जब भी कोई बन्दर चोटिल हो जाता है और उसके शरीर से ख़ून बहने लग जाता है तब अन्य बन्दरों के मन में यह जिज्ञासा पैदा होती है कि यह रंगीन पानी कहाँ से आ रहा है और तब वे कटी हुई चमड़ी को खींच-खींच कर देखते हैं। परिणाम स्वरूप घायल बन्दर की देह क्षत-विक्षत हो जाती है।
यही स्थिति उन जिज्ञासु वैज्ञानिकों की होती है जो वैज्ञानिक तो बन जाते है किन्तु उनमें दार्शनिकता का आचरण नहीं होता यानी कल्याणकारी होने या नहीं होने का Sense,बोध,ज्ञान नहीं होता अतः वे अपने धर्म को महसूस नहीं कर सकते। ऐसी स्थिति में अब यदि ऐसे वैज्ञानिकों के आका यक्ष एवं राक्षसों में विभूति कहे जाने वाले 'वित्तेश' होते हैं जिनके निवेश करने का उद्देश्य ही कमाना होता है,और जब व्यक्ति कमाने हेतु कामना से वशीभूत होकर कोई काम करता है तो इतना कमीना हो जाता है कि उसे उचित-अनुचित का ध्यान नहीं रहता। अपनी कमाई के लिए वे अति पर उतारू हो जाते हैं और सीमा का उल्लंघन कर देते हैं।
'बन्दरिया की बाटकी'
एक कहावत है 'बन्दरिया की बाटकी' (कटोरी को बाटकी भी कहा जाता है)। एक बन्दरिया ने देखा कि एक बच्चा एक कटोरी से पानी पी रहा है। उसने सोचा मैं तो जब पानी पीने जाती हूँ तो नदी में झुककर पानी पीना पड़ता है जबकि यह बाटकी तो बहुत उपयोगी है,इसको पानी से भरकर पीते हैं तो झुकना नहीं पड़ता। यह सब सोचकर वह बाटकी को छीन कर ले गई और नदी किनारे जाकर बाटकी भर-भर कर पानी पीने लगी तो उसे बड़ा मज़ा आया कि झुके बिना भी पानी पीया जा सकता है। वह इसी सुविधा का मज़ा लेती रही और पानी पर पानी पीती गई । परिणामतः पेट फट गया.
मानव जब फोरेस्ट ईकोलोजी की ईकोनोमिक्स से विकास करके एग्रीकल्चर ईकोलोजी की ईकोनोमिक्स तक पहुँचता है तब तक तो कल्चर्ड कहा जाता है,लेकिन जब वह जीव-विज्ञान की शाखाओं से बाहर निकलकर प्रोद्योगिकी-विज्ञान पर पहुँचता है तब वह ईकोनोमिक्स को गौण करके काम और अर्थ वाली कॉमर्शियल सभ्यता में प्रवेश करता है तो समझ लेना चाहिये,बन्दरिया के हाथ में बाटकी आ गई है। अब वह कामनाओं में बँध कर काम और अर्थ का मज़ा लेते-लेते अति पर उतारू होगा और आत्मघातक आचरण अपनाने लगेगा।
अग्नि की पूजा करो लेकिन एक सीमा तक
आपने यह तो सुना-पढ़ा होगा कि प्राकृत धर्म के मुनि (दार्शनिक) अग्नि का भी त्याग करते हैं।क्यों ?
क्योंकि वे वनों में रहेते हैं और फलों पर निर्वाह करते हैं। अन्न के दाने भी कच्चे चबाते हैं क्योंकि वे पूर्ण रूप से प्राकृत जीवन जीने की परम्परा अपनाते हैं जबकि वैदिक परम्परा की सभी शाखाओं के लोग अग्नि की पूजा करते हैं।
अग्नि की आवश्यकता भोजन पकाने के लिए होती है अतः ऋग्वेद की पहली ऋचा के पहले सूत्र में कहा है ''अग्नि मिळे पुरोहितम'' ।
लेकिन यही अग्नि जब प्रौद्योगिकी-विज्ञान तक पहुँचती है तब कार्बन-डाई-आक्साईड का अधिक उत्सर्जन होता है तो उसे सोखने के लिए वनों का विस्तार भी होना चाहिये। जब यह सन्तुलन बिगड़ जाता है तो ग्लोबल वार्मिंग होता है ।
यहाँ तक भी पारिस्थितिकी असन्तुलन चिन्ताजन स्थिति में नहीं पहुँचता क्योंकि प्रकृति अपने स्वसंचालित सनातन धर्म चक्र को पुनः संतुलित कर लेती है. लेकिन जब इसी अग्नि का उपयोग यान्त्रिक उर्जा के लिए होने लगता है और परमाणु विखण्डन की विधि विकसित हो जाती है तब प्रलयकारी स्थिति बनने की सम्भावना बन जाती है।
शिव की तीसरी आँख
परमाणु विखण्डन की प्रक्रिया में न्युट्रोन पर चोट की जाती है और जब परमाणु टूटता है तो उसे शिव की तीसरी आँख का खुलना कहा जायेगा।
आज इस पृथ्वी पर जितने भी रेगिस्तान हैं वे सभी पूर्व में हो चुके परमाणु-बमों के उपयोग के परिणाम स्वरूप बने हैं। आज हम धीरे-धीरे एक ऐसी दिशा में विकास कर रहे हैं जो हमें डायनासोर (दानवासुर) काल में धकेल सकता है। समय रहते धर्म,राजनीति और वैज्ञानिक विकास तीनों के नाम पर कमाई करने वाला कमीनापन ऐसे ही बढ़ता रहा तो हम एक ऐसे वनस्पति-विहीन पृथ्वी गृह के विकास की दिशा में बढ़ रहे हैं जिस पर विशालकाय सरीसृप जातियों के विषधर भ्रमण कर रहे होंगे।
ध्यातव्य है कि विषधर सरिसृप जाति के होते हैं और सरिसृप (reptelia) अपने पित्ताशय में रिसाव होने वाले भयानक पित्त के कारण प्राणी के नाखून, दाँत और हड्डियाँ भी हजम कर लेते हैं। पित्त को आयुर्वेद में राक्षस भी कहा जाता है जो बहुत अधिक भोग माँगता है।
इसी पित्त विकार से मानव भी भोजन में अत्यधिक प्रोटीन का भोग लगाने लग जाता है और दुनिया पर राज करने और विरोधियों का नाश करने की सोचने लग जाता है। इसी लिए रजो विकारी राक्षस कहा जाता है.यक्षों राक्षसों सींग पूँछ नहीं होते आचरण से ही पहचाने जाते हैं।
यदि हमें सरीसृप जाति के डायनासोर युग से बचना है तो सबसे पहले रजो-विकारी राजसी प्रवृति वाले शासकों,गुरुओं और पूंजीपतियों से सनातन धर्म को बचाना होगा और हम सभी पृथ्वीवासियों को एक सुर में परमाणु विखण्डन प्रौद्योगिकी विकसित करने से रोकने तथा धीरे-धीरे सभी परमाणु संयत्रों को बन्द करने की दिशा में निर्णय लेना होगा। विश्व के राजनेताओं को इस विषय में दबाव बनाने के लिए पहल तो हमें अपने भारत राष्ट्र से करनी होगी।
भारत में कोई भी राजनातिक दल आ जाये वह ऐसा नहीं कर सकता। भारत ही नहीं,विश्व की मानव सभ्यता को बचाना है तो भारतीय मतदाताओं को चुनाव आयोग अथवा सरकार से चुनाव सुधार की गुहार लगाने के स्थान पर अपने ईमानदार जनप्रतिनिधि चुन कर राजनीति को दल-दल मुक्त करना होगा वर्ना आपकी अगली पीढ़ी या आप ख़ुद तड़प-तड़प कर मरने को मजबूर हो जाएंगे।
21-12-12 को तो कुछ नहीं होने वाला है लेकिन निकट भविष्य में आर्थिक कारणों से सामरिक युद्ध की शुरुआत बड़े पैमाने पर होगी और एक विश्व युद्ध थोपा जायेगा। भारत के राजनेता आज सं. रा. अमेरिका, यूरोपियन लॉबी और आस्ट्रेलिया से आने वाले विचारों का अनुसरण करते हैं और इन राष्ट्रों की सरकारें उन पूंजीपतियों की बन्धक हैं जो परमाणु विखंडन प्रोद्योगिकी से कमाई कर रहे हैं। अतः भारत को यानी भारतीय मतदाता को इस समय हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठना चाहिए। अपना निर्दलीय जन-प्रतिनिधि चुन कर भारत की राजनीति को दल-दल मुक्त करना है और भारत को वर्गीकृत भव्य महाभारत बना कर मात्र भारत को ही नहीं मानव सभ्यता को बचा कर एक बौद्धिक ऊँचाई पर ले जाना है।
इस विषय में भारतीयों की जिम्मेदारी इस लिए भी सर्वाधिक हो जाती कि जब डायनासोर युग था तब भी इस धरती पर एक स्थान ऐसा था जो विभिन्न जीवप्रजातियों सहित मानव प्रजातियों को सुरक्षित रखे हुआ था। वह क्षेत्र हिमालय और ब्रह्मपुत्र घाटी का था, जो की भारत में है.अतः न सिर्फ हमें भारत को यक्षराक्षसों से सुरक्षित कर के समृद्ध और सम्पन्न बनाना है बल्कि सनातन धर्म चक्र के बीज़ सुरक्षित रखने वाले क्षेत्र को सुरक्षित रखने का धर्म भी हमें निभाना है।
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