विवाहोत्सवों, त्योहारोत्सवों, धार्मिक उत्सवों को मैं मानवनिर्मित आयोजनों के रूप में देखता था। मेरे लिए उनकी उपयोगिता सिर्फ इतनी ही थी कि उनके कारण पकवान निरन्तर मिलते रहते थे ।
अधिकतर घरों में खाने-पीने, पहनने-ओढने का रहन सहन अच्छा नहीं होता फिर भी उनके पास धन होता है और मेरे परिवार जैसे कुछ परिवार हैं कि जो प्रतिष्ठित एवं अच्छे जीवन स्तर वाले हैं,खूब खर्च करते हैं, वे इन धन का संग्रह करने वाले परिवारों की हँसी उड़ाते हैं और दिन भर दुनियाँ भर के विषयों की बातें करते रहते हैं। यह सब कैसे संचालित होता है !
मैं सोचता था कि यह तो सुनिश्चित है कि इस दुनियाँ को संचालित करने वाला कोई एक व्यक्ति विशेष नहीं है। ईश्वर, ब्रह्म, भगवान, देवी देवता यह सब क्या है ? इसी उधेड़बुन के बीच जीवविज्ञान, रसायनविज्ञान एवं भौतिकविज्ञान का पाठ्यपुस्तकीय अध्ययन भी हुआ और ऐतिहासिक, दार्शनिक और कथासाहित्य का तो नवीं कक्षा से जो सिलसिला शुरू हुआ वह युवास्था और प्रौढ़ावस्था के बीच की वयसंधि की अवस्था तक चला। लगभग पैंतीस वर्ष की आयु के आस-पास मुझे एक गुरू मिले जो मेरे जीवन के दूसरे और अन्तिम गुरू थे ।
दूसरे जो गुरू थे वे तहसील के अवकाश प्राप्त अधिकारी थे उन्होने मेरी जिज्ञासाएँ देखकर कहा आप इतना सब पढ़ते रहते हैं क्या आपने कभी धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया है ?
अतः आप इन शास्त्रों का इस तरह से अध्ययन करें कि लेखक दो विरोधाभासी तथ्यों को अपने तरीके से बता रहा है। आपको इस लम्बे चौड़े धार्मिक साहित्य को भी पढ़ने की आवश्यकता नहीं है आप तो सिर्फ गीता को पढ़ो और उसमें जो लिखा है उसको समझने की कोशिष करो, अभी तक आपने जो भी पढ़ा है वह सब एसेम्बल हो जायेगा ।‘‘
उसके बाद एक के बाद एक सब स्पष्ट होता गया.सबसे रोचक जानकारी तो धर्म और विज्ञान के बीच संबंधों की है.जब आप शरीर विज्ञान और मनो विज्ञान के बीच संबंधों को जान जाते हैं तो फिर आप यह भी जान जाते हैं कि शिष्ट आचरण और भ्रष्ट आचरण के बीच कोई सीमा रेखा नहीं होती.संगत से संस्कारित होते समय संगदोष भी विकसित होते हैं तो गुण भी विकसित होते हैं.आज हमारा राजनैतिक आचरण हो या अन्य सभी में संग दोष आ गया है अतः यदि हमें राजनीति में नैतिकता लानी है तो सबसे पहला काम संगत से मुक्त जन प्रतिनिधि को संसद और विधान सभा में भेजने से शुरू करना होगा.
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