस्पति-विहीन पृथ्वी गृह के विकास की दिशा में बढ़ रहे हैं जिस पर विशालकाय सरीसृप जातियों के विषधर भ्रमण कर रहे होंगे।
  ध्यातव्य है कि विषधर सरिसृप जाति के होते हैं और सरिसृप (reptelia) अपने पित्ताशय में रिसाव होने वाले भयानक पित्त के कारण प्राणी के नाखून, दाँत और हड्डियाँ भी हजम कर लेते हैं। पित्त को आयुर्वेद में राक्षस भी कहा जाता है जो बहुत अधिक भोग माँगता है।
      इसी पित्त विकार से मानव भी भोजन में अत्यधिक प्रोटीन का भोग लगाने लग जाता है और दुनिया पर राज  करने और विरोधियों का नाश करने की सोचने लग जाता है। इसी लिए रजो विकारी  राक्षस कहा जाता है.यक्षों राक्षसों सींग पूँछ नहीं होते आचरण से ही पहचाने जाते हैं।
यदि हमें सरीसृप जाति के डायनासोर युग से बचना है तो सबसे पहले रजो-विकारी राजसी प्रवृति वाले शासकों,गुरुओं और पूंजीपतियों से सनातन धर्म को बचाना होगा और हम सभी पृथ्वीवासियों को एक सुर में परमाणु विखण्डन प्रौद्योगिकी विकसित करने से रोकने तथा धीरे-धीरे सभी परमाणु संयत्रों को बन्द करने की दिशा में निर्णय लेना होगा। विश्व के राजनेताओं को इस विषय में दबाव बनाने के लिए पहल तो हमें अपने भारत राष्ट्र से करनी होगी।
    भारत में कोई भी राजनातिक दल आ जाये वह ऐसा नहीं कर सकता। भारत ही नहीं,विश्व की मानव सभ्यता को बचाना है तो भारतीय मतदाताओं को चुनाव आयोग अथवा सरकार से चुनाव सुधार की गुहार लगाने के स्थान पर अपने ईमानदार जनप्रतिनिधि चुन कर राजनीति को दल-दल मुक्त करना होगा वर्ना आपकी अगली पीढ़ी या आप ख़ुद तड़प-तड़प कर मरने को मजबूर हो जाएंगे।
      21-12-12 को तो कुछ नहीं होने वाला है लेकिन निकट भविष्य में आर्थिक कारणों से सामरिक युद्ध की शुरुआत बड़े पैमाने पर होगी और एक विश्व युद्ध थोपा जायेगा। भारत के राजनेता आज सं. रा. अमेरिका, यूरोपियन लॉबी और आस्ट्रेलिया से आने वाले विचारों का अनुसरण करते हैं और इन राष्ट्रों की सरकारें उन पूंजीपतियों की बन्धक हैं जो परमाणु विखंडन प्रोद्योगिकी से कमाई कर रहे हैं। अतः भारत को यानी भारतीय मतदाता को इस समय हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठना चाहिए। अपना निर्दलीय जन-प्रतिनिधि चुन कर भारत की राजनीति को दल-दल मुक्त करना है और भारत को वर्गीकृत भव्य महाभारत बना कर मात्र भारत को ही नहीं मानव सभ्यता को बचा कर एक बौद्धिक ऊँचाई पर ले जाना है। 
    इस विषय में भारतीयों की जिम्मेदारी इस लिए भी सर्वाधिक हो जाती कि जब डायनासोर युग था तब भी इस धरती पर एक स्थान ऐसा था जो विभिन्न जीवप्रजातियों सहित मानव प्रजातियों को सुरक्षित रखे हुआ था। वह क्षेत्र हिमालय और ब्रह्मपुत्र घाटी का था, जो की भारत में है.अतः न सिर्फ हमें भारत को यक्षराक्षसों से सुरक्षित कर के समृद्ध और सम्पन्न बनाना है बल्कि सनातन धर्म चक्र के बीज़ सुरक्षित रखने वाले क्षेत्र को सुरक्षित रखने का धर्म भी हमें निभाना है।    

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

एक मूर्खतापूर्ण कल्पना है 21-12-2012 को दुनिया समाप्त हो जाएगी !.

        नष्ट होने वाली दुनिया से तात्पर्य यदि पृथ्वी या धरती से है,तब तो यह एक मूर्खतापूर्ण अवधारणा या कल्पना है!
        दुनिया से तात्पर्य जगत (जीवजगत) से है तो यह जिज्ञासा का एक बिंदु है कि दुनिया का कालचक्र क्या है!
       लम्बे कालचक्र को जानने से पूर्व यह जानना चाहिए कि माया सभ्यता के कैलेंडर की गणना का आधार क्या है और माया सभ्यता का ख़ुद का इतिहास क्या है, जो समाप्त हो गयी फिर भी दुनिया के फिर से समाप्त होने की भविष्यवाणी बता गयी! 
 उस भूतकाल का अध्ययन,जो वर्तमान से तुलना करने जैसा भी होता है और भविष्य भी होता है,तीन विधियों से होता है।

1. धार्मिक मान्यताओं एवं पौराणिक साहित्य से

2. श्रुति परम्परा से अर्थात पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई जाने वाली कथाओं, क़िस्से-कहानियों एवं लिखित ऐतिहासिक साहित्य के माध्यम से ।

3. विज्ञानसम्मत, तर्कसंगत अनुमानों के माध्यम से । 

भूतकाल के अध्ययन के पीछे तीन मानसिक कारक (फ़ैक्टर) मन्तव्य होते हैं। 

1. अपने पूर्वजों की खोज करने और उन पर गर्व करने की मानसिकता के चलते यह मानसिकता भौतिकवादी तमोगुणी समाज में होती है । इस विषय में सामाजिक पत्रकारिता वाले ब्लॉग में पढ़ें।

2. सत्य को जानने के परिप्रेक्ष्य में जब हम पूर्व के इतिहास का और घटित घटनाओं का अध्ययन करते हैं तो यह मानसिकता दार्शनिक स्वभाव के चलते बनती है। 

इस ब्लॉग श्रृंखला में भूतकाल का अध्ययन तो तीनों विधियों से किया जायेगा लेकिन नैतिक राजनीति के इस ब्लॉग में सृष्टि उत्पत्ति,फिर जीव जगत की उत्पत्ति और विनाश के काल चक्र में नैसर्गिक प्रकृति [क़ुदरत] और मानव प्रकृति [स्वभाव] की भूमिका का अध्ययन करेंगे।
      अध्ययन का मन्तव्य एक सुन्दर सामाजिक ढाँचे की रचना करने के परिप्रेक्ष्य में समझें। ताकि आत्म अनुशासित रह कर नैतिकता के आधार वाली नीति पर चलने वाले समाज का निर्माण कर सकें। इसके लिए हमें इतिहास को एक विशेष दृष्टिकोण से समझना है ताकि हम पूर्व की उन घटनाओं से ये सबक लें कि  उनमें मानव स्वभाव की क्या-क्या भूमिका रहती है,जिन घटनाओं के परिणामस्वरूप हम बार-बार इस बुरे हालात में पहुँचते हैं। उन घटनाओं को रोकने में अभी हम क्या-क्या भूमिका निभा सकते हैं और यह भी जानें कि उन घटनाओं से पहले विश्व कैसा था और बाद में कैसा बना! ताकि हम वर्तमान में ऐसा कार्यक्रम बना सकें जो हमें सन्तुलित समाज व्यवस्था बनाने के लिए एक अवधारणा(दृष्टिकोण) दे सके। 
काल-चक्र  का अध्ययन हम तीन बिन्दुओं को केन्द्र में रख कर करते हैं। देवर्षि नारद के ये तीनों ब्लॉग इसी परिप्रेक्ष्य में सम्पादित हैं।

3.  वर्त्तमान की समस्याओं के पीछे छिपे शासनिक-प्रशासनिक  कारणों को खोजने के परिप्रेक्ष्य में ताकि उन घटनाओं से सबक लिया जा सके और सुन्दर भविष्य का निर्माण किया जा सके। यह समाज वैज्ञानिक की जिज्ञासा समसामयिक यथार्थ जानने के लिये होती है। इस विषय में निर्दलीय राजनीति ब्लॉग में पढ़ें।