जब ब्रह्मा के दिन का अन्त होने लगता है तब जीव की शारीरिक संरचना का संवाहक गुण-सूत्र (जीन) वायरस का रूप ले लेता है इसी प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्य में कहा गया है कि 'अव्यक्त में भी जीव का भाव बना रहता है'।
उस अन्य अव्यक्त भाव को संस्कृतजन्य वैज्ञानिक शब्दावली में परमगति वाला चुम्बकीय क्षेत्र कहा गया है जो बिना किसी भौतिक आधार के मीजोन पार्टिकल के रूप में होता है वह कभी भी पंच महाभूतों को आधार बना कर व्यक्त होने लगता है और धीरे-धीरे उद्विकास (ईवोल्यूशन) की प्रक्रिया से अपने पुराणे रूप (पौराणिक रूप),मूल आकृति में व्यक्त हो जाता है।मूर्ति रूप में,मूर्त रूप धारण करता है।
इसी तरह भूत-आत्मा को अव्यय-अक्षर कहा गया है। भूत-आत्मा भौतिक देह का आधार होता है । आत्म का लेटिन में उच्चारण हुआ ''एटम'' । एटम शब्द आत्म का अपभ्रंश उच्चारण है । एटम सभी भूतों की आत्मा है जिसे अव्यय-अक्षर कहा है । क्योंकि पदार्थ की अविनाशिता के नियमानुसार देह के डिकम्पोज होने के बाद भी यह एटम, आत्मा मरता नहीं है । व्यय नहीं होता । इसी के आगे अध्याय आठ के इक्कीसवें श्लोक में कहा है -
"जो अव्यक्त अक्षर नाम से कहा गया है उसे तो परम गति कहा गया है । इस परम गति को प्राप्त हुआ तो अव्यक्त से पुनः व्यक्त होता है लेकिन जिस स्थिति को प्राप्त होकर पुनः आवर्तित नहीं होता, आवागमन से निवृत्त हो जाता है, जिस परमधाम (गुरूत्वाकर्षण के केन्द्र) को प्राप्त हुआ मुझ (कृष्ण विवर/ ब्लेक होल) को प्राप्त हो जाता है वह कृष्ण विवर मेरा [गुरुत्वाकर्षण का] परमधाम है।"
आज पृथ्वीवासियों की आवश्यकता अन्य ग्रहों पर जीवजगत को खोजने संबंधी नहीं होनी चाहिये बल्कि पृथ्वीग्रह पर जीवजगत विषमता की चपेट में आकार नष्ट हो रहा है, इस विनाश की प्रक्रिया को रोकने सम्बन्धी होनी चाहिये। यह तभी सम्भव है जब हम पारिस्थितिकी (इकोलोजी) को अर्थव्यवस्था का मूल आधार बनायें।
क्योंकि जब तक व्यक्ति स्वयं सत-चित्त-आनंद घन की स्थिति के सुख को महसूस करने का अनुभव प्राप्त नहीं कर लेता तब तक वह जगत के उस स्वरूप की तरफ ध्यान नहीं देगा जो स्वरूप परिस्थिति बनाता है. जबकि जीवन के तीनों आयाम सामान महत्त्व रखते हैं.
पहला सुख निरोगी काया जब तक पौष्टिक आहार और शुद्ध और पवित्र देश उपलब्ध नहीं होगा शारीरिक रूप से स्वस्थ नहीं रह पाएंगे.जब तक शारीरिक स्वास्वस्थ अच्छा नहीं होगा मानसिकता, अध्यात्म,स्वभाव में आने वाले विकारों को आप रोक नहीं सकते. इन दोनों के योग से पैदा हुई मनः स्थिति के साथ परिवेश की परिस्थिति का भी अनुकूल होना आवश्यक होता है.जो व्यक्ति इस सच्चाई को जान जाता है वह इस सत्य और तथ्य को भी जान जाता है की आत्म कल्याण और समाज कल्याण एक दुसरे के पूरक हैं और जब इस सच्चाई को जान जाता है तो इस सच्चाई को भी जान जाता है कि आगामी जीवन में भी मुझे अनुकूल परस्थिति और परिवेश मिले इसके लिए सम्पूर्ण पृथ्वी पर फैला जगत यदि विषमता से मुक्त सम से व्याप्त होगा तो जीव मात्र के साथ मैं भी सचिदानन्दघन को स्वतः प्राप्त कर लूँगा.और वह यह भी जान जायेगा कि भौतिक सृष्टि भले ही भोग [ डीकम्पोजिसन ] को प्राप्त हो जाये वह ब्रह्म की स्थिति को प्राप्त हुआ पुनः योग [ कम्पोजिसन ] को प्राप्त कर लेगा अतः तब वह इस तरह की मुर्खता पूर्ण कल्पना में न जाकर रचनात्मक कल्पना में जायेगा.क्योंकि वह यह जान जाता है कि "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या"
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