Once being the world's master,India is the world's oldest and largest democratic system creater nation. This is not the thing to prance upon forefathers like the way Lucknow's tongawala's call themselves posterity of Nawabs. nor this is the laughing matter at the prancing one, Looking at India's current selfmade predicament. But it the centerpoint(Krishnbindu) to think seriously that instead of leading, why are we trailing today ! In this blog we will analyse on the morality-immorality's past-present-future!

(1)माना कि भारत भी विश्व के अन्य राष्ट्रों की तरह वित्त द्वारा शोषण करने वाली यक्षीय अनुबंध प्रणाली में बंध गया है लेकिन इस का यह अर्थ भी नहीं है कि उद्योग-वाणिज्य की कॉमर्शियल प्रणाली से इतने बँधे रहें कि आहार का उत्पादन करने वाले वर्ग की क्रय-क्षमता ही समाप्त होती जाये और अंततः उद्योग भी ठप हो जाये..

(1) suppose that India, like other nations of the world, is bound by Yakshiya agreement system exploiting by finance. But this does not mean to be hardly bound by the commercial industry system that purchasing power of the food producing class, terminates. And eventually the commercial industry come to a standstill.

(2)कृपया भारत और भारतीयों की तुलना उन देशों से ही करें जहाँ अर्थ-व्यवस्था का मूलाधार प्राकृतिक उत्पादन हो.वैदिक संस्कृत के शब्द "स्वास्ति-सृष्टम" का शब्दानुवाद है "सनातन-धर्म-चक्र" और इसका लेटिन शब्द है "इकोलोजीकल चैनल". भारत में "सनातन धर्मी अर्थ-व्यवस्था पद्धतियाँ" पुनर्स्थापित होनी चाहिए अर्थात "इकोनोमिक्स मस्ट बी इकोलोजी बेस्ड".

(2) Please compare India and Indians to those countries where foundations of The economy is natural production. Vedic Sanskrit word SWAASTI-SRISHTAM's literal translation is "Sanatan Dharma Chakra". It's Latin word is "Ecological Channel." means "the Eternal Righteous-System Practices" must be restored in India. Ie "Economics Must be Ecology-based".

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

बुधवार, 1 अगस्त 2012

7. " इष्ट है मेरा तूं इसलिए दृढ़ता से यह तेरे हित में कहूँगा "!

कश्यप प्रजापति ने दक्ष प्रजापति की कुल कितनी कन्याओं से विवाह किया यह संख्या भिन्न-भिन्न बताई गई है । लेकिन एक बिन्दु सभी उल्लेखों में एक समान है । ये अलग-अलग प्रजातियों की माताऐं कही गई हैं । इन्हें लोक माताएँ भी कहा गया है । 
कश्यप ऋषि को अर्वाचीन अर्थात् प्राचीन से भी पूर्व का माना गया है क्योंकि इनका उल्लेख वैदिक साहित्य की सभी धाराओं में मिलता है । हाँ शब्दों का अर्थ न जानने के कारण हिन्दी में जो अनुवाद मिलते हैं वे बड़े बेतुके (अतार्किक) हैं । इसके पीछे एक छोटासा कारण है । सन्तान और पुत्र को एक अर्थ में लेकर तत्पष्चात् भाषा-अनुवाद का भाव-अनुवाद कर देना । 
पुत्र का अर्थ होता है ‘‘परम्परा की पालना करने की पात्रता रखने वाला ।‘‘ सन्तान, शिष्य, सेवक ये तीनों पुत्र कहे गये हैं ।
        (1) गर्भ से पैदा करने वाली, (2) लालन पालन करने वाली धाय तथा (3) संरक्षण देकर संस्कार विकसित करने वाली शिक्षिका तीनों माताएँ कही गई हैं । 
    (1) पितृकुल के पूर्वज तथा (2) शिक्षा एवं (3) दीक्षा देने वाले गुरूकुल के पूर्वज जो पीतर योनी के माध्यम से अपने पुत्रों को कुलीन बनाते हैं। ये तीनों पिता कहे गये हैं ।  
अब यदि शब्दानुवाद से भावानुवाद और पुनः भावानुवाद से शब्दानुवाद हो तो अन्ततः अन्धानुवाद हो जाता है. जैसे कि कश्यप की पत्नी विनिता के गर्भ से पक्षी, कद्रू के गर्भ से सर्प, सुरभि के गर्भ से गौ, सरमा के गर्भ से कुक्कुर आदि सन्तानें पैदा हुईं । 
अब यदि हम इस तरह का अनुवाद करके फिर यह प्रमाणित करना चाहें कि भारत विश्व गुरू था, झण्डा ऊँचा रहे हमारा तो यहाँ एक हास्यास्पद स्थिति बन जाती है । इसी तरह भारत राष्ट्र की वर्त्तमान की भौगोलिक सीमा रेखा में ही हम कश्यप प्रजापति, शंकर और दक्ष प्रजापति की कपोल कल्पना करते है तो इसे राग द्वेष जनित पूर्वाग्रह कहा जायेगा । 
वर्तमान कालखण्ड इस चतुर्युगी का अर्थात् एक लाख बीस हज़ार वर्ष का अन्तिम काल खण्ड है । कलियुग के बारह हज़ार वर्षो में पाँच हजार निकल चुके हैं और सात हज़ार वर्ष बाक़ी हैं इसके बाद एक लाख बीस हज़ार वर्ष का कृतयुग आयेगा । 
कृतयुग में मातृसत्तात्मक यानी नारी के बाहुल्य वाली प्राकृत संस्कृति आती है.। इस दरमियान अर्थात सात हज़ार वर्ष की समयावधि में यदि हमने पृथ्वी को वनस्पति विहीन कर दिया तो कृतयुग सिकुड़ जायेगा और डायनासोर युग आ जायेगा । इसके विपरीत यदि वनस्पति बनी रही और परमाणु विखण्डन से डेज़र्ट का विस्तार नहीं हुआ तो कृतयुग के एक लाख बीस हज़ार वर्षो में पूरी पृथ्वी पुनः वनस्पति से आवृत्त हो जायेगी, भूमि पर हरियाली छा जायेगी । तत्पश्चात् पुनः कोई कश्यप और शंकर हिमालय की कन्दराओं से निकलकर आयेंगे तब पुनः पुरूष सत्तात्मक या पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था बनेगी । 
समझने की बात या इन सभी तथ्यों को एक सूत्र में बाँध कर बताने का मन्तव्य यह है कि जो परिवर्तन, काल द्वारा निर्धारित होता है उसके प्रति भी यदि हम यह सोच कर उसे स्वीकार कर लेते है कि जो होना होगा वह होगा, प्रकृति जनित प्रक्रिया है, इसमें हम क्या कर सकते हैं, तो यह शतुरूमूर्ग का आचरण कहा  जायेगा। 
     गीता जो कि भगवान द्वारा इंसान को कहा गया आख्यान है में भगवान [प्रकृति] इंसान [अपने ही द्वारा बनाए यंत्र ] को कह रहा है कि " इष्टः असि मे दृढम् इति ततः वक्षामि ते हितम् "
      अर्थात जिस तरह मैं तुम्हारा इष्ट हूँ उसी तरह " इष्ट है मेरा तूं इसलिए दृढ़ता यह तेरे हित में कहूँगा "
     अर्थात प्रकृति,कुदरत,The nature ने इंसान को बनाया अतः वह इंसान कि इष्ट है क्योंकि कुदरत ही इंसान को इच्छित एवं हितकारी फल,परिणाम देती है। इसी तरह कुदरत [भगवान] कह रहा है कि तूं इंसान भी मुझे उतना ही इष्ट फल,इच्छित एवं हितकारी परिणाम  देने वाला होता है अतः तुन मेरा इष्ट है। इस तरह इन्सान और भगवान का सम्बन्ध उभय पक्षी है अतः दोनों एक दुसरे के परस्पर इष्ट हैं। 
     अब यदि  इस तथ्यों को जान कर भी हम यही सोचते रहे की हम साधारण हैं क्या कर सकते हैं तथा कुछ मुट्ठी भर लोगों की काम एवं अर्थ जनित कामनाओं की पूर्ति के लिए विकसित किये गये परमाणु बमों का और न्युक्लियर रियेक्टरों का विकास इसी तरह समर्थन और विस्तार करते रहे तो इस आचरण के लिए कहा जायेगा ''हम असुरों के समर्थक और पोषक हो गये हैं,  देवताओं के इष्ट नहीं रहे।"
    इस तथ्य पर केन्द्रित भूतकाल-वर्त्तमानकाल-भविष्यकाल के चक्र को समझें तो जो भूतकाल है वह काल पुनः भविष्य में वर्त्तमान काल बन कर आयेगा। ठीक उसी तरह जिस तरह बीता हुआ कल, आज और आने वाला कल हमारे लिए एक जैसी परिस्थियाँ लाता है। प्रातः का मौसम, दोपहर का मौसम और संध्याकाल तीनों पुनः पुनः आते हैं बीच में रात्रिकाल आता है। अन्ततः हम विकास की इस प्रक्रिया में वृद्धावस्था को प्राप्त करके इस कलेवर (कवर) को त्याग कर नये कलेवर में आते  हैं। यह जीव का अपना निजी जीवन चक्र है।  जिसमें अनेक जीवन काल होते हैं । 
हाँ ! इस जीवन चक्र से मुक्त हुआ जा सकता है, लेकिन कब ! जब हम जीवन काल में ही काम एवं अर्थ से मोक्ष प्राप्त करें तब। यदि मोक्ष प्राप्त नहीं करना चाहते हैं अथवा करना चाहते हैं तब भी,दोनों ही परिस्थिति में   हमारा धर्म बनता है कि इस पृथ्वी ग्रह पर हम प्राकृतिक स्वर्ग को विकसित करें क्योंकि वर्तमान का काम एवं अर्थ वाला आसुरी वैदिक स्वर्ग हमें क्षणिक आनन्द देने वाला है। इस दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए हमें काल चक्र को बड़े काल-खण्ड के परिप्रेक्ष्य में भी समझना होगा।

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