डारविन ने वैष्णव मान्यता को और फ्रायड ने शैव मान्यता को अपने अपने तरीके से प्रस्तुत किया और अपने नाम का ठप्पा लगा कर प्रकाशित करवा दिया।
शैव मान्यता है कि मानव का यह ॐ आकार का शारीरिक स्वरूप इसी आकार में सदा से है।
आदिनाथ,पशुपतिनाथ,आदम, आदि मानव,हिमालय की कंदराओं से निकलने वाला यति और शंकर इत्यादि सब पर्यायवाची या पूरक शब्द हैं। शैव मान्यता है कि ईश्वर जिसे परमपुरुष भी कहा गया है वह 108 अणु-परमाणुओं को अनुशासित करके अपने इस ॐ आकार का रूप स्वतः धारण करते हैं अतः यह स्वरूप कहा जाता है।
इसी बात को फ्रायड ने अपने तरीके से कहा कि 'इस पृथ्वी ग्रह पर किसी अन्य ग्रह से कोई मानव आया और उसी के मानसिक योन-विकार के परिणाम से अन्य स्तनधारी पैदा हुए'।
जब कि इस त्रिआयामी जगत में तीनो आयाम सम [घन] होते हैं तब पूरी संरचना का सृजन होता है अतः जब तक हम तीनों विरोधाभाषी दृष्टिकोण एक साथ स्वीकार नहीं करेंगे तो आप निर्णायक तथ्य पर नहीं पहूंच पाएंगे।
दार्शनिक,मुनि ब्रह्मण परम्परा कहती है कि यह भौतिक देह भाव पैदा करने वाली यांत्रिक ईकाई,यन्त्र है। आप जब भाव में भावित होकर चुम्बकीय बलरेखाओं वाले क्षेत्र में,काल से अतीत हो कर स्थिर स्थित हो जाते हैं तो आप अमर यानी अव्यक्त में भी अव्यय हो जाते हैं और अपनी संकल्प-विकल्प शक्ति से पुनः इस यंत्र का सृजन करके नई सृष्टि,नए कल्प का सृजन कर सकते हैं और इस साईकिल को पुनः शुरू कर सकते हैं।
ईश्वर की गुणधर्मिता को जानने वाले शैव कहते हैं कि परमपुरुष की स्थिति को प्राप्त करके आप जब जहाँ चाहें वहाँ स्थित हो सकते हैं।जिस यंत्र का रूप धारण करना चाहें कर सकते हैं यानी जिस योनि [प्रजाति],जैविक नस्ल का स्वरूप धारण करना चाहें कर सकते हैं।
प्रकृति के नियमों को मानने वाले, वैज्ञानिक द्रष्टिकोण को मानने वाले वैष्णव कहते हैं कि विकास की एक प्रक्रिया है वह पूरी होती है अतः आप को तो बस इतना चाहिए कि वर्तमान में अभावों से मुक्त होकर सुख को अधिकाधिक प्राप्त करें, जो होगा वह प्रकृति के नियमानुसार कल्याणकारी ही होगा अतः समयानुकूल फिट होने का प्रयास करें।
वैष्णव मान्यता इसलिए स्थापित की गयी ताकि अभाव में भी भाव बना रहे,प्रतिकूल परिस्थिति में भी विद्रोह नहीं हो। जबकि ब्रह्मण और शैव मान्यता प्रकृति के उन सुनिश्चित नियमों की मोहताज नहीं है जो सर्वत्र एक सामान होते हैं। परमपुरुष की प्राप्ति अनन्य भक्ति से होती है अर्थात ऐसी भक्ति जिसकी तुलना अन्य से नहीं हो क्योंकि यह स्वयं के शरीर पर तप का प्रभाव स्वयं ही महसूस किया जाता है,शिव-अहम् [शिवोहम]बना जाता है और अहम् ब्रह्मास्मि बना जाता है अर्थात भाव में भावित होकर अपने आप को एक Definite ईकाई और परम को Indefinite अनिश्चितकालीन 0 शून्य मानकर अन्य को बीच में नहीं लाता।इस तरह यह 1 और 0 पर चलने वाली ऐसे कम्प्यूटर की भाषा हो जाती है जिसमे खुद ही कहने वाला और खुद ही सुनने वाला होना पड़ता है। खुद ही प्रश्नोत्तर होता है।
जितने भी धार्मिक सम्प्रदाय हैं उन सभी पर दृष्टि डालें तो आप पायेंगे कि सभी सम्प्रदाय दो के विभाजन से विभाजित है। एक आत्म-कल्याण की ब्रह्म परम्परा से हैं जो निराकार को ज्ञान के मार्ग से मान्यता देती उसी के समानांतर एक निराकार को तप के माध्यम से मान्यता देती है। इसी के सामानांतर जगत के व्यक्त\साकार रूप को मान्यता देकर गुरु परम्परा,पूजापाठ,सामूहिक आयोजन इत्यादि को मान्यता देती है,जो जगत-कल्याण का हेतु होता है।
ये तीनों मान्यताये अंततः एक ही बिन्दु पर केन्द्रित हैं और वह है यह मानव देह जो हमें मिली है यही केन्द्रीय सत्ता है,भूतकाल-भविष्यकाल का केंद्र वर्तमान का जीवन है अतः जो राजनैतिक सत्ता इस सत्ता को नहीं समझ पाती और इंसान के वर्तमान को आभाव ग्रस्त बना देती है वह अमान्य होनी चाहिए। उसे मान्यता नहीं मिलनी चाहिए, अतः नैतिकता की नीति यह कहती है कि हमें वर्तमान की राजनैतिक प्रणाली को अमान्य कर देना चाहिए और सर्वजन सुखाय,सर्वजन हिताय, सर्वमान्य व्यवस्था बनानी चाहिए।
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