Once being the world's master,India is the world's oldest and largest democratic system creater nation. This is not the thing to prance upon forefathers like the way Lucknow's tongawala's call themselves posterity of Nawabs. nor this is the laughing matter at the prancing one, Looking at India's current selfmade predicament. But it the centerpoint(Krishnbindu) to think seriously that instead of leading, why are we trailing today ! In this blog we will analyse on the morality-immorality's past-present-future!

(1)माना कि भारत भी विश्व के अन्य राष्ट्रों की तरह वित्त द्वारा शोषण करने वाली यक्षीय अनुबंध प्रणाली में बंध गया है लेकिन इस का यह अर्थ भी नहीं है कि उद्योग-वाणिज्य की कॉमर्शियल प्रणाली से इतने बँधे रहें कि आहार का उत्पादन करने वाले वर्ग की क्रय-क्षमता ही समाप्त होती जाये और अंततः उद्योग भी ठप हो जाये..

(1) suppose that India, like other nations of the world, is bound by Yakshiya agreement system exploiting by finance. But this does not mean to be hardly bound by the commercial industry system that purchasing power of the food producing class, terminates. And eventually the commercial industry come to a standstill.

(2)कृपया भारत और भारतीयों की तुलना उन देशों से ही करें जहाँ अर्थ-व्यवस्था का मूलाधार प्राकृतिक उत्पादन हो.वैदिक संस्कृत के शब्द "स्वास्ति-सृष्टम" का शब्दानुवाद है "सनातन-धर्म-चक्र" और इसका लेटिन शब्द है "इकोलोजीकल चैनल". भारत में "सनातन धर्मी अर्थ-व्यवस्था पद्धतियाँ" पुनर्स्थापित होनी चाहिए अर्थात "इकोनोमिक्स मस्ट बी इकोलोजी बेस्ड".

(2) Please compare India and Indians to those countries where foundations of The economy is natural production. Vedic Sanskrit word SWAASTI-SRISHTAM's literal translation is "Sanatan Dharma Chakra". It's Latin word is "Ecological Channel." means "the Eternal Righteous-System Practices" must be restored in India. Ie "Economics Must be Ecology-based".

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

10. दानव-मानव बनाम वामन अवतार !

     दैत्यों एवं देवों (आदित्य) के बाद की पीढ़ियों में दो नये नामों का सृजन हुआ। दो अन्य नाम बने जो दानव एवं मानव शब्द थे । 
     जब प्रलाद के वंशज राजा बली ने विकास की उसी परिभाषा को पुनः स्थापित किया और नगर निर्माण की योजना के अन्तर्गत भूमि पूजन किया तो बौने पण्डित (वामन पण्डित) ने अपनी दक्षिणा के रूप में वह भूमि ही मांग ली। बली ने भूमि दान में दे दी। 
     राजा बली के पुरोहित शुक्राचार्य थे और देवों के पुरोहित वृहस्पति थे।जब भूमि पूजन हो गया तो पुरोहित ने अपना पौरोहित्य माँगा तो दानवीर राजा ने उसकी इच्छानुसार पौरोहित्य देने का वचन दे दिया। जब वामन पुरोहित ने उसी भूमि को दान में मांग लिया जिस पर नगर निर्माण की योजना बनी थी तो वचन में बंधे बलि ने जब, भूमिदान के निमित संकल्प लेने के लिए, हथेली पर जल लेना चाहा, तो उस दान का बार बार विरोध करने वाले शुक्राचार्य ने मक्खी बन कर जलपात्र की टोंटी में अवरोध पैदा किया तो वामन पण्डित ने बलि को सलाह दी कि तिनके से टोंटी को साफ़ करे। इस में शुक्राचार्य की एक आँख चली गई और वे काणें हो गए, तब से काणे व्यक्ति को शुक्राचार्य कहा जाता है। 
      इस घटना में वामन अवतार ने तीन कदम,पांवडे भूमि मांगी थी, फिर दो कदमों में ही पूरी भूमि नाप ली और तीसरे कदम को रखने का स्थान चाहा तो बलि ने तीसरा कदम अपनी पीठ पर रखने के लिए कहा और तब पीठ पर लात मार कर बलि को पाताल लोक भेज दिया।
      पौराणिक कथाओं के दो आयाम हैं। जब आप पुराणों की कथाएँ पढेँ तो आप को ऐसा लगेगा कि जैसे बच्चों के लिए काल्पनिक कथाएँ हैं। इनका इतना अधिक विस्तार है कि आप उन कथाओं में सारगर्भित तथ्य को ढूंढना चाहें तो आपका धैर्य जबाब दे सकता है, इसी धैर्य की परीक्षा लेने और जनसाधारण को फंतासी Fantasy से में आकर्षित किये रखने के लिए प्रतीकात्मक भाषा का उपयोग किया गया है। इस तरह यह या तो इनको वे ही लोग पढ़ पाते हैं जो यथार्थ के स्थान पर विभ्रम पसंद करते हैं या फिर सत्य को जानने के लिए धेर्य की परीक्षा में सफल हो जाते हैं और धेर्य पूर्वक प्रतीकात्मक भाषा को समझने का प्रयास करते हैं।
      यहाँ पाताल लोक का अर्थ गोल भूमि के दूसरी तरफ से है और जहां की धरती उपजाऊ नहीं होती उसे भूमि नहीं कहा जाता है। भू का एक शब्द रूपांतरण बहु होता है जिसे भू भी बोला जाता है।बहु का अर्थ होता है जो सन्तति को जणेगी,पैदा करेगी,जायते से जायेगी बना जिसका अर्थ है जन्म देना।   
     दान में भूमि देने कर पाताल लोक में जाने का अर्थ है उपजाऊ भूमि को दान में देकर अनुपजाऊ बर्फीली, दलदली,पथरीली सतह वाली यूरोप की धरती पर चले जाना।
     जब यूरोपियन जातियाँ भारत में आयीं थी उस समय उनके द्वीपों के नाम बलि के परिजनों और पुरानो में उस समय के अन्य वर्णित लोगों के नामों से मिलते जुलते थे,तब फिर उनके नाम बदल् दिए गए थे।
     इस घटना में यक्ष जो कि वचन में बाँध कर आर्थिक,शारीरिक श्रम और देहिक शोषण करते हैं उनको उन्हीं के हथियार से चौट की गयी थी।लेकिन चूँकि अवतार रूप में जो पैदा होता है वह अनैतिक कार्य नहीं कर सकता।उपजाऊ भूमि को सुरक्षित करके समुद्री और बर्फीली भूमि पर चले जाने को मजबूर करने के पीछें जो मकसद था वह था कि नगर निर्माण और औद्योगिक विकास करना हो तो अनुपजाऊ भूमि पर करो।
     आज मैं जो परियोजना दे रहा हूँ हूँ उसका मकसद भी यही है।
    दान की एवज में बौने पण्डित वामन अवतार ने दैत्यराज बली को कुछ माँगने के लिए कहा लेकिन स्वाभिमानी राजा ने प्रस्ताव नकार दिया तब वामन अवतार ने देवो द्वारा उत्पादित पुण्य [धन-धान्य] दैत्यों को देने का वचन दिया। 
     इस तरह दान देकर दान लेने वाले को दीन हीन बना कर उसका पुण्य ख़रीदने के कारण बली का नाम दानव पड़ा और देवों को मान-सम्मान, मान्यताओं और मानसिक शक्तियों से पुण्य अर्जित करना सिखाया तब उनका नाम मानव पड़ा। तब से वैदिक सभ्यता संस्कृति दो भागों या दो तरह की जीवन शैली में दो अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित हुई। दैत्यराज से  दानवराज बने बली को केस्पियन सागर के एक तरफ की यूरोप की भूमि आवंटित हुई और देवों को दूसरी तरफ की एशिया की भूमि। जो बाद में आर्यावर्त कहलाया। उस समय का भारत वर्ष  मनुष्य,मनीषी,मुनि-ऋषि यानी  नर-नारी  अधकार वाली ब्राह्मण जाति का माना जाता था और वनोत्पादन के अर्थशास्त्र वाला तथा प्रतेक कार्य में दक्ष होने वाली जातियों का माना जाता था।आत्म-अनुशासित रहने वाले संस्कारित लोगों का माना जाता था।
      लेकिन आज भारत भी दानव सभ्यता की गिरफ़्त में आगया है।धनधान्य पैदा करने वाले लोगों को उनके उत्पादन की उचित कीमत न देकर पहले तो उन्हें दीनहीन बनाया जाता है तत्पश्चात उन्हें एडहोक,अनुदान,     Grant,सहायता, help,मदद, उपकार नाम पर ऋण दिया जाता है उसी को दान कह कर दानव प्रवृति का परिचय देते हैं।
      कालान्तर में जब दैत्यों एवं दानवों के वंषजों में रावण के नाना ने पुनः साम्राज्य विस्तार के मन्तव्य से लंका पर डेरा डाला तब भारत अपने पूर्ण प्राकृतिक वैभव पर था । (इससे पूर्व काल का एक रावण आस्ट्रेलिया का भी था) 




बुधवार, 1 अगस्त 2012

8. दक्ष कन्याओं की रक्षा करें !

          हाँ ! इस जीवन चक्र से मुक्त हुआ जा सकता है, लेकिन कब ! जब हम जीवन काल में काम एवं अर्थ से मोक्ष प्राप्त करें तब। यदि मोक्ष प्राप्त नहीं करना चाहते हैं अथवा करना चाहते हैं तब भी हमारा धर्म बनता है इस पृथ्वी ग्रह पर हम प्राकृतिक स्वर्ग को विकसित करें क्योंकि वर्तमान का काम एवं अर्थ वाला वैदिक स्वर्ग हमें क्षणिक आनन्द देने वाला है । इस दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए हमें काल चक्र को बड़े काल-खण्ड के परिप्रेक्ष्य में भी समझना होगा ।
        सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो जानने की है वह यह है कि हमारा स्थायी निवास यह धरती है। क्योंकि इच्छित, हितकारी,प्रिय एवं उचित परिणाम,फल देने वाला सर्व-कल्याणकारी शिव तो इस स्थूल संरचना में ही प्राप्त होता है अव्यक्त में सत और चित्त दो आयाम ही होते हैं वहां आनंद की अनुभूति देने वाली ज्ञानेद्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ  नहीं होती ये तो हमें देह धारण करने पर ही मिल पाती हैं।अव्यक्त तो सिर्फ पुनरावर्तित करने वाला दर्पण है यानी पक्षियों के उड़ने भर जितना काल खंड होता है। स्थायी बसेरा तो धरती ही है। अतः हमें पृथ्वी की प्राकृतिक सम्पदा जो स्वर्ग का निर्माण करती है जिसके राजा इंद्र (मानसून) हैं उस स्वर्ग की रक्षा करना हमारा सर्वोपरि धर्म बनता है। 
 एक लाख बीस हज़ार वर्ष का एक चतुर्युगी कालखंड होता है। इतना ही कृत युग होता है। एक लाख बीस हज़ार वर्ष के कृत युग के काल खण्ड के समाप्त होने तक पृथ्वी ग्रह पूरी तरह हरा-भरा हो जाता है तब दक्ष प्रजापति की कन्याओं का राज रहता है। नरपुरूष का शरीर कमजोर हो चुका होता है तब शाकाहारी पशुओं की तरह सन्तान रूप में मादा पैदा होने का अनुपात बढ़ जाता है । 
दक्ष प्रजापति का क्षेत्र उस ब्रह्मपुत्री नदी का वह क्षेत्र है जो हिमालय पर्वत से समुद्र तक जाने के लिए एक लम्बा मार्ग तय करती है । ब्रह्मपुत्र घाटी तथा उसके चारों तरफ फैली पर्वत श्रृंखला पर फैली सभी जातियों में आज भी लड़की पैदा होने पर प्रसन्नता ज़ाहिर की जाती है और लड़का पैदा होने पर अफ़सोस जताया जाता है. 
पृथ्वी जब वनस्पति विहीन हो जाती है तब यही एकमात्र क्षेत्र बचा होता है जहाँ वनस्पतियों, प्राणियों के साथ-साथ मानव की सभी प्रजातियों के गुणसूत्र यहाँ की जन-जातियों के माध्यम से बचे रहते हैं । 
अतः विश्व स्तर पर मैं विश्वजनों से यह अनुरोध करना चाहता हूँ कि GOD पार्टिकल खोजने के स्थान पर इन दो बिन्दुओं पर सर्वसम्मति बनायें। 

1. परमाणु-विखण्डन की प्रोद्योगिकी पर अंकुश लगायें और पृथ्वी पर डेज़र्ट का विस्तार न करें । दूसरे ग्रहों पर जीवजगत खोजने के स्थान पर पृथ्वीग्रह के जीवजगत की चिन्ता करें । पृथ्वी ग्रह के अलावा किसी दूसरे तीसरे ग्रह पर जीव की सम्भावना को तलाशने के स्थान पर पृथ्वीग्रह के जीव जगत का विस्तार करें । 

2. ब्रह्मपुत्री घाटी क्षेत्र में मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था जो विलुप्त होने के कगार पर है, उसे बचाने के उपाय करें । उस क्षेत्र में स्थापित हो चुकी औद्योगिक ईकाईयों को दूसरे स्थानों पर स्थानान्तरित करें और रेन-फोरेस्ट ईकोलोजी को पनपने दें । वनों की कटाई पूरी तरह बन्द की जाये । वार्षिक वर्षा के आंकड़े बताते हैं, यह क्षेत्र सबसे अधिक यानी चिन्ता की सीमा तक प्रभावित हुआ है । 

इस बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए कश्यप प्रजापति से वर्तमान तक की मानव सभ्यता संस्कृति को क्रमशः समझें जिसे भारतीय पौराणिक साहित्य के माध्यम से भी समझा जा सकता है।
   अतः यह चिंता या आशंका तो छोड़  दो कि 21-12-2012 को दुनिया नष्ट हो जाएगी बल्कि यह चिंता करो कि यही हाल रहा तो विश्वयुद्ध निश्चित है और आपको अगला जीवन या तो पशुयोनी में स्वीकार करना पडेगा या फिर लम्बे समय तक गर्भ का इन्तज़ार करना पडेगा,फिर भी आदिवासी के रूप में जन्म लेना पडेगा।
    वर्त्तमान की विकसित सभ्यता को बनाये रखना चाहते हैं तो भारत से शुरू करें और इसके लिए प्रथम चरण में भारतोय राजनीति को दल-दल मुक्त करें।

 दक्ष कन्याएँ 

     दक्ष कन्याएँ कैसी होती है इसको प्रत्यक्ष देखना चाहें तो अभी भी भारत-राष्ट्र के पूर्वोत्तर क्षेत्र के सभी राज्यों सहित ब्रह्म प्रदेश [म्यामार] में अर्थात भारत-वर्ष के मध्य क्षेत्र में आज भी देखा जा सकता है। उस मातृ-सत्तात्मक क्षेत्र में लडकियाँ सभी विषयों में अग्रणी के साथ-साथ अपने बलबूते पर घर चलाने में दक्ष हैं। एक चौथाई हेक्टर [50X 50 mtrs ] क्षेत्र में अपनी सभी आर्थिक आवश्यकताएँ पूरी कर लेती हैं। एक तरफ एक पुखरी,पोखर बना कर उसमे मछलियाँ पाल ली जाती है जिनका मूल आहार तो उन्हें प्राकृतिक वनस्पतियों से मिल जाता है अतः जूंठे बर्तन धोने से मिलने वाला अन्न उनके लिए पर्याप्त पौष्टिक आहार हो जाता है।
     पोखर की मछलियाँ परिवार के साथ-साथ बतखों का आहार भी होता है और इस तरह मछली,अण्डे और मॉस तीन चीजें मिल जाती हैं। 
      एक किनारे पर बांस लगा लिए जाते है जो मकान,फर्नीचर,बर्तन और सजावटी सामग्री सहित अनेक तरह के कामों में उपयोगी होता है। इसमे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन सभी प्रकार की वस्तुयें बनाने के वास्तुशास्त्र में वहां की सभी प्रजातियों की महिलायें दक्ष होती हैं।
       एक तरफ पान की बेलें और ताम्बूल के पेड़ लगा कर पानसुपारी का सेवन और मेहमान बाजी दोनों आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं। एक तरफ चावल और सब्जियाँ भी पैदा करली जाती हैं।बाजार से सिर्फ चूना और नमक दो ही चीजे लानी होती हैं।अनेक तरह की खाद्य सामग्री चारों तरफ उगी रहती है।
       आज जब औद्योगिक विकास की सुविधा उपलब्ध है तो धागा बना बनाया और रंगा रंगाया मिल जाता है अतः धागा घर पर नहीं बनाया जाता लेकिन आज भी आपको घरों में हाथ करघे  Hand looms में कपडे बुनने में दक्ष कन्याएँ देखने को मिल जायेंगी।

       लेकिन आज आज हमने पुरुष सत्ता को इस तरह स्विकार कर लिया है कि नारी को,जो कि शक्ति है फिर भी उसको शोषित मानकर नारी कल्याण की बात कर रहे हैं लेकिन जहाँ की नारीयाँ मानव प्रजातियों सहित निसर्ग के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए कृत युग में सती धर्म,भगवती धर्म,भागवत धर्म को निभाते हुए, पृथ्वी के पृथा धर्म को निभाते हुए पार्थ की विलुप्त होती नस्ल को पुनः विस्तार देती हैं,सनातन-धर्मचक्र को पुनः गति देतीं हैं  वहाँ की नारी सत्ता को सम्मान नहीं दिया जा रहा है।      अतः मैं पूर्वोत्तर क्षेत्र की सभी जातियों की महिलाओं से अपेक्षा करता हूँ कि वे इस आन्दोलन के एक भाग का केंद्र बनें और निर्दलीय रूप में अपने क्षेत्र के राजनैतिक जन प्रतिनिधि के रूप में सिर्फ महिलायें ही खड़ीं हों और पूर्वोत्तर की राजनैतिक सत्ता को अपने हाथ में लें। इसे अपनना धर्म [उत्तरदायित्व और अधिकार] समझ कर आन्दोलन के एक भाग को, एक वर्ग को यानी नारी सत्ता को और वर्षावनो के अर्थशास्त्र को कम से कम पूर्वोत्तर राज्यों में, मानव संस्कृति की धरोहर को अक्षुण बनाये रखने के लिए मातृ धर्म को धारण करें।


7. " इष्ट है मेरा तूं इसलिए दृढ़ता से यह तेरे हित में कहूँगा "!

कश्यप प्रजापति ने दक्ष प्रजापति की कुल कितनी कन्याओं से विवाह किया यह संख्या भिन्न-भिन्न बताई गई है । लेकिन एक बिन्दु सभी उल्लेखों में एक समान है । ये अलग-अलग प्रजातियों की माताऐं कही गई हैं । इन्हें लोक माताएँ भी कहा गया है । 
कश्यप ऋषि को अर्वाचीन अर्थात् प्राचीन से भी पूर्व का माना गया है क्योंकि इनका उल्लेख वैदिक साहित्य की सभी धाराओं में मिलता है । हाँ शब्दों का अर्थ न जानने के कारण हिन्दी में जो अनुवाद मिलते हैं वे बड़े बेतुके (अतार्किक) हैं । इसके पीछे एक छोटासा कारण है । सन्तान और पुत्र को एक अर्थ में लेकर तत्पष्चात् भाषा-अनुवाद का भाव-अनुवाद कर देना । 
पुत्र का अर्थ होता है ‘‘परम्परा की पालना करने की पात्रता रखने वाला ।‘‘ सन्तान, शिष्य, सेवक ये तीनों पुत्र कहे गये हैं ।
        (1) गर्भ से पैदा करने वाली, (2) लालन पालन करने वाली धाय तथा (3) संरक्षण देकर संस्कार विकसित करने वाली शिक्षिका तीनों माताएँ कही गई हैं । 
    (1) पितृकुल के पूर्वज तथा (2) शिक्षा एवं (3) दीक्षा देने वाले गुरूकुल के पूर्वज जो पीतर योनी के माध्यम से अपने पुत्रों को कुलीन बनाते हैं। ये तीनों पिता कहे गये हैं ।  
अब यदि शब्दानुवाद से भावानुवाद और पुनः भावानुवाद से शब्दानुवाद हो तो अन्ततः अन्धानुवाद हो जाता है. जैसे कि कश्यप की पत्नी विनिता के गर्भ से पक्षी, कद्रू के गर्भ से सर्प, सुरभि के गर्भ से गौ, सरमा के गर्भ से कुक्कुर आदि सन्तानें पैदा हुईं । 
अब यदि हम इस तरह का अनुवाद करके फिर यह प्रमाणित करना चाहें कि भारत विश्व गुरू था, झण्डा ऊँचा रहे हमारा तो यहाँ एक हास्यास्पद स्थिति बन जाती है । इसी तरह भारत राष्ट्र की वर्त्तमान की भौगोलिक सीमा रेखा में ही हम कश्यप प्रजापति, शंकर और दक्ष प्रजापति की कपोल कल्पना करते है तो इसे राग द्वेष जनित पूर्वाग्रह कहा जायेगा । 
वर्तमान कालखण्ड इस चतुर्युगी का अर्थात् एक लाख बीस हज़ार वर्ष का अन्तिम काल खण्ड है । कलियुग के बारह हज़ार वर्षो में पाँच हजार निकल चुके हैं और सात हज़ार वर्ष बाक़ी हैं इसके बाद एक लाख बीस हज़ार वर्ष का कृतयुग आयेगा । 
कृतयुग में मातृसत्तात्मक यानी नारी के बाहुल्य वाली प्राकृत संस्कृति आती है.। इस दरमियान अर्थात सात हज़ार वर्ष की समयावधि में यदि हमने पृथ्वी को वनस्पति विहीन कर दिया तो कृतयुग सिकुड़ जायेगा और डायनासोर युग आ जायेगा । इसके विपरीत यदि वनस्पति बनी रही और परमाणु विखण्डन से डेज़र्ट का विस्तार नहीं हुआ तो कृतयुग के एक लाख बीस हज़ार वर्षो में पूरी पृथ्वी पुनः वनस्पति से आवृत्त हो जायेगी, भूमि पर हरियाली छा जायेगी । तत्पश्चात् पुनः कोई कश्यप और शंकर हिमालय की कन्दराओं से निकलकर आयेंगे तब पुनः पुरूष सत्तात्मक या पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था बनेगी । 
समझने की बात या इन सभी तथ्यों को एक सूत्र में बाँध कर बताने का मन्तव्य यह है कि जो परिवर्तन, काल द्वारा निर्धारित होता है उसके प्रति भी यदि हम यह सोच कर उसे स्वीकार कर लेते है कि जो होना होगा वह होगा, प्रकृति जनित प्रक्रिया है, इसमें हम क्या कर सकते हैं, तो यह शतुरूमूर्ग का आचरण कहा  जायेगा। 
     गीता जो कि भगवान द्वारा इंसान को कहा गया आख्यान है में भगवान [प्रकृति] इंसान [अपने ही द्वारा बनाए यंत्र ] को कह रहा है कि " इष्टः असि मे दृढम् इति ततः वक्षामि ते हितम् "
      अर्थात जिस तरह मैं तुम्हारा इष्ट हूँ उसी तरह " इष्ट है मेरा तूं इसलिए दृढ़ता यह तेरे हित में कहूँगा "
     अर्थात प्रकृति,कुदरत,The nature ने इंसान को बनाया अतः वह इंसान कि इष्ट है क्योंकि कुदरत ही इंसान को इच्छित एवं हितकारी फल,परिणाम देती है। इसी तरह कुदरत [भगवान] कह रहा है कि तूं इंसान भी मुझे उतना ही इष्ट फल,इच्छित एवं हितकारी परिणाम  देने वाला होता है अतः तुन मेरा इष्ट है। इस तरह इन्सान और भगवान का सम्बन्ध उभय पक्षी है अतः दोनों एक दुसरे के परस्पर इष्ट हैं। 
     अब यदि  इस तथ्यों को जान कर भी हम यही सोचते रहे की हम साधारण हैं क्या कर सकते हैं तथा कुछ मुट्ठी भर लोगों की काम एवं अर्थ जनित कामनाओं की पूर्ति के लिए विकसित किये गये परमाणु बमों का और न्युक्लियर रियेक्टरों का विकास इसी तरह समर्थन और विस्तार करते रहे तो इस आचरण के लिए कहा जायेगा ''हम असुरों के समर्थक और पोषक हो गये हैं,  देवताओं के इष्ट नहीं रहे।"
    इस तथ्य पर केन्द्रित भूतकाल-वर्त्तमानकाल-भविष्यकाल के चक्र को समझें तो जो भूतकाल है वह काल पुनः भविष्य में वर्त्तमान काल बन कर आयेगा। ठीक उसी तरह जिस तरह बीता हुआ कल, आज और आने वाला कल हमारे लिए एक जैसी परिस्थियाँ लाता है। प्रातः का मौसम, दोपहर का मौसम और संध्याकाल तीनों पुनः पुनः आते हैं बीच में रात्रिकाल आता है। अन्ततः हम विकास की इस प्रक्रिया में वृद्धावस्था को प्राप्त करके इस कलेवर (कवर) को त्याग कर नये कलेवर में आते  हैं। यह जीव का अपना निजी जीवन चक्र है।  जिसमें अनेक जीवन काल होते हैं । 
हाँ ! इस जीवन चक्र से मुक्त हुआ जा सकता है, लेकिन कब ! जब हम जीवन काल में ही काम एवं अर्थ से मोक्ष प्राप्त करें तब। यदि मोक्ष प्राप्त नहीं करना चाहते हैं अथवा करना चाहते हैं तब भी,दोनों ही परिस्थिति में   हमारा धर्म बनता है कि इस पृथ्वी ग्रह पर हम प्राकृतिक स्वर्ग को विकसित करें क्योंकि वर्तमान का काम एवं अर्थ वाला आसुरी वैदिक स्वर्ग हमें क्षणिक आनन्द देने वाला है। इस दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए हमें काल चक्र को बड़े काल-खण्ड के परिप्रेक्ष्य में भी समझना होगा।

6. कश्यप के दो देत्य बारह आदित्य !




    एक लाख बीस हज़ार वर्षों की एक चतुर्युगी होती है और इतने ही वर्षों का एक कृतयुग होता है । इस तरह दो लाख चालीस हज़ार वर्षों का एक पूर्ण युग चक्र होता है । ऐसे हज़ारों युगों का एक कल्प होता है जो ब्रह्मा का एक दिन कहा गया है। 
    ब्रह्मा का यह दिन रात तो सूर्य के प्रकाशित होने और ठण्डे होने से बना कल्प है। ग्रहों की गति से नापे जाने वाले युग का निर्धारण प्रकृति निर्मित काल खण्ड से होता है लेकिन कल्प का निर्माण ब्रह्मा करते हैं। यहाँ पर ब्रह्मा का एक दूसरा तात्पर्य सूर्य के चुम्बकीय क्षेत्र से नहीं बल्कि ब्रेन से है, ब्राह्मण कहे जाने वाले उस व्यक्ति से है जो ब्रह्म में रमण करता है।     
    तात्पर्य यह कि एक तरफ हज़ारों युगों का ब्रह्मा का एक दिन भी कल्प कहलाता है तो दूसरी तरफ एक युग (चतुर्युगी) में भी अनेक कल्प हो सकते हैं। 
    एक ब्राह्मण (ब्रह्मा) जब संकल्प-विकल्प का सहारा लेकर अपनी कल्पना से एक सुन्दर समाज व्यवस्था की संकल्पना प्रस्तुत करता है तो उसे भी कल्प का सृजन ही कहा गया है।     
    यहाँ हमें वर्तमान कल्प के परिप्रेक्ष्य में एक विरोधाभासी तथ्य को लेकर उसके पीछे के अंतर्विरोध को समझने का प्रयास करना चाहिये ।  
   (1) युग परिवर्तन, (2) प्राकृतिक दुर्घटना एवं (3) मानव के अमानवीय आचरण ।          
   इन तीनों में से कोई एक अथवा दो अथवा तीनों ही कारणों के अलग-अलग अथवा एक साथ होने से कोई एक कारक ( फ़ैक्टर) पैदा होता है और मानव सभ्यता काल का ग्रास बन जाती है या कहें मानव मानव साम्राज्य, हयूमन किंगडम संख्या में सिकुड़ जाता है। वह कल्प का अन्त कहा जायेगा। कालान्तर में फिर इसका उत्थान होने का जब समय आता है तो वह कल्प का आदि (प्रारम्भ) कहा जाता है ।        
    कल्प के आदि में एक व्यक्ति अथवा एक मत पर पूर्ण सहमति से एक समूह, जगत का पुनः विस्तार करने की दिशा में सक्रिय होता है। संकल्प-विकल्प का सहारा लेकर कल्पनाशील नेतृत्व में नये कल्प का प्रारम्भ होता है। यहाँ हम वर्तमान कल्प के आदि विषय में एक बिन्दु पर अपना ध्यान केन्द्रित करें तो एक विरोधाभास महसूस होता है ।       
    भारतीय सांस्कृतिक मान्यताओं में शंकर को छोड़ कर सभी देवी-देवताओं के जन्म दिन मनाये जाते हैं । शंकर के विवाह के उपलक्ष्य में महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। इसके पीछे मूल अवधारणा यह है कि शंकर इस पृथ्वी का पहला नर पुरूष है अतः उसके जन्म दिन का पता नहीं। शंकर ने किसी गर्भ से जन्म नहीं लिया बल्कि ईश्वर (ईथर) के द्वारा अणु परमाणुओं को अनुशासित करके पहली मानव देह की रचना की। हम सभी मानव उनकी सन्तान हैं। इसी शंकर शब्द का अभिप्राय आदिपुरूष, आदिनाथ, आदम इत्यादि है ।      
      एक अवधारणा जो सर्वाधिक उपयुक्त लगाती है, उसके अनुसार चतुर्युगी की समाप्ति होते-होते  मानव नस्ल की देह दो से चार फ़ीट रह जाती है, तब हिमालय की कंदराओं से मानव नस्ल की मूल आकृति का 18 फ़ीट ऊँचा यति मानव आता है और पुनः पहले तो मानव नस्ल का विस्तार होता है फिर नस्ल की विनास यात्रा शुरू होती है।    
    फ़्रायड ने अपने उत्पतिवाद में यह कल्पना की कि इस पृथ्वी पर किसी अन्य ग्रह से कोई पहला मानव आया और उसी की सभी सन्ताने हैं। उनके विकृत मनोविज्ञान के परिणामस्वरूप अन्य विकृत देह के पशु पैदा हुए ।       
   चुंकि वह यक्ष-रक्षस परम्परा से जुड़ा भौतिकवादी था अतः इस भारतीय मान्यता को उसने अपने दृष्टिकोण से समझ कर उस पर अपने नाम का ठप्पा लगा कर इस धारणा को अपनी निजी शोध बताया।        
  शंकर को पशुपति नाथ बताया है जो पशुओं (प्राणी नस्लों) की सुरक्षा और संवर्धन का उत्तरदायित्व निभाते हैं। प्राकृत धर्मों में आदिनाथ और यति शब्दों का उपयोग हुआ है। आदिनाथ, आदम,आदिबाबा (आदिवासियों में प्रचलित शब्द ) इत्यादि शब्दों का उपयोग हुआ है। वैदिक साहित्य में ऋषि कश्यप से पुरुष प्रधान व्यवस्था का प्रारंभ होता है।     
    शंकर को पृथ्वी के प्रथम नर-पुरूष के रूप में स्थापित करने की अवधारणा सनातन-धर्म की है। दूसरी तरफ़ वैदिक साहित्य के अनुसार वर्तमान कल्प के प्रजापति कश्यप हुए हैं,जो एक ऋषि (वैज्ञानिक) थे।    
    कश्यप प्रजापति का स्थान या कर्मक्षेत्र या उत्पति क्षेत्र उनके नाम से प्रख्यात हुए केस्पियन सागर के आस पास का क्षेत्र था। ब्राह्मण परम्परा के मूल पुरूष शंकर तथा वैदिक परम्परा के मूल पुरूष प्रजापति कश्यप, दोनों ने ही दक्ष प्रजापति की कन्याओं से विवाह किया था। यह बिन्दु दो जिज्ञासायें पैदा करता है। 1. क्या दोनों का काल खण्ड एक था ? 2. यदि दोनों ही प्रथम मानव थे तो फिर दक्ष प्रजापति कौन थे जो उनसे पूर्व में पैदा हो चुके थे। उनकी अनेक कन्यायें भी थीं।     
    कश्यप का स्थान केस्पियन सागर माना गया । शंकर का उत्पत्ति स्थान भी पश्चिम एशिया था। वर्त्तमान में मक्का की मस्जिद में जो केन्द्रिय निर्माण है वह एक शिवलिंग को आवृत्त करने (ढकने) के लिए बनाया हुआ है। किन्तु शंकर का आवास स्थान,तपोस्थली हिमालय पर्वत है। उन्होंने  पार्वती से विवाह करके अपना स्थाई निवास वहाँ बनाया था। घर जँवाई रहे ।    
     दक्ष प्रजापति मातृ प्रधान समाज से थे। इन्हें ब्रह्मा का पुत्र भी कहा गया है इनके नाम पर नदी जो कि स्त्रिलिग़ शब्द है फिर भी उसका नाम ब्रह्मपुत्र है.    
    शंकर ने एक पति-पत्नी धर्म और माता-पिता, नर-नारी, स्त्री-पुरुष , पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, भाई-बहिन दोनों को उभयपक्षी एक समान अधिकार वाली समाज व्यवस्था की नींव डाली। कश्यप से पित्तृ  सत्तात्मक समाज का प्रारंभ होता है,जो इन दोनों से काफ़ी बाद में मानव के स्वअनुष्ठित धर्म( सभ्यता ) के रूप में शुरू होती है।  कश्यप ने दक्ष प्रजापति की तेरह कन्याओं से विवाह किया था। 
     दक्ष का अर्थ कार्य कुशल,निपूण,प्रवीण, Efficient,Skilled,Conversant,Accomplished,Expert इत्यादि  होता है।जिस तरह शिक्षा लेकर शिक्षित होता है उसी तरह दीक्षा लेकर दीक्षित होता है तब दक्ष कहलाता है।लेकिन सच्चाई तो यह है कि दक्ष अथवा सिद्ध तो निरन्तर अभ्यास करने से होता है अतः यह दीक्षा परम्परा वह  परम्परा है जहां गुरु का आविर्भाव,आगमन होता ही नहीं है। जैसे कि दत्तात्रेय ने जब गुरु परम्परा की शुरुआत  की तो उनका कोई गुरु नहीं था लेकिन उनका कहना था कि मछली,कुत्ता,हंस इत्यादि 24 गुरु थे जिनसे उन्होंने कलाएं सीखी। 
     ये सभी बातें तब समाप्त हो जाती जब आप 'दक्ष कन्याओं' के स्थान पर अनुवाद में 'दक्ष प्रजापति की कन्याओं'  नहीं  करें। अर्थात जब 1.20.000 वर्षों का  चतुष्युगी काल समाप्त होता है तब तक 18 फीट ऊँचा यति,आदम, कमजोर होकर तीन चार फीट का रह जाता है तब कृतयुग शुरू होता है और शुरू होता है प्रकृति के विस्तार का कृत युग, तब नर:मादा का अनुपात 1:5,10 हो जाता है और वनोत्पादन का अर्थशास्त्र शुरू हो जाता है तब सभी काम नारी करती है और वह प्रतेक कार्य में दक्ष हो जाती है। इन्ही कन्याओं से विवाह करके कश्यप ने बहुपत्नी प्रथा और पुरुष प्रधान वैदिक समाज की आधार शिला रखी और शंकर ने नर-नारी समभाव की,एक पतिपत्नी वाली एकात्म परम्परा की नीँव रखी।       
     कश्यप के दिति के गर्भ से दो पुत्र पैदा हुए जो दैत्य कहलाये क्योंकि उनकी देह का आकार बड़ा था। वे दैत्याकार देह वाले थे। वे भयानक पुरूषार्थी किसी की उपासना नहीं करते थे।   
    अदिति के गर्भ से बारह आदित्य पैदा हुए। आदित्य सूर्य का ही एक नाम है। बारह आदित्यों को देव कहा गया। उनके बारह नाम उनकी प्राकृतिक गुणधर्मिता को दर्शाते हैं। यह प्राकृतिक गुणधर्मिता सूर्य के आचरण से कहीं न कहीं जुड़ी है। इनके बारह चारित्रिक नाम हैं :-
   1. इन्द्र:- वर्षा (मानसून) की प्रक्रिया का देवता अर्थात जिसने मानसून आने के नियमों की खोज की । यहाँ इन्द्र को सबसे बड़े भाई के पद पर स्थापित किया गया है। यह इस बात का प्रमाण है (मैं आगे जाकर इसी बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित कराने जा रहा हूँ) कि भारतवर्ष में गर्मी का मानसून कभी केस्पियन सागर से लेकर पूरे दक्षिण एशिया और आस्ट्रेलिया की सीमा तक को आवृत्त (कवर) करता था। भारतवर्ष में इन्द्र पद सबसे बड़ा पद माना जाता रहा है। इन्द्र का काम (कर्तव्य एवं अधिकार) वर्षा के वार्षिक चक्र को नियमित बनाये रखना था । 
    2. धातृ:- धृति बल को कैसे बढ़ाया जाये इस पर अनुसंधान करने वाला देव। 
    3. भग:- भग योनि (वेजाइना) को कहा जाता है । चैरासी लाख योनियाँ वर्गीकृत हुई हैं। यहाँ योनि का तात्पर्य प्रजाति (स्पीशीज, नस्ल) से लेना चाहिये। प्रजातियों की चारीत्रिक गुणधर्मिताओं पर शोध करना तथा संकर नस्ल पैदा करना इसका काम था। 
    4. त्वष्ट्र:- शरीर का आवरण त्वचा होता है। राष्ट्र की सीमायें भी त्वष्ट्र कही गयी हैं। त्वष्ट्र का विषय एक ही जाति (जीन्स, वंश, परिवार) के जीवों में पर्यावर्णिक स्थिति के कारण त्वचा पर चिकनाहट होना, बाल होना, त्वचा मोटी-पतली होना, अलग-अलग रंगों की होना जो एक प्राकृतिक घटना मानी जाती है, उस पर यानी  त्वचा के बिन्दु पर, जेनेटिक-विज्ञान पर शोध करना था। 
    5. मित्र:- ये रचना धर्मिता को पैदा करने वाली चारीत्रिक गुणधर्मिता पर शोध करने वाला देव था । विश्वामित्र परम्परा की शाखा इन्हीं से शुरू हुई। 
    6. वरूण:- जल एवं जलचरों से जुड़े विषय पर शोध करने वाला देव था। 
    7. अर्यमन:- मानव में वंशानुगत गरिमा कैसे पैदा हो अर्थात् वह कुलीन कैसे बने, इस पर शोध करने वाला  देव/पितर परम्परा का जानकार। 
    8. विवस्वत:- सूर्य से निकलने वाली वसु (चुम्बकीय तरंगें) प्राणी एवं वनस्पति पर क्या प्रभाव डालती हैं, इस पर शोध करने वाले देव। 
    9. सवितृ:- सूर्य से निकलने वाली प्रकाश तरंगें (फ़ोटोन) प्राणी के शरीर में यज्ञ का संचालन कैसे करती हैं, तथा वनस्पति में प्रकाश संश्लेषण (Photo-synthesis) क्रिया पर शोध करने वाला देव। 
    10. पूषन:- मांसपेशियों में बल पैदा होने और पुरूषार्थ करने तथा पुरूषत्व को प्राप्त करने के विषय का शोध कर्ता देव । 
    11. अंशुमत:- शरीर में तेज कैसें पैदा होता है उसके विषय पर शोध करने वाला। 
    12. विष्णु:- अणुओं में व्याप्त होकर उनमें गुणधर्मिता पैदा करने वाली प्रक्रिया पर शोध करना कि किस तरह एक ही तरह के परमाणु अलग-अलग तरीक़े से जुड़कर अलग-अलग योगिक बनाते है। तब किस तरह उनकी रासायनिक गुणधर्मिता अलग-अलग बन कर यज्ञ प्रक्रिया (रासायनिक क्रियाओं) में परिवर्तन कर देती है ।        
   कश्यप प्रजापति ने दक्ष प्रजापति की कुल कितनी कन्याओं से विवाह किया यह संख्या भिन्न-भिन्न बताई गई है। लेकिन एक बिन्दु सभी उल्लेखों में एक समान है । ये अलग-अलग प्रजातियों की माताऐं कही गई हैं । इन्हें लोक माताएँ भी कहा गया है। 
     इन्होने अन्य जीवप्रजातियों का संरक्षण संवर्धन किया।

5. नीति निर्धारण हेतु परिपूर्ण जानकारी !

        परिपूर्ण परिवर्तन के लिए और स्थायी  व्यवस्था हेतु नीति निर्धारण करना हो तो सृष्टि और ब्रह्माण्ड और जीव जगत के इतिहास की जानकारी होना आवश्यक होता है।                                  
      नीति-अनीति 
      1.येनकेन प्रकारेण अपना राज स्थापित कर लेना अथवा 2.दूसरों के राज को हथियाना अथवा 3.राज को संचालित करने के लोए लोगों को पोटाना / पटाना यानी पॉलिसी का उपयोग करना, ये तीन उदेश्य वैदिक राजनीति के विषय होते हैं.यह वैदिक परम्परा है.
     दूसरी तरफ धर्म धारण करने वाली ब्रह्मणी परम्परा कहती है की नैतिक मूल्यों को महत्त्व देते रहो अपनी नियत को काबू में रखो,अपनी प्रकृति को अपने ब्रह्म के अधीन रखो,स्वभाव को वश में रखो यानी स्वभाव से सहज बने रहो आपकी राजकीय सत्ता अक्षुण बनी रहेगी.
      ये दोनों समानांतर तथ्य हैं.जब हम वैदिक व्यवस्था में होते हैं तो हमे राजनीति करनी होती हैं.जब तक राज्य सत्ता में होते हैं तो यह राजनीति कहलाती है, लेकिन ज्योंही राज का एक अन्य अभिप्राय रहस्य भी जुड़ जाता है तो उसका अभिप्राय कूटनीति बन जाता है.
    हम यदि अब ब्रह्मणी-स्थिति को प्राप्त कर चुके होते हैं और ब्राह्मण के मानसिक स्तर तक पहूँच जाते हैं तो हम नैतिकता और नीयत को प्रथम प्राथमिकता में रख कर पोलिसी को द्वितीय प्राथमिकता में रख कर नीतिनिर्धारण करेंगे..
   इसी तरह हम उदेश्य /ओब्जेक्ट को द्वितीय प्राथमिकता में रखते हैं अथवा नकार देते हैं और विषय में बंध कर सब्जेक्टिव हो जाते हैं और हमारा उदेश्य सत्ता को प्राप्त करने तक सीमित हो जाता है और उदेश्य लोगों पर अपना राज स्थापित करना भर रह जाता है, तब पोलिसी में पोलिटिक्स का उपयोग करके समर्थकों को पटाने और विरोधियों को पाटने की प्रक्रिया प्रथम प्राथमिकता में रखकर उसी तक सीमित रह जाते हैं. इस तरह जब हमारी नीयत में खोट बनी रहती है तो फिर हमारे पतन को और हमारे ऊपर आश्रितों के दुर्भाग्य को कोई नहीं रोक सकता.
                                           राजनीति के भविष्य  का सांख्य 
     लेकिन गणित चाहे कुछ भी हो राजनीति का विषय शुद्ध वर्तमान से,आज के सम यानी आज की हार्मोनी से और आज के समाज की सामुहिक हार्मोनी का विषय होता है.प्रेजेंट काल के अनुसार बुद्धि का प्रजेंटेसन ही कुदरत, प्रकृति, नेचर, भगवान का दिया यह प्रेजेंट है,तोहफा, उपहार, भेंट, अहसान, अनुग्रह और रिश्वत है.
    चूँकि राज करने के लिए रजोगुणी प्रवृति होती और रजोगुणी प्रवृति हमेशा प्रासंगिक होती है अतः जब जहां जो प्रसंग चल रहा होता है उसीके समर्थन या विरोध में, अपनी-अपनी अनुकूलता और प्रतिकूलता की गणित पर रजोगुणी बुद्धि चलति है. लेकिन एक अंक के मान से दूसरे अंक का मान निकालने का दुनिया में कोई समीकरण अथवा सूत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है.अतः वर्त्तमान का यथार्थ ज्ञान + भूतकाल के घटनाक्रम का यथार्थ ज्ञान + विषयवस्तु  का सैद्धांतिक ज्ञान इन तीनों के योग-संयोग से भविष्य का निर्माण होता है.

                                            प्रमाणिक  ऐहित्य 
     इस ब्लॉग में पृथ्वी पर जगत (जीवजगत ) की उत्पति से लेकर बुद्ध महावीर के समय तक की स्थिति को ऐतिहासिक-धार्मिक साहित्य और वैज्ञानिक-दार्शनिक पृष्ठभूमि का समन्वय करके एक सुनियोजित क्रम /सिक्वेंस से स्पष्ट करने का प्रयास करूंगा. अभी जो इतिहास आप पढ़ रहे हैं वह भी नियोजित ही है    लेकिन दुर्नियोजित है।चूँकि राजनैतिक इतिहास तो सत्ताधीशों द्वारा ही लिखाया जाता है अतः वह प्रासंगिक हित में होता है,लेकिन जब राजनैतिक सत्ता पर बाणियों का (वित्त का) वर्चस्व होता है तो वे धर्म और विज्ञान को भी यातो  प्रासंगिक हित में उपयोग में लेने के लिए पैसा देकर उलजुलूल व्याख्या कर करवा देते हैं या फिर तथ्य उनके माथे के ऊपर से निकल जाते हैं तब उनका दर्शन आज की तरह मिथकों पर आधारित मोथों की मेथोलोजी बन कर पूरे समाज को ही भ्रामक अवधारणाओं से भ्रमित कर देती है.
      इसका सबसे बड़ा उदहारण है गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित धार्मिक साहित्य का, अब्राह्मणों द्वारा किया गया उटपटांग अनुवाद जिस कारण आज धार्मिक साहित्य को पढ़ते समय एक प्रबुद्ध पाठक को खीज आने लग जाती है.
       चूँकि विषय इतिहास का है जिसे राजनीति करने वाले अपने प्रासंगिक हित को ध्यान में रखकर भूतकाल की घटनाओं को साहित्य के माध्यम से प्रामाणिक बना देते हैं. 
            प्रमाणिक को अंग्रेजी में authentic कहा गया है.जो की ऑथ शब्द से बना है.ऑथ से ऑथर (लेखक) भी बना है।यानि पश्चिमी सभ्यता वाले वैदिक विषयों को तभी मानते हैं जब किसी ने लिख दिया हो और वह प्रकाशित हो गया हो लेकिन भारतीयों के दृष्टिकोण में वेद परम्परा को श्रुति परम्परा के रूप में माना और जाना जाता है क्योंकि इतिहास और विज्ञान की जानकारी प्राप्त करने के लिए साक्षर होना आवश्यक नहीं होता। सुनने-सुनाने से भी यह परंपरा चलती है इसीलिए गीता शब्द उस आख्यान के लिए काम में लिया जाता है जो गीत की तरह गाकर सुनाया जा सके और वैदिक सभ्यताओं के पतन के बाद भी वैदिक विषय जनमानस की स्मृतियों में शब्दकोषीय पुस्तकालय बन कर सुरक्षित रहे। इस तरह श्रुति परंपरा वाला वैदिक विषय भी अंततः स्मृति परंपरा वाली ब्रह्मण परंपरा पर आश्रित रहता है क्योंकि ये दोनों परम्पराएँ परस्पर मिल कर द्वैत रहती हैं तभी तक सनातन बनी रह सकती हैं।
         मैंने साहित्य से प्राप्त जानकारी को दार्शनिक विवेचन और वैज्ञानिक नियमों से तोल कर इनका मोल निकाला है।अतः अब शुद्ध वर्त्तमान काल से जुड़े विषयों के सन्दर्भ में यह भी जानें कि शुद्ध भूतकाल में इनका स्वरूप कैसा था!तभी भविष्य का माप-तोल कर सकेंगे। इस तरह "भूत + वर्त्तमान = भविष्य" के सांख्य सूत्र से भविष्य की संख्या का मान निकाला जा सकेगा। 
      चूँकि इस पूरे लेखन का उदेश्य परिपूर्ण परिवर्तन करना है तो फिर परिपूर्ण जानकारी भी चाहिए।यहाँ में पूर्ण अथवा सम्पूर्ण शब्द का उपयोग नहीं करके परिपूर्ण शब्द का उपयोग कर रहा हूँ.क्योंकि परिवर्तन कभी भी पूर्ण ( कम्पलीट ) नहीं हो सकता परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है जो होते रहना आवश्यक होता है, अवश्यम्भावी है और सम्पूर्ण (व्होल ) परिवर्तन न तो कभी संभव होता है और न ही उसकी कोई स्पस्ट परिभाषा होती है.
    परी का अर्थ होता है चारों तरफ अथवा वृत्त,वृताकार इत्यादि. परिपूर्ण परिवर्तन से यहाँ जो तात्पर्य है वह ऐसे परिवर्तन से है जिसके लिए यह कहा जा सकता कि दुश्मन को कभी भी कमजोर नहीं समझना चाहिए अतः उसे सभी दिशाओं से घेरना चाहिए. इस परियोजना में नये सिरे से नए भारत के निर्माण की परिकल्पना इसीलिए की गयी है ताकि एक ऐसे वर्गीकृत किन्तु अखण्ड-अविभाजित महाभारत को स्थापित-प्रतिष्ठित कर दिया जाये जिसमे प्रतेक वर्ग अपने-अपने क्षेत्र में समयानुकूल परिवर्तन कर सके तो दूसरी तरफ कोई भी वर्ग अन्य किसी भी वर्ग पर न तो हावी हो सके और ना ही कोई वर्ग ऐसे अनुबंध में बंधा हुआ हो कि उसे किसी अन्य वर्ग का आधिपत्य स्विकार करने की मजबूरी हो.सभी वर्ग अपने आप में आर्थिक-राजनैतिक-शैक्षणिक व्यवस्था- प्रणालिया अथवा व्यवस्था-पद्धतियाँ बनाने और उनमे परिवर्तन करने के लिए पर्याप्त ( परी-आप्त ) स्वतंत्र हों.
   आज अब जब मैं यह कह रहा हूँ कि राजनीति को दलदल मुक्त करें तो इसके साथ-साथ यह भी कह रहा हूँ कि जब कोई अपने स्वविवेक से सोचने के लिए स्वतन्त्र होगा तो मैं प्रत्येक सांसद को संतुष्ट करके सर्वकल्याणकारी परियोजना की एक-एक योजना को जनता के सामने बता कर जनता और जन    प्रतिनिधियों तथा प्रशासक और गैर सरकारी संस्थाओं को न सिर्फ संतुष्ट करूंगा बल्कि सभी को अपना-अपना धर्म ( कर्तव्य और अधिकार ) निर्धारित करने की विधि का सांख्य (समीकरण,फोर्मुले) भी स्पस्ट करूँगा.निर्दलीय संसद होने के कारन फिर किसी को भी न तो कुल्हड़ में गुड फोड़ने के सुविधा रहेगी और न ही अपने मौलिक विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए हाई कमान से इजाजत लेने की असुविधा का सामना करना पडेगा.  
     सबसे पहले हमने इतिहास को लिया है.यह इतिहास सृष्टि के सनातन अस्तित्व से शुरु होकर पृथ्वी पर जगत (जीवजगत ) के बारंबार प्रभव और प्रलय से होते हुए फिर युगों एवं कल्पों से होते हुए महाभारतकाल तक का जो भूतकाल है उसको इस नितिराज या राजनीति नामक ब्लॉग में वर्णित किया जा रहा है.अर्थात एक ऐसा कालचक्र जो भूतकाल भी है तो भविष्य के रूप में भी हामारा इंतज़ार करता रहता है.  
      तथा सामजिक पत्रकारिता में महाभारत काल से बुद्ध-महावीर के काल से होते हुए भारत की तथाकथित स्वतंत्रता तक के वर्तमान इतिहास की वस्तुस्थिति का यथार्थ दृष्टिकोण से अवलोकन किया जा रहा है 
   तथा निर्दलीय राजनैतिक मंच नामक ब्लॉग में द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि से लेकर वर्त्तमान तक की गुलामी की स्थिति की वस्तुस्थिति को यथार्थ दृष्टिकोण से देखा जाएगा.
    यह सब इसलिए आवश्यक है ताकि नवभारत निर्माण के दृष्टिकोण को इतना व्यापक बना सकें जिस दृष्टिकोण में राष्ट्र की सीमाएं, साम्प्रदायिक सीमाएं और भाषाओँ की सीमाएं छोटी लगने लगे और पृथ्वी का पर्यावरण, मानव धर्म और शिक्षा तीनों पर परियोजना केन्द्रित की जा सके ऐसी स्थिति में वे मुद्दे इतने छोटे हो जाने चाहिए जिन मुद्दों पर हम झुण्ड / दल बना-बना कर स्वान जैसी मानसिक प्राजाति के बन कर रह गएँ हैं और एक दूसरे झुण्ड पर गुर्राने, चिल्लाने और भोंकने तक हमने लड़ाई की सीमा निर्धारित कर रखी है। 
    अतः बुद्धिमानों,विद्वानों,ज्ञानियों से निवेदन है कि वे राजनीति से घृणा न करे जो सक्रिय राजनीति में आना चाहें वे अपने नाम को अपने क्षेत्र के लोगों के सामने खुलासा करे और जो मेरी तरह किंगमेकर बनने  में अधिक सुविधा, अधिक गरिमा, अधिक शालीनता महसूस करते हैं वे उन लोगों को उत्साहित करें जो सक्रिय राजनीति में रहना अधिक जिम्मेदारी का काम महसूस करते हैं और उस जिम्मेदारी को निभाना चाहते हैं.           
      पत्रकारिता के विषय के लेखकों की यह अपेक्षा थी कि भारत का नैत्रित्व किसी कल्पनाशील व्यक्ति के हाथ में आये तब एक अच्छी व्यवस्था बन सकती है.जैसा कि आत्म कथन में मैंने कहा है कि मैंने सभी विषयों का सांगोपांग अध्ययन किया लेकिन उसका उपयोग आय बढाने के लिए, वृति रूप में नहीं अपने आप को जानने के लिए किया है.
     यहाँ यह बताना प्रासंगिक है कि मेरी कुंडली में गजकेसरी योग है अतः में अपनेआप के बारे में इतना जानता हूँ कि में राजा नहीं राजा का मंत्री बन सकता हूँ. अतः मेरे नैत्रित्व की सीमा निदेशन तक ही संभव है.मैं किंगमेकर तो बन सकता हूँ लेकिन किंग नहीं.अतः जो लोग राजनैतिक सत्ता के इच्छुक हैं उनपर कोई आंच नहीं आएगी बस वे हायिकमानों से मुक्त होकर निर्णय लेने की योग्यता वाले होने चाहिए. 
    ॐ तत्सत    

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

4. उत्पत्तिवाद ! शैव सिद्धांत !

      शैव मान्यता इस से जुड़ा हुआ दूसरा आयाम है और ब्राह्मण  मान्यता तीसरा आयाम है।
      डारविन ने वैष्णव मान्यता को और फ्रायड ने शैव मान्यता को अपने अपने तरीके से प्रस्तुत किया और अपने नाम का ठप्पा लगा कर प्रकाशित करवा दिया। 
       शैव मान्यता है कि मानव का यह ॐ आकार का शारीरिक स्वरूप इसी आकार में सदा से है।     
       आदिनाथ,पशुपतिनाथ,आदम, आदि मानव,हिमालय की कंदराओं से निकलने वाला यति और शंकर इत्यादि सब पर्यायवाची या पूरक शब्द हैं। शैव मान्यता है कि ईश्वर जिसे परमपुरुष भी कहा गया है वह 108 अणु-परमाणुओं को अनुशासित करके अपने इस ॐ आकार का रूप स्वतः धारण करते हैं अतः यह स्वरूप कहा जाता है। 
       इसी बात को फ्रायड ने अपने तरीके से कहा कि 'इस पृथ्वी ग्रह पर किसी अन्य ग्रह से कोई मानव आया और उसी के मानसिक योन-विकार के परिणाम से अन्य स्तनधारी पैदा हुए'।
      जब कि इस त्रिआयामी जगत में तीनो आयाम सम [घन] होते हैं तब पूरी संरचना का सृजन होता है अतः जब तक हम तीनों विरोधाभाषी दृष्टिकोण एक साथ स्वीकार नहीं करेंगे तो आप निर्णायक तथ्य पर नहीं पहूंच पाएंगे।
     दार्शनिक,मुनि ब्रह्मण परम्परा कहती है कि यह भौतिक देह भाव पैदा करने वाली यांत्रिक ईकाई,यन्त्र है। आप जब भाव में भावित होकर चुम्बकीय बलरेखाओं वाले क्षेत्र में,काल से अतीत हो कर स्थिर स्थित हो जाते हैं तो आप अमर यानी अव्यक्त में भी अव्यय हो जाते हैं और अपनी संकल्प-विकल्प शक्ति से पुनः इस यंत्र का सृजन करके नई सृष्टि,नए कल्प  का सृजन कर सकते हैं और इस साईकिल को पुनः शुरू कर सकते हैं।
      ईश्वर की गुणधर्मिता को जानने वाले शैव कहते हैं कि परमपुरुष की स्थिति को प्राप्त करके आप जब जहाँ चाहें वहाँ स्थित हो सकते हैं।जिस यंत्र का रूप धारण करना चाहें कर सकते हैं यानी जिस योनि [प्रजाति],जैविक नस्ल का स्वरूप धारण करना चाहें कर सकते हैं।
     प्रकृति के नियमों को मानने वाले, वैज्ञानिक द्रष्टिकोण को मानने वाले वैष्णव कहते हैं कि विकास की एक प्रक्रिया है वह पूरी होती है अतः आप को तो बस इतना चाहिए कि वर्तमान में अभावों से मुक्त होकर सुख को अधिकाधिक प्राप्त करें, जो होगा वह प्रकृति के नियमानुसार कल्याणकारी ही होगा अतः समयानुकूल फिट होने का प्रयास करें।
    वैष्णव मान्यता इसलिए स्थापित की गयी ताकि अभाव में भी भाव बना रहे,प्रतिकूल परिस्थिति में भी विद्रोह नहीं हो। जबकि ब्रह्मण और शैव मान्यता प्रकृति के उन सुनिश्चित नियमों की मोहताज नहीं है जो सर्वत्र एक सामान होते हैं। परमपुरुष की प्राप्ति अनन्य भक्ति से होती है अर्थात ऐसी भक्ति जिसकी तुलना अन्य से नहीं हो क्योंकि यह स्वयं के शरीर पर तप का प्रभाव स्वयं ही महसूस किया जाता है,शिव-अहम् [शिवोहम]बना जाता है और अहम् ब्रह्मास्मि बना जाता है अर्थात भाव में भावित होकर अपने आप को एक Definite ईकाई और परम को Indefinite अनिश्चितकालीन 0 शून्य मानकर अन्य को बीच में नहीं लाता।इस तरह यह 1 और 0 पर चलने वाली ऐसे कम्प्यूटर की भाषा हो जाती है जिसमे खुद ही कहने वाला और  खुद ही सुनने वाला होना पड़ता है। खुद ही प्रश्नोत्तर होता है। 
     जितने भी धार्मिक सम्प्रदाय हैं उन सभी पर दृष्टि डालें तो आप पायेंगे कि सभी सम्प्रदाय दो के विभाजन से विभाजित है। एक आत्म-कल्याण की ब्रह्म परम्परा से हैं जो निराकार को ज्ञान के मार्ग से मान्यता देती उसी के समानांतर एक निराकार को तप के माध्यम से मान्यता देती है। इसी के सामानांतर जगत के व्यक्त\साकार रूप को मान्यता देकर गुरु परम्परा,पूजापाठ,सामूहिक आयोजन इत्यादि को मान्यता देती है,जो जगत-कल्याण का हेतु होता है।    
     ये तीनों मान्यताये अंततः एक ही बिन्दु पर केन्द्रित हैं और वह है यह मानव देह जो हमें मिली है यही केन्द्रीय सत्ता है,भूतकाल-भविष्यकाल का केंद्र वर्तमान का जीवन है अतः जो राजनैतिक सत्ता इस सत्ता को नहीं समझ पाती और इंसान के वर्तमान को आभाव ग्रस्त बना देती है वह अमान्य होनी चाहिए। उसे मान्यता नहीं मिलनी चाहिए, अतः नैतिकता की नीति यह कहती है कि हमें वर्तमान की राजनैतिक प्रणाली को अमान्य कर देना चाहिए और सर्वजन सुखाय,सर्वजन हिताय, सर्वमान्य व्यवस्था बनानी चाहिए।       

3. दशावतार ! विकासवाद ! वैष्णव सिद्धांत !

     वैसे तो अवतारों की लम्बी सूची है लेकिन दस अवतारों को विषेष सूची में रखा गया है क्योंकि इन्होंने सनातन धर्म के ईकोसिस्टम को विकसित करने में विषेष भूमिका निभाई थी। इसे विकासवाद या उद्विकास Theory of evolution or spans the evolution के समकक्ष रख कर देखें। 
    डारविन ने विकासवाद का जो सिद्धांत दिया था वह इस वैष्णव सिद्धांत की प्रतिलिपि थी उसने बहुत सारे जीवाश्म और हड्डियों के ढाँचे, कंकाल इकट्ठे किये थे और उन्हें क्रमबद्ध रख कर क्रमिक विकास The evolution का सिद्धांत बताया। जैसा कि भारत को जब हम विश्वगुरु कहते हैं तो इसका अर्थ यह तो मान कर ही चलना चाहिए कि सभी तरह का ज्ञान-विज्ञान पौराणिक मान्यताओं में संग्रह कर चुके हैं.चूँकि वैदिक परम्परा को श्रुति परम्परा भी कहा गया है क्योंकि ज्ञान-विज्ञान तो आगे से आगे कहने सुनने से ही फैलता है फिर उसकी प्रामाणिकता तो प्रयोग उपयोग से ही बनती है.अब जब लिपि का आविष्कार हो गया तो कहने सुनने के स्थान पर लिखने पढ़ने बोल सकते हैं.श्रुति को श्रुति लेखन कहा गया।
    आज जन साधारण में लिपि का ज्ञान फैला है लेकिन फिर भी आप अपने बचपन से लेकर अब तक की जानकारी के संग्रह पर नजर डालें तो आप पायेंगे कि अधिकाँश जानकारी परस्पर वार्ता और सुनने से मिली है। मान्यताएँ बना देने से ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी स्वतः चलता है। यह ऐसा तरीका है जिसमे साक्षर होना भी जरुरी नहीं होता।
    इसी परिपेक्ष्य में इस अवतार मान्यता को ही ले लें जिसकी जानकारी सभी भारतीयों को है।जब जानकारी होती है तो उसकी व्याख्या करने वाला भी कहीं न कहीं,कभी न कभी मिल ही जाता है।
    प्रथम अवतार: मत्स्य-अवतार ! विकासवाद का सिद्धांत है कि पृथ्वी पर सर्व प्रथम समुद्र का ही भाग था और सर्व प्रथम जलचर पैदा हुए। अतः प्रकृति को ही जगत की उत्पत्ति का हेतु मानने वाले वैष्णव मत में,मान्यता में प्रथम अवतार मत्स्य-अवतार बताया है।  
   यह अवतार व्हेल मच्छली के रूप में है। यह एक मात्र समुद्री जीव है जो स्तनधारी हैं। इसने जल-मग्न पृथ्वी पर पर्यावरण सन्तुलन यानी ईकोचैनल का सेटअप संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जब समुद्री शैवाल Algae की पर्याप्त उत्पत्ति हो रही थी तब समुद्र में शाकाहारी स्तनधारी मछलियों ने अपनी संतति का इतना विस्तार किया कि समुद्र भी छोटा पड़ने लग गया और जब बड़ी संख्या में उनका कब्रिस्तान बना तो वहां हाईड्रोकार्बन का जो संग्रह हुआ वह आज का पेट्रोलियम प्रोडक्ट नाम से जाना जाता है.
    द्वितीय अवतार: कष्यप-अवतार (कछुआ)। विकासवाद का सिद्धांत कहता है कि जलचर के बाद जब समुद्र के बाहर धरती पर भी मछलियाँ आने लगी तो वे उभयचर के रूप में विकसित हुई। जो पानी और जमीन दोनों पर रह सके उन जीवों का विकास हुआ। 
     वैष्णव मान्यता है कि जब पृथ्वी समुद्र में ही थी तब कश्यप,कछुआ जो कि उभयचर है, यह जल एवं स्थल दोनों पर रह सकता है, के रूप में भगवान अवतार लेकर पैदा हुए और अपनी संतति का इतना विस्तार किया कि उनकी पीठ पर के कवच ने ढोस धरातल का विस्तार किया तब दलदली भूमि समुद्र से बाहर आई.इस को दल दल से निकाला वराह ने।
     तृतीय अवतार-वराह-अवतार (सुअर)  जब दल दल हुआ तो जलीय शैवाल जमीकंद के रूप में विकसित हुए,जलीय वनस्पति जमीकन्द रूप में विस्तार लेने लगी।  तब वराह के रूप में भगवान ने अवतार लिया और जमीकंद खा-खा कर अपनी संतति का इतना विस्तार किया कि दलदली धरती, पृथ्वी, भूमि को दल-दल से मुक्त किया और ढोस धरातल का विकास हुआ। 
     चतुर्थ अवतार नृसिंहअवतार। ये आधे नर-मानव और आधे सिंह-पशु  थे। जिसने हिरण्य-अक्ष और हिरण्य-कशिपु को इस लिए मारा था क्योंकि वे वनों को नष्ट कर रहे थे और वे अपने विकास की परिभाषा से इतने अधिक चिपक गए की अपनी ही सन्तान प्रहलाद को,जोकि देवों का समर्थक था और प्राकृतिक जीवन शैली का समर्थक था, वनभूमि को आग के हवाले करने का विरोधी था। सुनहरी आँखों वाले हिरण्य-अक्ष [हिर्णाक्ष] और सुनहरे बालों वाले हिरण्यकषिपू को मारा लेकिन उनके वंशज बार बार मार खाने के बाद भी अपने स्वभाव [प्रकृति] से वशीभूत हुए पुनः आज भी अग्नि के ताण्डव से जगत का नाश भी करते हैं और अंततः खुद भी मार खाते हैं। वह मार कभी विष्णु के अवतार से तो कभी प्राकृतिक आपदा से खाते हैं और फिर अपनी नस्ल की सुरक्षा के लिए छिपते फिरते हैं। 
    पंचम अवतार वामन-अवतार। अर्ध विकसित बौना मानव जिसने उस राजा बली को उपजाऊ भूमि छोड़ने को मजबूर किया था जो नगर-निर्माण के लिए भूमि पर के वनों को कटवाना चाहता था। इन्होंने ही जम्बूद्वीप को यूरोप एवं एशिया के रूप में विभाजित किया और राजा बलि को अपने अनुयायियों सहित यूरोप में जाने को मजबूर किया इस तरह भरण-पोषण के लिए आहार पैदा करने वाले भूभाग को मुक्त कराया। उस समय से एशिया आर्यावर्त कहलाया । 
     षष्टम अवतार परशुराम अव़तार सत्व प्रधान जिन्होंने वनों की रक्षा करने के लिए वनो पर अतिक्रमण करने वाले क्षत्रियों का बार बार नाश किया था।  
    सप्तम अवतार रामावतार सत्व व रज प्रधान जिन्होंने उस रावण को मारा था जिसने आणविक उर्जा का अनुसंधान कर लिया था और दक्षिण भारत को रेगिस्तान बना दिया था। 
    अष्टम अवतार-कृष्णावतार जो (सत्व-रज-तम) तीनों प्रकार की प्रवृति का समयानुसार उपयोग करने वाले पूर्ण अवतार। जिन्होंने गौपालन संस्कृति को घर-घर में स्थापित किया। 
 सम्पूर्ण अवतार के बाद इन दोनों अवतारों को अंशावतार कहा गया है।
    नवम्-अवतार बुद्धावतार जिन्होंने वनों की रक्षा के लिए वैश्य वर्ग को उपदेश दिया और व्यापारिक दोहन से वनों को बचाया । 
    दशम् अवतार-कल्कि अवतार। इसी क्रम में कल्कि अवतार का वर्णन भविष्य पुराण में किया हुआ है कि यह अवतार पश्चिम दिशा से आयेगा। यह अपने पूर्ववर्ती अवतारों की परम्पराओं को अमान्य करेगा । अतः उस समय का ऋषी वर्ग उसे अमान्य कर देगा। इन्होंने भी तो असुरों के वंशजों का खात्मा करने का बीड़ा उठाया था लेकिन जिस तरह रावण को मारकर भी राम ने कुबेर को छोड़ दिया था उसी तरह मोहमद ने भी इनके एक झुण्ड [परिवार] को छोड़ दिया था और यह भी कह दिया था कि ये लोग ईमान नहीं ला सकते,इनका इमान मुसल्लम नहीं है। इससे पहले भी दो किताबें [इंजील Evangel और बाईबिल Bibles]   उतर चुकी है लेकिन ये ईमान नहीं लाये। जिस तरह अन्य अवतारों ने किया उसी तरह कल्कि अवतार ने भी किया और यह अवतार परम्परा सनातन है अतः अंशावतार तो और भी होते रहेंगे।
    जब हनुमान ने राम से पूछा: कि यह मुद्रिका जो आपने मुझे लंका जाते समय पहचान के लिए दी थी अब इसको कहाँ रखूं? तो राम ने एक कुआ बताया और कहा: उसमे डालदो।जब हनुमान उस कुए पर पहूंचे तो देखा कि कुए में पहले से ही वैसी ही असंख्य मुद्रिकाएँ पड़ी है अर्थात यह बार बार धटित होता आया है अब जब हम इतने समझदार हो गए हैं तो फिर एक काम कर सकते है कि असुरों के नगरों को और देवों के खेतों को वर्गीकृत व्यवस्था में अलग अलग सुरक्षित कर सकते हैं तब दोनों प्रकार की मानव सभ्यता सनातन रह सकती है वर्ना मरना-मारना तो होता ही आया है.