सातवें अवतार श्रीराम की वंशावली राजा हरीशचन्द्र से शुरू होती है।
राजा हरिश्चंद्र को सतयुग की समाप्ति और त्रेतायुग के आगमन के संधिकाल के समय का माना गया है।
श्रीराम को त्रेता की समाप्ति और द्वापर के आगमन के संधिकाल के समय का माना गया है। राम के समय तक भारतवर्ष और आर्यावर्त अलग-अलग थे। राम ने उस भारतवर्ष को सुरक्षित किया था जिसके शासक पद को इन्द्र की पदवी दी जाती थी।
आठवें अवतार कृष्ण-बलराम की जोड़ी को द्वापर की समाप्ति और कल्कियुग के आगमन के संधिकाल का माना गया है। यहाँ से अर्थात दुष्यंत-शकुन्तला के आकस्मिक मिलन और प्रणय से पैदा हुए भरत ने भारतदेश की पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत की थी।
सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की धटना है कि हरीश चन्द्र ने वैदिक होते हुए भी ब्राह्मण परम्परा के ब्रह्मण वशिष्ठ को अपना धर्मगुरु बनाया तब उनके वैदिक पुरोहित ऋषि विश्वामित्र ने इसका विरोध किया। वशिष्ठ जो की वैदिक समाज में आने के कारण ब्रह्मण के साथ साथ ब्रह्मऋषि भी कहलाने लगे थे।
विश्वामित्र ने वैदिक-ऋषि होने के उपरान्त ब्रह्मण परम्परा की सिद्धियाँ भी प्राप्त करली थी अतः वे भी ब्रह्मऋषि की पदवी चाहते थे। जब ऐसा नहीं हुआ तो राजा हरिश्चंद्र को स्वप्न दिलवा दिया कि राजा ने विश्वामित्र को अपना राज्य दान में दे दिया है। दूसरे दिन प्रातः ही विश्वामित्र सत्ता हस्तान्तरण के लिए पहुँच गए और अंततः सत्यवादी राजा ने स्वीकार किया कि स्वप्न में मैंने राज्य को दान में दें दिया था तब राजा राज्य से निष्कासित कर दिए गए। लेकिन उसके बाद भी विश्वामित्र ने दान के साथ नगदी दक्षिणा देने की परिपाटी को लेकर राजा पर दबाव डाला तब राजा ने अपने पुत्र और पत्नी को बेच कर दक्षिणा की व्यवस्था की।
जिस राज्य में अपनी पत्नी को बेचा था वहीँ पर वे नोकरी करने लग गए।उनको शमशान में मृतकों के दाह संस्कार के लिए शुल्क वशूलने का काम दिया गया।उसी समय उनके पुत्र की मृत्यु हो गयी लेकिन बिना शुल्क लिए उन्होंने अपनी पत्नी को अन्तिम संस्कार की इजाजत नहीं दी।
इस धटनाक्रम में दो बातें उभर कर आती है। एक यह कि इतनी विपरीत परिस्थिति में भी ब्राह्मण संस्कृति के सम्पर्क में आने से सत्यवादी बने रहे और राजकोष की आय में भ्रष्टाचार से मुक्त रह कर अपने मृत पुत्र को भी निशुल्क सुविधा नहीं दी, तो दूसरी तरफ यह कि उस समय वैदिक-आर्य-सभ्यता और ब्राह्मण-संस्कृति का मिलाप हो रहा था।
इसी तरह इस घटनाक्रम यह भी उभर कर आया है कि दैत्यों-दानवों की वैदिक सभ्यता में एक तरफ मुद्रा का प्रचलन और इंसान का भी वाणिज्य व्यापार यानी Commercial trading की तरह क्रय विक्रय किया जाता था तो दूसरी तरफ विश्वामित्र जैसे आदित्यों की परम्परा वाले देव भी ब्रह्मऋषि बनने को आतुर थे।
ऐसे सत्यवादी राजा के वंशज राम थे।
जब रामावतार हुए तो दैत्य-आदित्य,दानव-मानव के बाद एक शब्द की रचना हुई ‘‘रक्षस‘‘।
रक्षस से दो शब्द बने रक्षक एवं राक्षस।
राम रक्षक कहलाऐ और रावण राक्षस ।
आक्रमणकारी चरित्र को राक्षस कहा जाता है और राक्षसों से सुरक्षा देने वाला रक्षक कहा जाता है।अर्थात उस समय शस्त्र-निर्मान विज्ञान का विकास हो गया था जबकि उससे पहले विश्वामित्र ने कृत्रिम उपग्रह पर अनुसंधान कर लिया था। [Note इस विषय का बाद में उल्लेख करेंगे अभी अवतार कथा चल रही है]
ऋषियों (वैज्ञानिकों) एवं मुनियों (दार्षनिकों) की भारत भूमि पर काल का साया मण्डराने लगा । रावण के नाना ने अपनी पुत्री को एक वैज्ञानिक पुलस्त्य ऋषि से विवाह करने को प्रेरित किया। उस ने वैज्ञानिक से पुत्र प्राप्त किये तत्पष्चात् उन पुत्रों को वैदिक परम्परा की उन वैज्ञानिक विद्याओं को बताने के लिए मजबूर किया, जो यंत्र- निर्माण सम्बन्धी थी। तत्पष्चात् रावण के भाईयों, उसके पुत्रों एवं खुद रावण ने जो विद्याऐं विकसित की उनको संक्षिप्त में समझें ।
रावण ने परमाणु ऊर्जा संयत्र विकसित कर लिये थे और परमाणु बम बना लिये थे। रावण के पुत्र अहिरावण ने ऐसे यान बना लिए थे जो ध्वनि से कई गुणा अधिक या कहें, प्रकाश की गति के समकक्ष गति से उड़ान भरते थे । जिनका ईंधन डिस्टिल्ड वाटर यानी शुद्ध H2O था या है और जो ध्वनि नहीं करता तथा जिसकी आकृति गोलकार है क्योंकि गोल आकृति ही इतनी तेज़ चल पाती है वर्ना वायु घर्षण से जल कर राख हो जाती है। अहिरावण का कर्मस्थल समुद्र में था और मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि समुद्र में वह सभ्यता संस्कृति आज भी विद्यमान है और जिन्हें उड़न तश्तरीयाँ या UFO अन आईइण्डिफाइड फ्लाईंग ऑब्जेक्ट कह कर वर्तमान के वैज्ञानिक उससे अनभिज्ञता दर्शाते हैं ।
मेघनाद ने एक ऐसा ध्वनि उत्पादक एवं ध्वनि विस्तारक यंत्र बना लिया था जो ध्वनि तरंगों को नाद में बदल देता और वह नाद मेघ (बादल) की गर्जना जैसी ध्वनि थी, उन ध्वनी तरंगो से ही हृदयाघात हो जाता था अतः उसे मेघनाद नाम दिया गया।
कुम्भकर्ण छः महिने दक्षिणी ध्रुव यानी अण्टार्कटिका में रहकर जीव-विज्ञान पर शोध करता था और छः महिने सिर्फ खाता ही खाता था । क्योंकि उसने अपने शरीर में ऊँट की कूबड़ वाले टिष्यू (उत्तक) विकसित कर लिए थे । अतः वह छः महीनों में अपने शरीर में इतनी चर्बी का संग्रह कर लेता था कि बाक़ी के छः महिने वह बिना आहार के बिता सके ।
लेकिन कहते हैं कि आसुरी प्रवृत्ति का व्यक्ति दूसरों की हारमोनी यानी दूसरों का सुर भी बिगाड़ देता है क्योंकि वह खुद असुर होता है ।
उसने वैदिक परम्परा की उन यज्ञशालाओं का निर्माण किया जिसे औद्योगिक प्रतिष्ठान कहते हैं। उनमें निर्मित उपभोक्ता वस्तुओं के माध्यम से भारत के दक्षिणी किनारे से भोगवादी संस्कृति-सभ्यता का विस्तार शुरू किया ।
इस सभ्यता संस्कृति ने तब पूरे दक्षिण भारत को निर्माण एवं वाणिज्य की कोमर्सियल यानी काम एवं अर्थ वाली सभ्यता में बदल दिया था ।
रावण की वह उपभोक्ता सभ्यता जब पूरे दक्षिण भारत की भूमि को बन्जर बनाती हुई उत्तर भारत की तरफ बढ़ रही थी, तब इन्द्र ने उसे रोका ।
भारत में इन्द्र शब्द का दो तरह उपयोग होता है । एक इन्द्र तो वह जो मानसून कहलाता है । दूसरा एक इन्द्र व्यक्ति वाचक शब्द है जिसे इन्द्र पद कहा जाता है ।
आप यह कल्पना करें कि भारत वर्ष ताषकन्द से इण्डोनेषिया तक फैला है। उस भारत में अनेक देश हैं जो गणराज्य हैं और अनेक राष्ट्र यानी साम्राज्य भी हैं। उन सभी साम्राज्यों एवं गणराज्यों के ऊपर एक पद है जो इन्द्र पद कहा जाता है इस इन्द्र पद को पाने का कौन प्रयास नहीं करेगा!
इन्द्र के पास अधिकार होता था कि किसी भी साम्राज्य या गणराज्य को वह सेना एवं धन की आपूर्ति करने के लिये आदेश दे सकता था ।
इन्द्र का कर्तव्य था, भारत वर्ष में वर्षा के वार्षिक चक्र की स्थिति को बिगड़ने नहीं दे बल्कि अधिक से अधिक सुधरती जाये ऐसी व्यवस्था करे।
राम रक्षक
रावण की फैलाई जीवन शैली से जब दक्षिण भारत का वनोत्पादन प्रभावित होने लगा और वन नष्ट होने लगे तथा नगरीय उपभोक्ता सभ्यता का विकास होने लगा और रावण उत्तर भारत तक अपनी पहुँच बनाने लगा तो इन्द्र ने रावण के ऊपर सैनिक आक्रमण किया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें