Once being the world's master,India is the world's oldest and largest democratic system creater nation. This is not the thing to prance upon forefathers like the way Lucknow's tongawala's call themselves posterity of Nawabs. nor this is the laughing matter at the prancing one, Looking at India's current selfmade predicament. But it the centerpoint(Krishnbindu) to think seriously that instead of leading, why are we trailing today ! In this blog we will analyse on the morality-immorality's past-present-future!

(1)माना कि भारत भी विश्व के अन्य राष्ट्रों की तरह वित्त द्वारा शोषण करने वाली यक्षीय अनुबंध प्रणाली में बंध गया है लेकिन इस का यह अर्थ भी नहीं है कि उद्योग-वाणिज्य की कॉमर्शियल प्रणाली से इतने बँधे रहें कि आहार का उत्पादन करने वाले वर्ग की क्रय-क्षमता ही समाप्त होती जाये और अंततः उद्योग भी ठप हो जाये..

(1) suppose that India, like other nations of the world, is bound by Yakshiya agreement system exploiting by finance. But this does not mean to be hardly bound by the commercial industry system that purchasing power of the food producing class, terminates. And eventually the commercial industry come to a standstill.

(2)कृपया भारत और भारतीयों की तुलना उन देशों से ही करें जहाँ अर्थ-व्यवस्था का मूलाधार प्राकृतिक उत्पादन हो.वैदिक संस्कृत के शब्द "स्वास्ति-सृष्टम" का शब्दानुवाद है "सनातन-धर्म-चक्र" और इसका लेटिन शब्द है "इकोलोजीकल चैनल". भारत में "सनातन धर्मी अर्थ-व्यवस्था पद्धतियाँ" पुनर्स्थापित होनी चाहिए अर्थात "इकोनोमिक्स मस्ट बी इकोलोजी बेस्ड".

(2) Please compare India and Indians to those countries where foundations of The economy is natural production. Vedic Sanskrit word SWAASTI-SRISHTAM's literal translation is "Sanatan Dharma Chakra". It's Latin word is "Ecological Channel." means "the Eternal Righteous-System Practices" must be restored in India. Ie "Economics Must be Ecology-based".

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

12. राक्षस-रक्षक ! रामावतार !

    सातवें अवतार श्रीराम की वंशावली राजा हरीशचन्द्र से शुरू होती है।
    राजा हरिश्चंद्र को सतयुग की समाप्ति और त्रेतायुग के आगमन के संधिकाल के समय का माना गया है। 
    श्रीराम को त्रेता की समाप्ति और द्वापर के आगमन के संधिकाल के समय का माना गया है। राम के समय तक भारतवर्ष और आर्यावर्त  अलग-अलग थे। राम ने उस भारतवर्ष को सुरक्षित किया था जिसके शासक पद को इन्द्र की पदवी दी जाती थी।
    आठवें अवतार कृष्ण-बलराम की जोड़ी को द्वापर की समाप्ति और कल्कियुग के आगमन के संधिकाल का माना गया है। यहाँ से अर्थात दुष्यंत-शकुन्तला के आकस्मिक मिलन और प्रणय से पैदा हुए भरत ने भारतदेश की पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत की थी।
     सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की धटना है कि हरीश चन्द्र ने वैदिक होते हुए भी ब्राह्मण परम्परा के ब्रह्मण वशिष्ठ को अपना धर्मगुरु बनाया तब उनके वैदिक पुरोहित ऋषि विश्वामित्र ने इसका विरोध किया। वशिष्ठ जो की वैदिक समाज में आने के कारण ब्रह्मण के साथ साथ ब्रह्मऋषि भी कहलाने लगे थे। 
    विश्वामित्र ने वैदिक-ऋषि होने के उपरान्त ब्रह्मण परम्परा की सिद्धियाँ भी प्राप्त करली थी अतः वे भी ब्रह्मऋषि की पदवी चाहते थे। जब ऐसा नहीं हुआ तो राजा हरिश्चंद्र को स्वप्न दिलवा दिया कि राजा ने विश्वामित्र को अपना राज्य दान में दे दिया है। दूसरे दिन प्रातः ही विश्वामित्र सत्ता हस्तान्तरण के लिए पहुँच गए और अंततः सत्यवादी राजा ने स्वीकार किया कि स्वप्न में मैंने राज्य को दान में दें दिया था तब राजा राज्य से निष्कासित कर दिए गए। लेकिन उसके बाद भी विश्वामित्र ने दान के साथ नगदी दक्षिणा देने की परिपाटी को लेकर राजा पर दबाव डाला तब राजा ने अपने पुत्र और पत्नी को बेच कर दक्षिणा की व्यवस्था की।
    जिस राज्य में अपनी पत्नी को बेचा था वहीँ पर वे नोकरी करने लग गए।उनको शमशान में मृतकों के दाह संस्कार के लिए शुल्क वशूलने का काम दिया गया।उसी समय उनके पुत्र की मृत्यु हो गयी लेकिन बिना शुल्क लिए उन्होंने अपनी पत्नी को अन्तिम संस्कार की इजाजत नहीं दी।
    इस धटनाक्रम में दो बातें उभर कर आती है। एक यह कि इतनी विपरीत परिस्थिति में भी ब्राह्मण संस्कृति के सम्पर्क में आने से सत्यवादी बने रहे और राजकोष की आय में भ्रष्टाचार से मुक्त रह कर अपने मृत पुत्र को भी निशुल्क सुविधा नहीं दी, तो दूसरी तरफ यह कि उस समय वैदिक-आर्य-सभ्यता और ब्राह्मण-संस्कृति का मिलाप हो रहा था।
    इसी तरह इस घटनाक्रम यह भी उभर कर आया है कि दैत्यों-दानवों की वैदिक सभ्यता में एक तरफ मुद्रा का प्रचलन और इंसान का भी वाणिज्य व्यापार यानी Commercial trading की तरह क्रय विक्रय किया जाता था तो दूसरी तरफ विश्वामित्र जैसे आदित्यों की परम्परा वाले देव भी ब्रह्मऋषि बनने को आतुर थे।
     ऐसे सत्यवादी राजा के वंशज राम थे।         
      जब रामावतार हुए तो दैत्य-आदित्य,दानव-मानव के बाद एक शब्द की रचना हुई ‘‘रक्षस‘‘। 
      रक्षस से दो शब्द बने रक्षक एवं राक्षस। 
      राम रक्षक कहलाऐ और रावण राक्षस । 
      आक्रमणकारी चरित्र को राक्षस कहा जाता है और राक्षसों से सुरक्षा देने वाला रक्षक कहा जाता है।अर्थात उस समय शस्त्र-निर्मान विज्ञान का विकास हो गया था जबकि उससे पहले विश्वामित्र ने कृत्रिम उपग्रह पर अनुसंधान कर लिया था। [Note इस विषय का बाद में उल्लेख करेंगे अभी अवतार कथा चल रही है]
      ऋषियों (वैज्ञानिकों) एवं मुनियों (दार्षनिकों) की भारत भूमि पर काल का साया मण्डराने लगा । रावण के नाना ने अपनी पुत्री को एक वैज्ञानिक पुलस्त्य ऋषि से विवाह करने को प्रेरित किया। उस ने वैज्ञानिक से पुत्र प्राप्त किये तत्पष्चात् उन पुत्रों को वैदिक परम्परा की उन वैज्ञानिक विद्याओं को बताने के लिए मजबूर किया, जो यंत्र- निर्माण सम्बन्धी थी। तत्पष्चात् रावण के भाईयों, उसके पुत्रों एवं खुद रावण ने जो विद्याऐं विकसित की उनको संक्षिप्त में समझें । 
     रावण ने परमाणु ऊर्जा संयत्र विकसित कर लिये थे और परमाणु बम बना लिये थे। रावण के पुत्र अहिरावण ने ऐसे यान बना लिए थे जो ध्वनि से कई गुणा अधिक या कहें, प्रकाश की गति के समकक्ष गति से उड़ान भरते थे । जिनका ईंधन डिस्टिल्ड वाटर यानी शुद्ध H2O था या है और जो ध्वनि नहीं करता तथा जिसकी आकृति गोलकार है क्योंकि गोल आकृति ही इतनी तेज़ चल पाती है वर्ना वायु घर्षण से जल कर राख हो जाती है। अहिरावण का कर्मस्थल समुद्र में था और मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि समुद्र में वह सभ्यता संस्कृति आज भी विद्यमान है और जिन्हें उड़न तश्तरीयाँ या UFO  अन आईइण्डिफाइड फ्लाईंग ऑब्जेक्ट कह कर वर्तमान के वैज्ञानिक उससे अनभिज्ञता दर्शाते हैं । 
     मेघनाद ने एक ऐसा ध्वनि उत्पादक एवं ध्वनि विस्तारक यंत्र बना लिया था जो ध्वनि तरंगों को नाद में बदल देता और वह नाद मेघ (बादल) की गर्जना जैसी ध्वनि थी, उन ध्वनी तरंगो से ही हृदयाघात हो जाता था अतः उसे मेघनाद नाम दिया गया। 
     कुम्भकर्ण छः महिने दक्षिणी ध्रुव यानी अण्टार्कटिका में रहकर जीव-विज्ञान पर शोध करता था और छः महिने सिर्फ खाता ही खाता था । क्योंकि उसने अपने शरीर में ऊँट की कूबड़ वाले टिष्यू (उत्तक) विकसित कर लिए थे । अतः वह छः महीनों में अपने शरीर में इतनी चर्बी का संग्रह कर लेता था कि बाक़ी के छः महिने वह बिना आहार के बिता सके । 
    लेकिन कहते हैं कि आसुरी प्रवृत्ति  का व्यक्ति दूसरों की हारमोनी यानी दूसरों का सुर भी बिगाड़ देता है क्योंकि वह खुद असुर होता है । 
     उसने वैदिक परम्परा की उन यज्ञशालाओं का निर्माण किया जिसे औद्योगिक प्रतिष्ठान कहते हैं। उनमें निर्मित उपभोक्ता वस्तुओं के माध्यम से भारत के दक्षिणी किनारे से भोगवादी संस्कृति-सभ्यता का विस्तार शुरू किया । 
इस सभ्यता संस्कृति ने तब पूरे दक्षिण भारत को निर्माण एवं वाणिज्य की कोमर्सियल यानी काम एवं अर्थ वाली सभ्यता में बदल दिया  था । 
     रावण की वह उपभोक्ता सभ्यता जब पूरे दक्षिण भारत की भूमि को बन्जर बनाती हुई उत्तर भारत की तरफ बढ़ रही थी, तब इन्द्र ने उसे रोका । 
      भारत में  इन्द्र शब्द का दो तरह उपयोग होता है । एक इन्द्र तो वह जो मानसून कहलाता है । दूसरा एक इन्द्र व्यक्ति वाचक शब्द है जिसे इन्द्र पद कहा जाता है । 
      आप यह कल्पना करें कि भारत वर्ष ताषकन्द से इण्डोनेषिया तक फैला है। उस भारत में अनेक देश हैं जो गणराज्य हैं और अनेक राष्ट्र यानी साम्राज्य भी हैं। उन सभी साम्राज्यों एवं गणराज्यों के ऊपर एक पद है जो इन्द्र पद कहा जाता है इस इन्द्र पद को पाने का कौन प्रयास नहीं करेगा! 
      इन्द्र के पास अधिकार होता था कि किसी भी साम्राज्य या गणराज्य को वह सेना एवं धन की आपूर्ति करने के लिये आदेश दे सकता था । 
     इन्द्र का कर्तव्य था, भारत वर्ष में वर्षा के वार्षिक चक्र की स्थिति को बिगड़ने  नहीं दे बल्कि अधिक से अधिक सुधरती जाये ऐसी व्यवस्था करे।
     राम  रक्षक
    रावण की फैलाई जीवन शैली से जब दक्षिण भारत का वनोत्पादन प्रभावित होने लगा और वन नष्ट होने लगे तथा नगरीय उपभोक्ता सभ्यता का विकास होने लगा और रावण उत्तर  भारत तक अपनी पहुँच बनाने लगा तो इन्द्र ने रावण के ऊपर सैनिक आक्रमण किया। 

14. राम सेतु

    अब यहाँ यह प्रश्न  पैदा होता है कि राम-सेतु तो युद्ध से पहले बनाया गया था जबकि युरेनियम तो युद्ध के बाद संग्रह किया होगा । 
    इस विषय में स्पष्ट है कि लंका में जाने के लिए जो सेतु बना था, वह पानी में तैरता हुआ अस्थाई पुल था जबकि लंका विजय के बाद जब बची हुई बन्दर भालू सेना वापस आई तब वह सोने से लदी थी और पूर्व में बनाया हुआ अस्थाई पुल टूट कर बिखर चुका था अतः एक तो नये पुल का निर्माण करना भी था दूसरा उस युरेनियम जैसे ख़तरनाक रेडियो एक्टिव पदार्थ को सुरक्षित जगह पर संग्रहित करना भी था अतः यह पुल बनाना एक पंथ दो काज वाला मामला था। 
    परशुराम तथा कृष्ण-बलराम तथा श्रीराम-हनुमान ये कोई व्यक्ति विषेष तक सीमित नाम नहीं है बल्कि ये तो वे सनातन चरित्र हैं जो अनादिकाल से युगों-युगों में स्थान-स्थान पर अवतरित होते आये हैं। 
     जब पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति वर्तमान की तरह सात महाद्वीपों वाली नहीं थी तब ऑस्ट्रेलिया एशिया के बिल्कुल नजदीक था। उस कल्प के समय दैंत्यों के पुरोहित शुक्राचार्य ने जेनेटिक्स पर काम किया था और अनेक ऐसी प्राणि प्रजातियाँ विकसित कीं थी जो विश्व की अन्य प्राणि प्रजातियों से भिन्न थीं। आज भी आप देखा रहें हैं कि ऑष्ट्रेलिया के वन्य प्राणियों जैसे अन्य द्वीपों पर नहीं मिलते।
    वर्तमान में जो रावण विकसित हो रहा है उसे अमेरिका कह सकते हैं। रावण भी कहता था ‘वयम रक्षाम‘‘ अर्थात् हमारी शरण में आओगे तो रक्षा है वर्ना मारे जाओगे। अमेरिका भी वही भाषा बोल रहा है कि जो हमारे खेमे में नहीं है वह हमारा दुश्मन है।
   जब हमारे अन्दर श्रद्धा होती है तो इसका अर्थ हमारे अन्दर मानसिक सामर्थ, सोचने करने की क्षमता, हैसियत, औकात होती है तब हम पढ़े हुए, कहे हुए, सुने हुए पर विश्वास करते हैं और तब तथ्य को यथा-अर्थ से समझ सकते   हंै । 
   लेकिन जब हमारे अन्दर श्रद्धा भाव नामक मनोबल नहीं होता तब हमारे अन्दर राग-द्वैष होता है उस स्थिति में हम तथ्य की वास्तविकता को नहीं जानकर उसको अन्यथा अर्थ में लेते है । 
    जब हमारे अन्दर किसी तथ्य को लेकर राग-अनुराग होता है तो हम उसे जाने बिना स्वीकार कर लेते है क्योंकि हमारी मानसिकता होती है कि यह हमारी सभ्यता संस्कृति से जुड़ा है अतः यह सन्देह करने लायक नहीं है । इस मानसिक स्थिति में भी हमारे अन्दर जिज्ञासा पैदा नहीं होती और जब द्वैष भाव से उसे नकार देते हैं तब भी जिज्ञासा पैदा नहीं होती क्योंकि हमें वह अविश्वसनीय लगता है ।  
     अवतारों के इन सनातन चरित्रों को राग-अनुराग से सुनने पर ये अतिमानवीय या मानवेतर चरित्र लगते हैं । अतः इनको मानवीय धरातल पर नहीं तौलते । इसके विपरित जब द्वैष भाव से दोष निकालते हैं तो कहते हैं कि जब ये भगवान थे तो क्यों नहीं चुटकियों में समस्या का समाधान किया। इतने लम्बे समय तक दुख क्यों पाये ? ये दोनों दृष्टिकोण जिज्ञासा पैदा नहीं होने देते और जब जिज्ञासा नहीं होती तो ज्ञान क्यों कर आयेगा ?

13. राम रक्षक ! रामायण [ राम-रावण ] की पृष्ट भूमि !

     यह वह समय था जब एक तरफ तो आर्यावर्त था जो आर्यन और फिर ईरान शब्द बना लेकिन श्रीराम के समय जो तक्षशिला थी वह आज का ताशकंद है अर्थात जैसा की होता आया है एक राष्ट्र भौगोलिक माप-दण्ड पर पूर्ण तभी कहलाता है जब उसमे सभी तरह की भौगोलिक स्थितियाँ हो। यूरोपियन जातियों के आने से पहले अमरनाथ,मानसरोवर सहित पूरा तिब्बत,नेपाल,अफगानिस्तान और दक्षिण पूर्वी एशिया अखण्ड भारतवर्ष  ही था लेकिन राष्ट्र के नाम पर भारतवर्ष को खंण्ड खण्ड कर दिया।    
    जब रावण ने लंका में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया तो दक्षिण भारत पर भी अपने साम्राज्य का विस्तार करने लगा। उस समय के इस पुरे ब्रह्मक्षेत्र,धर्मक्षेत्र में विश्वामित्र की वैदिकपरम्परा और वशिष्ठ की ब्रह्मपरम्परा दोनों समानान्तर स्थापित थी अर्थात एक तरफ एकात्म परम्परा के गुरुकुलों में स्वाध्याय की सुविधा भी थी तो दूसरी तरफ आश्रमों में जैविक प्रजाति संवर्धन का वैदिक कार्य भी चल रहा होता था। लेकिन सैन्य बल न के  बार थे। सेना के नाम पर देवराज इंद्र के पास वन संरक्षण और संवर्धन के लिए सैन्यबल था।
     जब रावण ने अपने साम्राज्य का विस्तार शुरू किया तो वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। तब एक तरफ तो अगस्त्य ऋषि ने उत्तर भारत को सुरक्षित करने के लिय कच्छ के रन से लेकर उड़ीसा के समुद्र तटीय क्षेत्र तक आदिवासी जातियों का, जिनको बाद में गोँड आदिवासी नाम दिया गया,का एक बेल्ट बना दिया जिसके लिए  आता है की अगस्त्य ऋषि ने अपनी बाहें फैलाकर रावण की भोगवादी [उपभोक्ता] सभ्यता को उत्तर भारत में आने से रोका। 
     दूसरी तरफ इंद्र ने अपने सैनिक अभियान चला रखे थे उसमें अन्य साम्राज्यों की सेना के साथ-साथ दशरथ की सेना भी थी । लम्बे समय तक चला युद्ध अनिर्णित रहा तब एक सामरिक समझौता हुआ । 
      उस सामरिक समझौते की दो मुख्य शर्तें थीं पहली दक्षिण भारत को स्वतन्त्र क्षेत्र (लाईन ऑफ़ कण्ट्रोल) घोषित कर दिया जाये । दूसरी शर्त कि कोई किसी पर आक्रमण न करे । 
      दूसरे बिन्दु पर जो समझौता हुआ उसमें था कि दानव, मानव, देव, गन्धर्व, यक्ष इत्यादि किसी भी प्रजाति की सेना द्वारा आक्रमण नहीं होगा । ऐसी स्थिति में रावण की इस विकास यात्रा को कैसे रोका जाये ? यह बहुत बड़ी समस्या थी । 
      इधर दशरथ के जीवन में तीन बड़ी समस्याऐं थीं। 
      एक तो राजा होते हुए भी अपनी कर्तव्य पालना में विफल रहे। 
      दूसरी उनके कोई संतान नहीं थी और वे एक पत्नी परम्परा को निभाते आने वाले वंश से थे। 
      तीसरी रावण की उपभोक्ता संस्कृति और शाही ठाठ को देख कर प्रजा के मानस में यह सुगबुगाहट (प्रश्न वाचक हलचल) पैदा हुई कि राजा तो रावण जैसा ऐश्वर्यशाली होना चाहिये यह दशरथ जो हमारी ही तरह रहता है, यह कैसा राजा ?
      तब वषिष्ठ के आग्रह पर दशरथ ने अपने पूर्वजों की परम्पराऐं तोड़ते हुए दो काम किये एक था आलीशान राजमहल का निर्माण और दूसरा दो अन्य विवाह ताकि सन्तान पैदा हो। 
     वैदिक सभ्यता के तीन आयाम हैं। एक आयाम है आयुर्वेद का विकास और चाहे जैसी जीव-प्रजातियों या चाहे जैसी मानव की मानसिक प्रजातियों का विकास । 
    इस वैदिक परम्परा को सनातन परम्परा का एक भाग माना जाता है । 
    वैदिक परम्परा के दो अन्य आयाम है जिन्हें आसुरी वैदिक परम्परा कहा जाता है । 
    एक परम्परा वह परम्परा है जो वर्तमान में भी चल रही है और रावण ने जिस परम्परा में क्षितिज को छू लिया था जिसे हम भौतिक विकास की परम्परा कहते हैं। जिसमें काम एवं अर्थ की लड़ाई की अन्तिम परिणीति परमाणु युद्ध होता है । 
    वैदिक विकास का दूसरा अन्य आसुरी रूप है तांत्रिक क्रियाऐं अर्थात् जो क्रियाऐं तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करके व्यक्ति को देव से असुर यानी इन्सान से शैतान बना देती है। यह आसुरी परम्परा ड्रग्स का निर्माण एवं सेवन करने की परम्परा है जिससे आतंकवादी या विद्रोही तैयार किये जाते हैं । 
    जब दशरथ के सन्तान नहीं हो रही थी तब वशिष्ट की परम्परा के गुरूकुल के कुलगुरू वशिष्ट ने उनसे आग्रह किया कि विश्वामित्र गुरू-कुल परम्परा के कुल-गुरू (चांसलर) को आमन्त्रित करें । 
विश्वामित्र ने जो उपाय किये उन में जो विज्ञान था वह आयुर्वेद के नाम से जाना जाता है। वैसे सभी वैदिक ज्ञान राजर्षि विश्वामित्र परम्परा में संकलित कर दिए गए थे और कालन्तर में पुनः अनेक शाखाओं के रूप में विकसित हुए थे। रावण के पिता पुलस्त्य ऋषि भी विश्वामित्र परम्परा की एक शाखा से थे ।  
    विश्वामित्र ने एक उपाय तो यह किया कि अण्ड प्रत्यारोपण से चार पुत्र पैदा हुए। 
    दूसरा उपाय था एक शक्तिषाली नारी सीता को गर्भ के बाहर पैदा किया ।
    तीसरा उपाय था राम को शस्त्र-संचालन विद्याओं के साथ-साथ एक औषधीय विद्या दी जिसके माध्यम से वे बन्दरों एवं भालुओं की सेना खड़ी कर सके थे ।  
     इस सन्दर्भ में आपने कभी इस बिन्दु पर तो चिन्तन किया ही होगा कि जिस शिव-धनुष को सीता बाँये हाथ से उठाकर उसको साफ़ करती थी, उस धनुष को रावण दोनों हाथों से उठाने में असमर्थ रहा । 
      जिस सीता एवं रावण के बल में इतना अन्तर था, उस सीता को वह रावण बलपूर्वक कैसे ले जा सकता था । 
      यह घटना दरअसल एक कूटनीति थी। राम के वनवास की कूटनीति इसलिए चलानी पड़ी कि जब सैनिक युद्ध नहीं लड़ने का सामरिक समझौता हो चुका था तो अयोध्या की सेना राम के किस काम की! 
       जब सेना काम की नहीं तो राज्यारोहण भी किस काम का, अतः राज्या रोहण के समय यह वनवास का घटनाक्रम रचा गया । 
       इसी तरह वनवास के समय में दो निशाने एक तीर से साधे गये। एक तो यह कि सीता को सुविधा जनक आवास मिल जायेगा और राम को एक बहाना कि रावण मेरी पत्नी को उठाकर ले गया है अतः उसे मुक्त कराने के लिए मुझे सहयोग चाहिये । 
       घटनाक्रम का जब अन्त हुआ तो वह यह था कि अन्ततः परमाणु शस्त्रों पर जीत हुई प्रकृति निर्मित यंत्रों की। वे प्रकृति निर्मित यंत्र थे विशालकाय और विशाल संख्या वाले बन्दर-भालुओं के देह रूपी यंत्र ।
     भूमिका के इस खण्ड में मैं यह बताना चाहता हूँ कि परशुराम का पुरूषार्थ होता है  वनों की सुरक्षा के लिए अतिक्रमणकारी क्षत्रियों का नाश करना। बल-राम का पुरूषार्थ होता है कृषि के माध्यम से धन-धान्य का उत्पादन करना । 
     लेकिन जब साम्राज्य के विस्तार के नाम पर आसुरी प्रवृति के लोग भौतिक यंत्रों का उपयोग करते हैं, प्राकृतिक जीवन शैली को प्रभावित करते हैं तो उन्हें किसी न किसी तरीके से मारना आवश्यक होता है तब उनके मारने के लिए किया जाने वाला पुरूषार्थ ही श्रीराम को आदर्श पुरूषार्थी या पुरूषोत्तम बनाता है। दशावतार में उनका विशिष्ट स्थान था।
     जब श्री राम ने रावण के परमाणु संयत्रों को नष्ट किया तो उनमें बना युरेनियम उन्होंने राम सेतु में दबवा दिया। अब यहाँ यह प्रश्न  पैदा होता है कि राम-सेतु तो युद्ध से पहले बनाया गया था जबकि युरेनियम तो युद्ध के बाद संग्रह किया होगा। 
    

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

11. भारत वर्ष-राष्ट्र ! परशुराम अवतार !

    भारतवर्ष का नाम कभी आर्यावर्त भी था। उससे पहले इसे जम्बूद्वीप नाम से भी जाना जाता था। भारत का नाम भारत कब पड़ा इस विषय में अनेक अंतर्द्वंद्व हैं। क्योंकि जम्बूद्वीप तो पुरे एशिया महाद्वीप का नाम था।
    कश्यप शब्द अवतार के रूप में कछुआ हो जाता है तो व्यक्ति के रूप के रूप में ऋषि [researcher]  और प्रजापति हो जाता है। लेकिन भारत  की जाति व्यवस्था में कश्यप कहार के लिए और प्रजापत कुम्हार के लिए भी काम में लिये जाते हैं। इसका अर्थ यह भी होता है कि शायद मानव ने सबसे पहले पहिये का आविष्कार नहीं करके कावड और डोली का आविष्कार किया होगा। 
     इसके अलावा एक और तथ्य है जिस पर विरोधाभाष है। एक तरफ तो नृसिंह अवतार और वामन अवतार के समय नगर निर्माण की योजना का जिक्र आता है जिसका अर्थ है कुम्हार [भवन निर्माता] के उपकरण विकसित हो गए थे लेकिन दूसरी तरफ धातु के शस्त्र का,फरसे का जो कि कुल्हाड़ी से मिलता जुलता होता है का,प्रथम आविष्कार परशुराम ने किया था।परशुराम ने ही कृष्ण को धातु से बना चक्र दिया था। इस का अर्थ यह हुआ कि या तो इस दरमियान निर्माण की विद्याएँ नष्ट हो गयी थी तो इसका अर्थ है सभ्यताएँ भी नष्ट हुयी हैं या यह भी हो सकता है कि कश्यप परम्परा के भवन निर्माण में लोहे के उपकरणों की उपस्थिति नहीं थी जब की परशुराम के भारत में लकड़ी के भवन बनाने के लिए फरशा इजाद हुआ। 
     पारशुराम ने 21 बार क्षत्रियों का नाश किया इसका अर्थ है कि छठ्ठे अवतार भगवान् परशुराम का संघर्ष देत्यों,दानवों से नहीं होकर भारतियों से ही हुआ है।अब यदि इन सभी आचरण को वैदिक द्रष्टि से देखें तो यह शरीर की त्रिगुणात्मक प्रकृति का परिणाम होता है अतः क्षत्रिय को राक्षस बनते लम्बा समय नहीं लगता,अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है की भारत के क्षत्रिय रज के विकार से बार बार राक्षस हुए हैं। 
   भारत का नाम भारत इस लिए पड़ा की वैश्वीकरण हुआ अतः विज्ञान शब्द कोष से एक नाम निकाला गया 'भारत"।जिसका अर्थ होता है भारती नामक अग्नि, जो वनस्पति में प्रकाश संश्लेषण क्रिया Photosynthesis process से अपना भोजन बनाती है,उसकी अधिकतम उपस्थिति के समय, ग्रीष्म काल में जब वर्षाऋतु आती है और वर्षा के जल से वनस्पति साम्राज्य का विस्तार होता है तो सनातन धर्म चक्र की गति तेज होती है और तब प्रकृति जनित पारिस्थितिकी अर्थशास्त्र Nature Generated Ecological Economics से धनधान्य पैदा होता है,वह स्थान भारत कहा गया है।
     जब वैदिक विकास में दैत्यों के दैत्याकर भवनों वाले दैत्याकार नगरों में दैत्याकार वाहनों के विकास का विरोध करने वाले और प्राकृतिक जीवन शैली के प्रति दृढ़ता दिखाने और छोटे छोटे गांवों के स्थान पर शहरीकरण और गृह उद्योग के स्थान पर देत्याकार मशीनीकरण को, विकास की परिभाषा नहीं मानने के कारण, ग्रीक शब्द कोष में,जो कि देत्यों-दानवों की सभ्यता का केंद्र था, की भाषा में, भारतियों को INDOCILE कहा गया जिसका अर्थ होता है जिद्दी और आज्ञा न मानने वाला। 
    चूँकि भारत में एकात्म परम्परा को मनुष्य की सर्वोच्च मानसिक स्थिति मानी जाती रही है और अकेला निर्जन स्थान पर,एकाकी एकांत में रहने वाले के लिए INDIVIDUAL शब्द का उपयोग होता है अतः भारतीयों को INDIAN कहा गया।
      अब यहाँ पर आप धेर्य से सोचें कि आज भारत में भी दो दृष्टिकोण हैं।एक वर्ग प्राकृतिक जीवन शैली चाहेगा और आत्मकल्याण को, Self-welfare को प्रथम प्राथमिकता देगा, तो एक वर्ग इस औद्योगिक नगरों के विकास को ही विकास मानता है।
      अतः जिस तरह आर्यावर्त और ब्रह्मलोक दोनों को मिलाकर, कश्यप सागर से इण्डोनेशिया तक के क्षेत्र को,भारत नाम दिया गया और उसे उस समय दो वर्गों में वर्गीकृत किया एक परशुराम द्वारा संरक्षित रहने वाला, ब्रह्मलोक,धर्मक्षेत्र कहा जाने वाला भारतवर्ष दूसरा आर्यों के संरक्षण में रहने वाला भारत राष्ट्र बनाया उसी तरह हमें भी इस वर्गीकरण परमपरा को पुनः लागू कर देना चाहिए।     
    परशुराम की उपस्थिति राम के पूर्वजों से लेकर कृष्ण के समय तक रही है और आज भी आदिवासियों के रूप में है। राक्षसों से आलग होकर आर्यों ने जब क्षत्रिय धर्म को धारण किया तब से लेकर 21 बार ऐसा हुआ है कि क्षत्रियों ने अपनी सीमा का उलंघन किया है और उसका अन्तिम चरण भी ब्रह्मपुत्री क्षेत्र में ही समाप्त हुआ है। जहाँ से हिमालय की पहाड़ियाँ शुरू होती है उस अंतिम किनारे पर परशराम कुंण्ड है जहाँ उन्होंने अपना फरशा रखा था।
   इसका तात्पर्य यह है कि आज हमें कम से कम पूर्वोत्तर राज्यों में तो क्षत्रियों के नाश का आन्दोलन चलाना ही चाहिए।        
   जब वामन अवतार हुए थे तब तक भारत का जिक्र नहीं है क्यों कि तब तक भारतवर्ष और आर्यावर्त अलग अलग थे।भारत वर्ष को भारत राष्ट्र और देश में विभाजित या वर्गीकृत नहीं किया गया होगा इसका विभाजन परशुराम की देन है ताकि भारत वर्ष सुरक्षित रहे। इसी सुरक्षा के लिए परशुराम ने 21 बार क्षत्रियों यानी भूस्वामियों के द्वारा वनों पर किये गये अतिक्रमण को हटाया था।
    इस तरह परशुराम को दशावतार की विशिष्ट सूचि में छठा अवतार माना गया।
    अतः जो लोग वर्तमान के अधर्म के उत्थान से परेशान होकर किसी अवतार की अपेक्षा Expectation करते हैं उन्हें धर्म के प्रति ग्लानी भाव और अधर्म के उत्थान की परिभाषा को अवश्य समाझ लेना चाहिए क्योंकि प्रजातंत्र है अतः आज के अवतार में सभी की सामूहिक भूमिका रहेगी।
     अन्तिम कल्कि अवतार तो मोहम्मद के रूप में हो चुके अतः चौदह सो हिजरी के बाद का भविष्य बताने के स्थान पर चुप हो गए क्योंकि भविष्य दृष्टा को पता था कि तब तक इस्लाम भारत में मान्यता प्राप्त कर लेगा और प्रजातंत्र आ जाएगा अतः आज पत्रकारिता से जुड़े वर्ग का दायित्व है कि वह धर्म और अधर्म की परिभाषा को रेखांकित करें और मतदाता तक तथ्य को पहुंचाए। 
    यह तो आप सामजिक पत्रकारिता ब्लॉग में पढ़ ही चुके हैं कि भारत वर्ष-देश-राष्ट्र तीनों प्रकार के भारत के तीन-तीन आदर्श हैं। तीनों प्रकार के भारत के तीन राम हैं जो कि तीन प्रकार का पुरूषार्थ करने वाले तीन आदर्ष पुरूष हैं।
आदर्श आचरण
   तीन भरत हैं जिनको तीन आदर्श आचरण कहा गया है जिनके नाम पर भारत का नाम भारत पड़ा ।

भारत वर्ष

      यह भारत वनों से आच्छादित भूभाग है, जहाँ से प्राकृत धर्म शुरू होता है। इस भारत का नाम जिस भरत पर पड़ा वे ऋषभदेव के पुत्र एवं बाहुबली के छोटे भाई भरत थे। चूँकि अहिंसा धर्म के कारण,चाहे वह लाठी ही क्यों नहीं हो,शस्त्र उठाना निषेध था अतः भारत वर्ष के आदिवासी शासन व्यवस्था में मुखिया का चुनाव मल्ल युद्ध से होता आया है। तो उन्होंने अपने बड़े भाई बाहुबली को मल्ल युद्ध के लिए ललकारा जो कि शासक-प्रमुख थे। लेकिन बाहुबली के बिना मल्लयुद्ध किये ही सत्ता छोड़ कर दिगम्बर हो कर वन में चले जाने पर उन्होंने प्राकृत भारत में शासक द्वारा अनुशासन परम्परा को समाप्त करके कहा कि प्राकृत भारत में आत्म-अनुशासन की परम्परा लागू की जाये न कि प्रशासन व्यवस्था। यह आदर्श आचरण माना गया। 
    भागवत महापुराण में ये जड़ भारत नाम से जाने जाते हैं। एक स्थान पर जड़ भारत और एक राजा, जिनका नाम स्मृति में नहीं है,के बीच एक रोचक वार्ता है जिसमे वे अपने तर्कों द्वारा राष्ट्र का सम्राट बनने को आत्मकल्याण के सामने तुच्छ प्रमाणित किया है।  
      आदर्श संस्कृत का शब्द है जिसका एक पर्यावाची शब्द मिरर (दर्पण) भी है। किसी को आदर्श  मानने का अर्थ है, हम उस व्यक्ति में अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं और वैसा ही बनने का प्रयास करते हैं । उनके आदर्शों का अनुसरण करते हैं। 
   बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय इन्हीं के आदर्शों पर चलकर अहिंसा एवं आत्म-अनुशासन के आचरण के मूल मन्त्र की परम्परा के वाहक हैं। 
    प्राकृत भारत के आदर्श पुरुषार्थी पुरूष वे राम हैं जिसके हाथ में परसा (फर्षा) रहता हे जिन्हें परशुराम कहा गया है । 
   परशुराम परम्परा उस आदर्श पुरूष की परम्परा है जो भारतवर्ष यानी प्राकृत भारत यानी वन्यक्षेत्र धर्मक्षेत्र वाले भारत के सुरक्षा के लिए पुरूषार्थ करते हैं । 
    परशुराम शान्ति काल में अपने परशे से देवी सम्पदा युक्त वनस्पतियों एवं प्राणियों की सुरक्षा करते हैं और आसुरी सम्पदा युक्त प्राणियों एवं वनस्पतियों को नियन्त्रण में रखते हैं। 
    जब भारत वर्ष की भूमि पर भारत राष्ट्र अथवा भारत देश के क्षत्रिय अतिक्रमण करते हैं तो उनको मार भगाते हैं। 
    भारत वर्ष की अर्थव्यवस्था उस वनोत्पादन पर चलती है जो वर्षा के वार्षिक चक्र से स्वतः उत्पादित होता है । जिसे हम वर्षा वन Rain Forest कहते हैं।  
    यदि आज हम भारत वर्ष की सीमा का निर्धारण करें तो दक्षिण-पूर्व एशिया का पूरा भाग भारत वर्ष में आता है । जिसका क्षेत्र कभी इरान से लेकर मलेसिया, वियतनाम एवं दक्षिणी चीन तक का भू-भाग हुआ करता था। उसके बाद जब आर्यावर्त में भी वर्षावन समाप्त हो गए तो अफ़ग़ानिस्तान से ले कर प्रशांत महासागर तक था आज यह सिन्धु घाटी से लेकर शुरू होता है लेकिन सम्माप्त होता जा रह है।

9. नृसिंह अवतार !

     प्रजापति दक्ष का मूल स्थान वह नदी था जिसे आप ब्रह्मपुत्र नदी के नाम से जानते हैं जबकि उसका मूल नाम है ब्रह्म पुत्री है। किन्तु  दक्ष प्रजापति  को ब्रह्म पुत्र  है 
    प्रजापति दक्ष की परम्परा को ब्राह्मण परम्परा, तथा मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था है जिसे जीव प्रजातियों के बीजों को संरक्षण देने की परम्परा कहा गया है । जब पूरी पृथ्वी ही आसुरी वैदिक विकास के परिणाम स्वरूप अग्नि में जलने लगती है तो ब्रह्मपुत्र घाटी ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र बचता है जहाँ जीव-जगत की मूल प्रजातियाँ सुरक्षित बचती हैं। प्रमाण रूप में समझना चाहें तो आप वहाँ देखेंगे कि विष्व की जितनी भी मानव प्रजातियाँ हैं वे सभी ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में निवास कर रही हैं।
      वैदिक सभ्यता के जनक प्रजापति ऋषि कश्यप ने तेरह अथवा नौ दक्ष कन्याओं से विवाह किया था । 
        प्रजापति कश्यप का कार्य क्षेत्र या मूल स्थान वह स्थान था जो एशिया एवं यूरोप को दो भागों में विभाजित करता है और जहां पर ऐसा सागर है जो झील की तरह पृथ्वी की सतह से घिरा हुआ है जिसका नाम कश्यप का अपभ्रंष उच्चारण केस्पियन सागर है । 
       प्रजापति कष्यप की नौ पत्नियों में से एक का नाम था दिती दूसरी एक का नाम अदिती । दिती के दो पुत्र जिनके हिरण्य अक्ष और हिरण्य कशिपू हुए जो दैत्य कहलाये तथा अदिती के बारह पुत्र हुए जो आदित्य कहलाये। जिनके बारे में अलग सन्देश में आपने पढ़ ही लिया है,
     इन दो पत्नियों की कहानी को बाईबिल और एंजील में भी दर्शाया गया है। इनमें ये घटनाऐं उस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रख कर लिखी गई जिन काल-खण्डों में ये रचनाऐं लिखी गईं। यहाँ वह झगड़ा भेड़ों  के विभाजन के साथ भूमि विभाजन का है। 
     दैत्यों एवं आदित्यों (देवों) के बीच का झगड़ा जीवन शैली को लेकर ही था। 
     दैत्य भौतिक विकास चाहते थे जबकि आदित्य प्राकृतिक जीवन शैली चाहते थे। 
     दैत्य साम्राज्यवादी थे जबकि देव प्रजातंत्र अनुशासित शासन व्यवस्था के पक्षधर थे।
     दैत्य देत्याकार भवनों और नगरों के पक्षधर थे जबकि देव छोटा किन्तु सुन्दर Small is beautiful को मान्यता देते थे।
     दैत्यों की बहन होलिका वनों में आग लगा कर वहाँ देत्याकार भवन बनाने के लिए भूमि तैयार कर रही थी लेकिन उसका भतीजा प्रहलाद बारहवें आदित्य विष्णु का भक्त था और इस कार्य में व्यवधान डाल रहा था तब होलिका ने उसे भी जलाकर मारने की साजिस रची। लेकिन होलिका खुद जल कर समाप्त हो गई और हरे वृक्षों सहित प्रहलाद सहीसलामत बच गया।
     इसके बाद भी जब देत्य वैष्णव धर्म को, वैश्विक अर्थशास्त्र  को, वर्तमान समय की तरह ही, नहीं समझ पाये  और विकास की अपनी परिभाषा पर अड़े रहे और अपने ही पुत्र को प्रताड़ित करते रहे,  जैसें कि वर्तमान में किसान भी अपने पुत्र को I.T.में जाने को उकसाते हैं और न जाने पर प्रताड़ित करते हैं, तब विष्णु,जो कि अणुओं की गुणधर्मिता को नियंत्रित करने का विज्ञान जनता था, ने नृसिंह रूप धारण किया और एक स्वप्न की तरह कुछ ही समय में उस विकास को धराशाही कर दिया।इस लिए नृसिंह अवतार को स्वप्न का देवता माना जाता है।
      इस घटना के दोनों पक्षों का समन्वय करके ब्राह्मण धर्म में होलीत्योंहार,Holy festival पर पवित्र करने वाली अग्नि की भी पूजा की जाती हैं तो हरे वृक्ष [प्रहलाद ] को भी सुरक्षित बचाते हैं।  
     
       बारह आदित्यों के बारे में अलग सन्देश में आपने पढ़ ही लिया है,अन्य सात पत्नियों को जलचरों, स्थलचरों  इत्यादि सात प्रजातियों में विभाजित जीवजगत की माताओं ( धाय माओं) के नाम से प्रजाति संवर्धन के लिये नियुक्त किया। 

10. दानव-मानव बनाम वामन अवतार !

     दैत्यों एवं देवों (आदित्य) के बाद की पीढ़ियों में दो नये नामों का सृजन हुआ। दो अन्य नाम बने जो दानव एवं मानव शब्द थे । 
     जब प्रलाद के वंशज राजा बली ने विकास की उसी परिभाषा को पुनः स्थापित किया और नगर निर्माण की योजना के अन्तर्गत भूमि पूजन किया तो बौने पण्डित (वामन पण्डित) ने अपनी दक्षिणा के रूप में वह भूमि ही मांग ली। बली ने भूमि दान में दे दी। 
     राजा बली के पुरोहित शुक्राचार्य थे और देवों के पुरोहित वृहस्पति थे।जब भूमि पूजन हो गया तो पुरोहित ने अपना पौरोहित्य माँगा तो दानवीर राजा ने उसकी इच्छानुसार पौरोहित्य देने का वचन दे दिया। जब वामन पुरोहित ने उसी भूमि को दान में मांग लिया जिस पर नगर निर्माण की योजना बनी थी तो वचन में बंधे बलि ने जब, भूमिदान के निमित संकल्प लेने के लिए, हथेली पर जल लेना चाहा, तो उस दान का बार बार विरोध करने वाले शुक्राचार्य ने मक्खी बन कर जलपात्र की टोंटी में अवरोध पैदा किया तो वामन पण्डित ने बलि को सलाह दी कि तिनके से टोंटी को साफ़ करे। इस में शुक्राचार्य की एक आँख चली गई और वे काणें हो गए, तब से काणे व्यक्ति को शुक्राचार्य कहा जाता है। 
      इस घटना में वामन अवतार ने तीन कदम,पांवडे भूमि मांगी थी, फिर दो कदमों में ही पूरी भूमि नाप ली और तीसरे कदम को रखने का स्थान चाहा तो बलि ने तीसरा कदम अपनी पीठ पर रखने के लिए कहा और तब पीठ पर लात मार कर बलि को पाताल लोक भेज दिया।
      पौराणिक कथाओं के दो आयाम हैं। जब आप पुराणों की कथाएँ पढेँ तो आप को ऐसा लगेगा कि जैसे बच्चों के लिए काल्पनिक कथाएँ हैं। इनका इतना अधिक विस्तार है कि आप उन कथाओं में सारगर्भित तथ्य को ढूंढना चाहें तो आपका धैर्य जबाब दे सकता है, इसी धैर्य की परीक्षा लेने और जनसाधारण को फंतासी Fantasy से में आकर्षित किये रखने के लिए प्रतीकात्मक भाषा का उपयोग किया गया है। इस तरह यह या तो इनको वे ही लोग पढ़ पाते हैं जो यथार्थ के स्थान पर विभ्रम पसंद करते हैं या फिर सत्य को जानने के लिए धेर्य की परीक्षा में सफल हो जाते हैं और धेर्य पूर्वक प्रतीकात्मक भाषा को समझने का प्रयास करते हैं।
      यहाँ पाताल लोक का अर्थ गोल भूमि के दूसरी तरफ से है और जहां की धरती उपजाऊ नहीं होती उसे भूमि नहीं कहा जाता है। भू का एक शब्द रूपांतरण बहु होता है जिसे भू भी बोला जाता है।बहु का अर्थ होता है जो सन्तति को जणेगी,पैदा करेगी,जायते से जायेगी बना जिसका अर्थ है जन्म देना।   
     दान में भूमि देने कर पाताल लोक में जाने का अर्थ है उपजाऊ भूमि को दान में देकर अनुपजाऊ बर्फीली, दलदली,पथरीली सतह वाली यूरोप की धरती पर चले जाना।
     जब यूरोपियन जातियाँ भारत में आयीं थी उस समय उनके द्वीपों के नाम बलि के परिजनों और पुरानो में उस समय के अन्य वर्णित लोगों के नामों से मिलते जुलते थे,तब फिर उनके नाम बदल् दिए गए थे।
     इस घटना में यक्ष जो कि वचन में बाँध कर आर्थिक,शारीरिक श्रम और देहिक शोषण करते हैं उनको उन्हीं के हथियार से चौट की गयी थी।लेकिन चूँकि अवतार रूप में जो पैदा होता है वह अनैतिक कार्य नहीं कर सकता।उपजाऊ भूमि को सुरक्षित करके समुद्री और बर्फीली भूमि पर चले जाने को मजबूर करने के पीछें जो मकसद था वह था कि नगर निर्माण और औद्योगिक विकास करना हो तो अनुपजाऊ भूमि पर करो।
     आज मैं जो परियोजना दे रहा हूँ हूँ उसका मकसद भी यही है।
    दान की एवज में बौने पण्डित वामन अवतार ने दैत्यराज बली को कुछ माँगने के लिए कहा लेकिन स्वाभिमानी राजा ने प्रस्ताव नकार दिया तब वामन अवतार ने देवो द्वारा उत्पादित पुण्य [धन-धान्य] दैत्यों को देने का वचन दिया। 
     इस तरह दान देकर दान लेने वाले को दीन हीन बना कर उसका पुण्य ख़रीदने के कारण बली का नाम दानव पड़ा और देवों को मान-सम्मान, मान्यताओं और मानसिक शक्तियों से पुण्य अर्जित करना सिखाया तब उनका नाम मानव पड़ा। तब से वैदिक सभ्यता संस्कृति दो भागों या दो तरह की जीवन शैली में दो अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित हुई। दैत्यराज से  दानवराज बने बली को केस्पियन सागर के एक तरफ की यूरोप की भूमि आवंटित हुई और देवों को दूसरी तरफ की एशिया की भूमि। जो बाद में आर्यावर्त कहलाया। उस समय का भारत वर्ष  मनुष्य,मनीषी,मुनि-ऋषि यानी  नर-नारी  अधकार वाली ब्राह्मण जाति का माना जाता था और वनोत्पादन के अर्थशास्त्र वाला तथा प्रतेक कार्य में दक्ष होने वाली जातियों का माना जाता था।आत्म-अनुशासित रहने वाले संस्कारित लोगों का माना जाता था।
      लेकिन आज भारत भी दानव सभ्यता की गिरफ़्त में आगया है।धनधान्य पैदा करने वाले लोगों को उनके उत्पादन की उचित कीमत न देकर पहले तो उन्हें दीनहीन बनाया जाता है तत्पश्चात उन्हें एडहोक,अनुदान,     Grant,सहायता, help,मदद, उपकार नाम पर ऋण दिया जाता है उसी को दान कह कर दानव प्रवृति का परिचय देते हैं।
      कालान्तर में जब दैत्यों एवं दानवों के वंषजों में रावण के नाना ने पुनः साम्राज्य विस्तार के मन्तव्य से लंका पर डेरा डाला तब भारत अपने पूर्ण प्राकृतिक वैभव पर था । (इससे पूर्व काल का एक रावण आस्ट्रेलिया का भी था) 




बुधवार, 1 अगस्त 2012

8. दक्ष कन्याओं की रक्षा करें !

          हाँ ! इस जीवन चक्र से मुक्त हुआ जा सकता है, लेकिन कब ! जब हम जीवन काल में काम एवं अर्थ से मोक्ष प्राप्त करें तब। यदि मोक्ष प्राप्त नहीं करना चाहते हैं अथवा करना चाहते हैं तब भी हमारा धर्म बनता है इस पृथ्वी ग्रह पर हम प्राकृतिक स्वर्ग को विकसित करें क्योंकि वर्तमान का काम एवं अर्थ वाला वैदिक स्वर्ग हमें क्षणिक आनन्द देने वाला है । इस दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए हमें काल चक्र को बड़े काल-खण्ड के परिप्रेक्ष्य में भी समझना होगा ।
        सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो जानने की है वह यह है कि हमारा स्थायी निवास यह धरती है। क्योंकि इच्छित, हितकारी,प्रिय एवं उचित परिणाम,फल देने वाला सर्व-कल्याणकारी शिव तो इस स्थूल संरचना में ही प्राप्त होता है अव्यक्त में सत और चित्त दो आयाम ही होते हैं वहां आनंद की अनुभूति देने वाली ज्ञानेद्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ  नहीं होती ये तो हमें देह धारण करने पर ही मिल पाती हैं।अव्यक्त तो सिर्फ पुनरावर्तित करने वाला दर्पण है यानी पक्षियों के उड़ने भर जितना काल खंड होता है। स्थायी बसेरा तो धरती ही है। अतः हमें पृथ्वी की प्राकृतिक सम्पदा जो स्वर्ग का निर्माण करती है जिसके राजा इंद्र (मानसून) हैं उस स्वर्ग की रक्षा करना हमारा सर्वोपरि धर्म बनता है। 
 एक लाख बीस हज़ार वर्ष का एक चतुर्युगी कालखंड होता है। इतना ही कृत युग होता है। एक लाख बीस हज़ार वर्ष के कृत युग के काल खण्ड के समाप्त होने तक पृथ्वी ग्रह पूरी तरह हरा-भरा हो जाता है तब दक्ष प्रजापति की कन्याओं का राज रहता है। नरपुरूष का शरीर कमजोर हो चुका होता है तब शाकाहारी पशुओं की तरह सन्तान रूप में मादा पैदा होने का अनुपात बढ़ जाता है । 
दक्ष प्रजापति का क्षेत्र उस ब्रह्मपुत्री नदी का वह क्षेत्र है जो हिमालय पर्वत से समुद्र तक जाने के लिए एक लम्बा मार्ग तय करती है । ब्रह्मपुत्र घाटी तथा उसके चारों तरफ फैली पर्वत श्रृंखला पर फैली सभी जातियों में आज भी लड़की पैदा होने पर प्रसन्नता ज़ाहिर की जाती है और लड़का पैदा होने पर अफ़सोस जताया जाता है. 
पृथ्वी जब वनस्पति विहीन हो जाती है तब यही एकमात्र क्षेत्र बचा होता है जहाँ वनस्पतियों, प्राणियों के साथ-साथ मानव की सभी प्रजातियों के गुणसूत्र यहाँ की जन-जातियों के माध्यम से बचे रहते हैं । 
अतः विश्व स्तर पर मैं विश्वजनों से यह अनुरोध करना चाहता हूँ कि GOD पार्टिकल खोजने के स्थान पर इन दो बिन्दुओं पर सर्वसम्मति बनायें। 

1. परमाणु-विखण्डन की प्रोद्योगिकी पर अंकुश लगायें और पृथ्वी पर डेज़र्ट का विस्तार न करें । दूसरे ग्रहों पर जीवजगत खोजने के स्थान पर पृथ्वीग्रह के जीवजगत की चिन्ता करें । पृथ्वी ग्रह के अलावा किसी दूसरे तीसरे ग्रह पर जीव की सम्भावना को तलाशने के स्थान पर पृथ्वीग्रह के जीव जगत का विस्तार करें । 

2. ब्रह्मपुत्री घाटी क्षेत्र में मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था जो विलुप्त होने के कगार पर है, उसे बचाने के उपाय करें । उस क्षेत्र में स्थापित हो चुकी औद्योगिक ईकाईयों को दूसरे स्थानों पर स्थानान्तरित करें और रेन-फोरेस्ट ईकोलोजी को पनपने दें । वनों की कटाई पूरी तरह बन्द की जाये । वार्षिक वर्षा के आंकड़े बताते हैं, यह क्षेत्र सबसे अधिक यानी चिन्ता की सीमा तक प्रभावित हुआ है । 

इस बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए कश्यप प्रजापति से वर्तमान तक की मानव सभ्यता संस्कृति को क्रमशः समझें जिसे भारतीय पौराणिक साहित्य के माध्यम से भी समझा जा सकता है।
   अतः यह चिंता या आशंका तो छोड़  दो कि 21-12-2012 को दुनिया नष्ट हो जाएगी बल्कि यह चिंता करो कि यही हाल रहा तो विश्वयुद्ध निश्चित है और आपको अगला जीवन या तो पशुयोनी में स्वीकार करना पडेगा या फिर लम्बे समय तक गर्भ का इन्तज़ार करना पडेगा,फिर भी आदिवासी के रूप में जन्म लेना पडेगा।
    वर्त्तमान की विकसित सभ्यता को बनाये रखना चाहते हैं तो भारत से शुरू करें और इसके लिए प्रथम चरण में भारतोय राजनीति को दल-दल मुक्त करें।

 दक्ष कन्याएँ 

     दक्ष कन्याएँ कैसी होती है इसको प्रत्यक्ष देखना चाहें तो अभी भी भारत-राष्ट्र के पूर्वोत्तर क्षेत्र के सभी राज्यों सहित ब्रह्म प्रदेश [म्यामार] में अर्थात भारत-वर्ष के मध्य क्षेत्र में आज भी देखा जा सकता है। उस मातृ-सत्तात्मक क्षेत्र में लडकियाँ सभी विषयों में अग्रणी के साथ-साथ अपने बलबूते पर घर चलाने में दक्ष हैं। एक चौथाई हेक्टर [50X 50 mtrs ] क्षेत्र में अपनी सभी आर्थिक आवश्यकताएँ पूरी कर लेती हैं। एक तरफ एक पुखरी,पोखर बना कर उसमे मछलियाँ पाल ली जाती है जिनका मूल आहार तो उन्हें प्राकृतिक वनस्पतियों से मिल जाता है अतः जूंठे बर्तन धोने से मिलने वाला अन्न उनके लिए पर्याप्त पौष्टिक आहार हो जाता है।
     पोखर की मछलियाँ परिवार के साथ-साथ बतखों का आहार भी होता है और इस तरह मछली,अण्डे और मॉस तीन चीजें मिल जाती हैं। 
      एक किनारे पर बांस लगा लिए जाते है जो मकान,फर्नीचर,बर्तन और सजावटी सामग्री सहित अनेक तरह के कामों में उपयोगी होता है। इसमे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन सभी प्रकार की वस्तुयें बनाने के वास्तुशास्त्र में वहां की सभी प्रजातियों की महिलायें दक्ष होती हैं।
       एक तरफ पान की बेलें और ताम्बूल के पेड़ लगा कर पानसुपारी का सेवन और मेहमान बाजी दोनों आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं। एक तरफ चावल और सब्जियाँ भी पैदा करली जाती हैं।बाजार से सिर्फ चूना और नमक दो ही चीजे लानी होती हैं।अनेक तरह की खाद्य सामग्री चारों तरफ उगी रहती है।
       आज जब औद्योगिक विकास की सुविधा उपलब्ध है तो धागा बना बनाया और रंगा रंगाया मिल जाता है अतः धागा घर पर नहीं बनाया जाता लेकिन आज भी आपको घरों में हाथ करघे  Hand looms में कपडे बुनने में दक्ष कन्याएँ देखने को मिल जायेंगी।

       लेकिन आज आज हमने पुरुष सत्ता को इस तरह स्विकार कर लिया है कि नारी को,जो कि शक्ति है फिर भी उसको शोषित मानकर नारी कल्याण की बात कर रहे हैं लेकिन जहाँ की नारीयाँ मानव प्रजातियों सहित निसर्ग के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए कृत युग में सती धर्म,भगवती धर्म,भागवत धर्म को निभाते हुए, पृथ्वी के पृथा धर्म को निभाते हुए पार्थ की विलुप्त होती नस्ल को पुनः विस्तार देती हैं,सनातन-धर्मचक्र को पुनः गति देतीं हैं  वहाँ की नारी सत्ता को सम्मान नहीं दिया जा रहा है।      अतः मैं पूर्वोत्तर क्षेत्र की सभी जातियों की महिलाओं से अपेक्षा करता हूँ कि वे इस आन्दोलन के एक भाग का केंद्र बनें और निर्दलीय रूप में अपने क्षेत्र के राजनैतिक जन प्रतिनिधि के रूप में सिर्फ महिलायें ही खड़ीं हों और पूर्वोत्तर की राजनैतिक सत्ता को अपने हाथ में लें। इसे अपनना धर्म [उत्तरदायित्व और अधिकार] समझ कर आन्दोलन के एक भाग को, एक वर्ग को यानी नारी सत्ता को और वर्षावनो के अर्थशास्त्र को कम से कम पूर्वोत्तर राज्यों में, मानव संस्कृति की धरोहर को अक्षुण बनाये रखने के लिए मातृ धर्म को धारण करें।